वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

इक्कीसवीं सदी का दर्शन एवं विज्ञान- वैज्ञानिक अध्यात्म

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         नवयुग का नवीन दर्शन और नवीन विज्ञान है- वैज्ञानिक अध्यात्म। इसे देव संस्कृति विश्वविद्यालय के आँगन में अंकुरित होते- पल्लवित होते देखकर मैं हर्षित हूँ। कुछ ऐसी ही मौन अभिव्यक्ति हो रही थी भारत गणराज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के चेहरे पर छाए उत्साह एवं आँखों से छलकती उम्मीदों से। वह दिसम्बर २००६ ई. दिन शनिवार को द्वितीय दीक्षान्त के अवसर पर तकरीबन बजे विश्वविद्यालय पधारे थे। यहाँ आने से पहले ही उन्होंने विश्वविद्यालय की विशिष्टताओं के साथ इस संस्था के महान् कुलपिता वेदमूर्तिं तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के तपस्वी एवं राष्ट्रनिष्ठ जीवन का परिचय पा लिया था। आचार्य श्री के व्यापक लेखन, उनके द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक- वैचारिक क्रान्ति, खास तौर पर विज्ञान व अध्यात्म के समन्वय के लिए किए गए आचार्य श्री के प्रयास व वैज्ञानिक अध्यात्म के उनके सम्प्रत्यय ने उन्हें प्रभावित किया था। यहाँ आने पर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति ने उन्हें कम समय में किन्तु सारगर्भित शब्दों में वैज्ञानिक अध्यात्म की अवधारणा का मर्म समझाया।

         उन्हें बताया कि किस तरह यहाँ वैज्ञानिक अध्यात्म को ज्ञान की सर्वथा नवीन धारा के रूप में प्रवर्तित- प्रवाहित करने के प्रयास हो रहे हैं। और किस तरह इन प्रयासों की परिणति के रूप में वैज्ञानिक अध्यात्म नवयुग के नवीन दर्शन व नवीन विज्ञान के रूप में स्थापित हो सकेगा। कुलाधिपति के स्नेहिल स्वरों के साथ उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय नारायणदत्त तिवारी एवं इस राज्य के राज्यपाल महामहिम सुदर्शन अग्रवाल, विश्वविद्यालय के कुलपति व संकायाध्यक्ष ने महामहिम अब्दुल कलाम का मंच पर स्वागत किया। इस महामंच पर विश्वविद्यालय को स्नेहिल संरक्षण देने वाली स्नेह सलिला शैल जीजी की गरिमामयी उपस्थिति इस अवसर को विशिष्ट बना रही थी। मंच के सामने छात्र- छात्राओं, अभिभावकों, आचार्यों, अधिकारियों का विशाल समूह था। इस क्षण की प्रतीक्षा देश भर के कोने- कोने से आए भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा के किशोर प्रतिभागी भी कर रहे थे। उन्हें भी अपने राष्ट्रपति का दीक्षान्त उद्बोधन सुनना था।

      डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने अपना दीक्षान्त भाषण प्रारम्भ करने से पूर्व कुरलः५९५ का उद्धरण दिया- जलज नाल उतनी बड़ी, जितनी जल की थाह। नर होता उतना बड़ा, जितना हो उत्साह॥ उनके इन स्वरों को सुनकर सभी ने ऐसा अनुभव किया जैसे कि हिमालय से आ रही बर्फीली हवाओं में सूर्य की ऊष्मा- ऊर्जा व तेज घुल गया हो। उन्होंने कहा- देव संस्कृति विश्वविद्यालय के दूसरे दीक्षान्त समारोह में उपस्थित होकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। मुझे ज्ञात है कि इस विश्वविद्यालय ने स्वतन्त्रता सेनानी और लगभग ३००० पुस्तकों के लेखक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के स्वप्न को साकार रूप दिया है। इसके बाद उन्होंने विश्वविद्यालय के अनुसन्धान एवं शिक्षण, क्षमता निर्माण, अनुसन्धान एवं अन्वेषण, रचनात्मकता और नवीनीकरण, उच्च प्रौद्योगिकी के उपयोग की क्षमता, उद्यमशीलता, आदर्श नेतृत्व, ग्रामीण विकास उद्यम की सराहना करते हुए इस सम्बन्ध में अपने विचारों का मार्गदर्शन भी दिया।

       इसके बाद उन्होंने कहा कि ‘छात्र समाज कल्याण के विकास में विज्ञान और अध्यात्म को भी जोड़ सकते हैं जो कि आचार्य जी का स्वप्र था। ऐसा कहते हुए वह बोले- जब विज्ञान और अध्यात्म की चर्चा हो रही है तो मैं आपको अपने एक अनुभव के बारे में बताना चाहूँगा, जो मुझे अन्तरिक्ष विभाग में काम करते समय हुआ। उस समय भारत में अन्तरिक्ष कार्यक्रम के स्वप्र द्रष्टा प्रो. विक्रम साराभाई भूमध्य रेखा के समीप किसी क्षेत्र में अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र स्थापित करने के लिए स्थान खोज रहे थे। बहुत खोजबीन के बाद दक्षिण भारत के केरल राज्य में थुम्बा नामक स्थान को उन्होंने अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र के लिए चुना। जब वह इस स्थान पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि हजारों मछुआरे इस क्षेत्र के गांव में रह रहे थे। वहाँ बहुत सुन्दर प्राचीन सेंट मेगडालेने गिरिजाघर और पादरी का घर भी था। प्रो. साराभाई ने इस स्थान को पाने के लिए अनेक वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं से बात की, लेकिन उन्हें सफलता न मिली।

        अन्ततः वह इस समस्या के हल के लिए बिशप ऑफ त्रिवेन्द्रम, रेवरेण्ड फादर डॉ. पीटर परेरा से मिले। वह सन् १९६२ ई. का एक शनिवार था। जब प्रो. साराभाई ने पादरी से अपनी सारी बातें बतायीं। उनकी बातें सुनकर पादरी मुस्कराए। अगले दिन रविवार की प्रार्थना के बाद उन्होंने वहाँ एकत्रित श्रद्धालुओं से कहा, मेरे बच्चो, मेरे साथ यहाँ एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक बैठे हुए हैं, जो अपने अन्तरिक्ष अनुसन्धान के लिए हमारे गिरिजाघर और मेरे घर वाली जगह लेना चाहते हैं। प्यारे बच्चो! विज्ञान और आध्यात्मिकता दोनों ही लोगों के भले के लिए परमेश्वर का आशीर्वाद चाहते हैं। बच्चों क्या हम वैज्ञानिक केन्द्र के लिए उन्हें यह आध्यात्मिक केन्द्र सौंप सकते हैं? इस पर एक स्वर में सभी ने कहा- आमीन। फिर देखते- देखते सब ओर ‘आमीन’ का स्वर गूंज उठा। इस तरह वैज्ञानिक प्रयास एवं आध्यात्मिक सम्वेदना के मिलन से भारत में अन्तरिक्ष युग का प्रारम्भ हुआ।

       उनके द्वारा कही गयी यह घटना उन्हीं के द्वारा लिखित पुस्तक- ‘इनडोमिटेबल स्प्रिट’ में अंकित है। इस पुस्तक का अदम्य साहस के नाम से हिन्दी अनुवाद भी हो चुका है, जहाँ इसे १२८- १३० पृष्ठ में पढ़ा जा सकता है। इसी पुस्तक में १२५ पृष्ठ पर एक अन्य घटना है। सन् १८९३ में एक जहाज जापान से अमेरिका जा रहा था। उस जहाज में सैकड़ों लोग थे, जिनमें दो विशिष्ट भारतीय स्वामी विवेकानन्द और जमशेद नौशेरवान जी टाटा भी थे। जमशेद जी भारत में इस्पात संयंत्र स्थापित करना चाहते थे, परन्तु इसकी प्रौद्योगिकी देने से अंग्रेजों ने न केवल मना किया, बल्कि उनका मजाक भी उड़ाया- यदि भारतीय इस्पात उत्पादन करेंगे तो क्या ब्रिटेन के लोग उसका भोजन करेंगे। बातचीत के क्रम में जमशेद जी ने ये बातें स्वामी विवेकानन्द को बतायी। और उनसे कहा कि वह इंग्लैण्ड से निराश होकर अमेरिका जा रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें सफलता का आशीर्वाद दिया। लेकिन साथ ही उन्हें यह भी सलाह दी कि बेहतर हो कि आप औरों से टेक्रोलॉजी मांगने की बजाय अपने देश का वैज्ञानिक ढांचा विकसित करें।

         टाटा स्वामी जी के आशीर्वाद से अमेरिका से सफल होकर लौटे, परन्तु साथ ही उनके मन में विवेकानन्द जी की बात बनी रही। उन्होंने २३ नवम्बर १८९८ को उन्हें एक पत्र लिखा-

२३ नवम्बर, १८९८

प्रिय स्वामी विवेकानन्द,

        मुझे विश्वास है कि आपको जापान से शिकागो कि वह यात्रा याद होगी जिसमें जहाज पर मैं आपके साथ था। मुझे भारत में संन्यास भाव के विकास के सम्बन्ध में आपके विचार अभी भी याद है। आपका वह वचन जो आपने संन्यासियों के कर्त्तव्य के सम्बन्ध में कहा था। संन्यासी का कर्त्तव्य है कि वह अपनी ऊर्जा को नष्ट न करे, बल्कि उसको उपयोगी कार्यों में लगाए।

        मैं इन विचारों का उपयोग विज्ञान अनुसन्धान संस्थान की अपनी योजना में करना चाहता हूँ। इस संस्थान के सम्बन्ध में आपने जरूर सुना या पढ़ा होगा। मैं मानता हूँ कि संन्यास भाव का इससे बेहतर उपयोग कहीं नहीं हो सकता। इस भाव से भरे हुए लोगों के लिए मठ या आवासीय परिसर स्थापित किए जायें, जहाँ वे साधारण सुविधाओं के बीच जीवन गुजारते हुए अपने आपको विज्ञान और मानविकी विकास के लिए समर्पित कर सकें। मेरा विश्वास है कि यदि कोई सक्षम नेता इस तरह के संन्यास के पक्ष में अभियान चलाता है तो इससे संन्यास- विज्ञान और देश की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि होगी। मैं जानता हूँ कि इस अभियान के सर्वश्रेष्ठ नायक स्वामी विवेकानन्द ही हो सकते हैं। क्या अपनी परम्परा में ऐसा जीवन मूल्य पैदा करने के ध्येय में आप अपने आपको लगाने की सोच रहे हैं? अच्छा होता यदि इस सम्बन्ध में जन जागृति फैलाने के आशय का एक प्रेरणादायी पैम्पलेट आप तैयार करते। मुझे इसके प्रकाशन का पूरा व्यय वहन करने में खुशी होगी।

- जमशेद जी एन. टाटा

       स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन व आशीर्वाद तथा जमशेद जी जैसे दूरद्रष्टा की कोशिशों से सन् १९०९ ई. में भारतीय विज्ञान संस्थान- बंगलोर की स्थापना हो सकी। भारतीय विज्ञान संस्थान दो महान् व्यक्तियों की दूरदृष्टि (प्रकारान्तर से विज्ञान व अध्यात्म के सम्मिलित प्रयत्न से) से स्थापित हो सका। यह भौतिकी, एयरोस्पेस, प्रौद्योगिकी, ज्ञान आधारित उत्पाद, जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी का एक विश्वस्तरीय संस्थान है।

     इन प्रेरक विचारों के संकलक रचनाकार डॉ. ए.पी.जे. कलाम ने कहा कि विश्व के किसी भी देश में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते। किसी भी देश में वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए गिरिजाघर की भूमि नहीं दी गयी। ऐसा केवल भारत में ही हुआ। आज के दौर में हमें इससे और भी कई कदम आगे बढ़ना है। अब अध्यात्म की क्रियाओं तकनीकों, प्रयोगों का वैज्ञानिक विधि से अनुसन्धान करना है। भले ही इसके लिए हमें सर्वथा नवीन प्रयोग प्रणाली, शोध तकनीकें, अनुसन्धान विधियाँ खोजनी पड़ें। एक सर्वथा नवीन ढांचा तैयार करना पड़े, विकसित करना पड़े। यह अनूठा कार्य भी अपने इसी देश में हो सकता है। यही देश ऐसा है जहाँ यह सर्वथा नवीन उपक्रम स्थापित कर पाना सम्भव है। यदि ऐसा हो सका तब मानव जीवन की शारीरिक, मानसिक, यहाँ तक कि सामाजिक, राजनैतिक, वैश्विक समस्याओं के लिए समाधान के नए द्वार खुलेंगे।

      दीक्षान्त अवसर पर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम थोड़ी ही देर रहे। परन्तु अपनी पढ़ाई खर्च के लिए घर- घर अखबार पहुँचाने वाले किशोर से लेकर भारत को मारक मिसाइल की क्षमता से लैस करने वाला वैज्ञानिक, १९९८ ई. में पोरखण के द्वितीय विस्फोट के सूत्रधार, और अन्ततः भारत गणराज्य के राष्ट्रपति के शीर्षपद तक पहुँचने वाले इस अनूठे व्यक्तित्व को पाकर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के छात्र- छात्राएँ अभिभूत थे। देश के अन्य भागों से आए भारतीय ज्ञान परीक्षा के प्रतिभागी किशोर छात्र- छात्राएँ भी पुलकित थे। इस थोड़ी ही देर में दीक्षान्त भाषण के उपरान्त डॉ. कलाम उपाधि पाने वाले कई छात्र- छात्राओं से मिले। उनके साथ फोटो खिचवाई। उनसे हाथ मिलाया और उन्हें एक- दो मन्त्र वाक्यों से प्रेरित किया।

कुछ ही घण्टों में विश्वविद्यालय ने उनकी कई स्मृतियाँ स्वयं में संजोकर उन्हें विदा किया। यूं तो उनकी सभी पुस्तकें पठनीय एवं प्रेरक हैं। पर विज्ञान एवं अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी रचना अदम्य साहस के कई बिन्दु मर्मस्पर्शी हैं। इसी पुस्तक के १३४ पृष्ठ पर वह कहते हैं- एक छात्र के प्रश्र का उत्तर देते हुए मैंने कहा कि विज्ञान की कोशिश है कि लोगों का भौतिक जीवन बेहतर हो, जबकि अध्यात्म का प्रयास है कि प्रार्थना आदि उपायों से इन्सान सच्ची राह चले। विज्ञान और अध्यात्म के मिलन से तेजस्वी नागरिक का निर्माण होता है। तर्क और युक्ति विज्ञान व अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं। धार्मिक व्यक्ति का लक्ष्य आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करना है, जबकि वैज्ञानिक का मकसद कोई महान् खोज या अविष्कार करना होता है। यदि जीवन के ये दो पहलू आपस में मिल जाएँ तो हम चिन्तन के उस शिखर पर पहुँच जाएँगे जहाँ उद्देश्य एवं कर्म एक हो जाते हैं।

        इस मिलन के लिए जरूरी है गम्भीर अध्ययन- अनुसन्धान यात्रा। और यह उसी रीति से होनी चाहिए जैसा कि टाटा ने सोचा था कि ऐसे आध्यात्मिक व्यक्ति जो साधारण सुविधाओं के बीच जीवन गुजारते हुए विज्ञान एवं मानविकी के लिए स्वयं को समर्पिर्त कर दे। युगऋषि वेदमूर्तिं तपोनिष्ठ आचार्य श्री ने अपने युग में इसी स्वप्न को साकार रूप दिया था। पवित्र नदी गंगा के तट पर साधना आरण्यक ब्रह्मवर्चस को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के रूप में स्थापित करना। विश्व में पहली वैज्ञानिक अध्यात्म की प्रयोगशाला की स्थापना, एक ऐसी स्थापना जिसने बाद में अपना विस्तार देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के रूप में किया।
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