‘वैज्ञानिक
अध्यात्म के वैदिक द्रष्टा- ऋषि विश्वामित्र इन दिनों अपने
विशिष्ट महाप्रयोग में लीन थे। पिछले कुछ वर्षों से वह पूरी तरह
से एकान्त में थे। वाणी का प्रयोग भी उन्होंने प्रायः बन्द कर
रखा था। उनकी वाणी अब केवल विशेष मुहूर्तों में किए जाने वाले अति आवश्यक मन्त्रोच्चार
के लिए ही सक्रिय होती थी। अन्य कार्यों के लिए तो वह बस
संकेतों से काम चला लेते थे। उनके इस महाप्रयोग की ऊष्मा- ऊर्जा
से उनकी महान् तपस्थली सिद्धाश्रम का कण- कण ऊर्जस्वित- आपूरित हो रहा था। यूं तो मह्रर्षि
विश्वामित्र ने अपना समूचा जीवन तप के अनगिन आध्यात्मिक
प्रयोगों में बिताया था। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के सभी बासठ
सूक्त इसकी साक्षी देते हैं। ऋग्वेद के इस तृतीय मण्डल के बासठवें सूक्त का दसवां मन्त्र गायत्री महामन्त्र के रूप में लोक विख्यात् हो रहा था। इसी के साथ गायत्री महामन्त्र के द्रष्टा, अलौकिक अनुभवी सिद्ध एवं इस महामन्त्र से जुड़ी सहस्राधिक साधनाओं के सूक्ष्म एवं पारगामी तत्त्वदर्शी महॢष विश्वामित्र भी सुविख्यात् हो रहे थे।
परन्तु उन्हें लोक ख्याति नहीं, लोक सेवा प्रिय थी। विश्वहित के
प्रयोजनों में स्वयं को निरन्तर खपाते रहने के कारण ही विश्व
आज उन्हें विश्वामित्र के रूप में जान रहा था। पहले कभी वह
वैभवशाली नरेश विश्वरथ हुआ करते थे। परन्तु जब से उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के संग- सान्निध्य में अध्यात्म विद्या- ब्रह्मतेज एवं ब्रह्म बल की महिमा जानी, तबसे वह क्षात्र बल व क्षात्रतेज से वैराग्य लेकर आध्यात्मिक प्रयोगों में लीन हो गए। अब तो ब्रह्मर्षि
वशिष्ठ भी उनके महान् तप एवं लोकसेवा की प्रशंसा करते थकते
नहीं थे। इसीलिए तो उन्होंने आग्रहपूर्वक महाराज दशरथ से अनुरोध
करके श्रीराम एवं उनके अनुज लक्ष्मण को मह्रर्षि विश्वामित्र की सेवा में भेजा था। उस समय भी मह्रर्षि
आवश्यक प्रयोग कर रहे थे। लेकिन यह तो बहुत साल पहले की बात
थी। अब तो महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो चुके थे। श्रीराम अपनी
भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण सहित चित्रकूट वन में थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अयोध्या में कुमार भरत को अपना संरक्षण प्रदान कर रहे थे।
इधर ऋषि विश्वामित्र ने सिद्धाश्रम में नया विशिष्ट महाप्रयोग
प्रारम्भ किया था। इस प्रयोग को शुरू करने से पहले उन्होंने अपने
शिष्य जाबालि, पुत्र मधुछन्दा, पौत्र जेत एवं अघमर्षण
को बुलाकर कहा था- इस बार की चुनौतियाँ पहले की सभी चुनौतियों
से कहीं अधिक गम्भीर हैं। इस बार सवाल किन्हीं मारीच, सुबाहु या
ताड़का द्वारा फैलाए जा रहे आतंक का नहीं है, सवाल किसी क्षेत्र
विशेष की सुरक्षा का भी नहीं है। इसबार तो संकट सृष्टि के अस्तित्त्व
पर है। असुरता अपने व्यूह रच रही है। मायावी एवं पैशाचिक
शक्तियाँ नए- नए संहारक- मारक प्रयोग कर रही हैं। उन सबको एक साथ
निरस्त करना है। इतना ही नहीं भविष्य की सतयुगी परिस्थितियों के
लिए अपरा एवं परा प्रकृति में, जड़ एवं चेतन प्रकृति में एक साथ
महापरिर्वन करने होंगे। और यह तभी सम्भव हो पाएगा, जबकि समूचे विश्व की कुण्डलिनी का जागरण हो।
‘विश्व कुण्डलिनी जागरण’ इस शब्द ने युवा जेत एवं अघमर्षण को ही नहीं प्रौढ़ हो चुके मधुछन्दा एवं जाबालि को भी चकित एवं रोमांचित कर दिया। ये दोनों तो अतिदीर्घकाल से महॢष के सभी प्रयोगों में घनिष्ठ सहयोगी थे। परन्तु आज इनके चौंकने
एवं रोमांचित होने को उन्होंने अनदेखा कर दिया। वह इन्हें समझा
रहे थे- इसके लिए धरती की कुण्डलिनी शक्ति जो उत्तरी ध्रुव से
दक्षिणी ध्रुर्व् के बीच प्रवाहित चुम्बकीय प्रवाह के रूप में है, इसे सौर ऊर्जा से आन्दोलित, उद्वेलित एवं परिवर्तित
करना पड़ेगा। इसके लिए अनिवार्य है, सौर ऊर्जा का व्यापक सन्दोहन
एवं आवश्यक सम्प्रेषण- संयोजन। यह कार्य अति कठिन है, परन्तु
असम्भव नहीं। इसके लिए मैं गायत्री महाविद्या का सावित्री प्रयोग
करूँगा।
यानि कि विलोम गायत्री के ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मशिरस् एवं पाशुपात का एक साथ समन्वय, बल्कि उससे भी कहीं कुछ अधिक। मह्रर्षि के कथन के साथ ही ऋषि जाबालि एवं ऋषि मधुछन्दा के मन में लगभग एक साथ ही यह बात आयी। उनके इन मानसिक संवेदनों ने मह्रर्षि की भावचेतना को कहीं छुआ। वह बोले- तुम ठीक सोचते हो। परन्तु मैं सृष्टि की रक्षार्थ अध्यात्म विद्या के इस महानतम् वैज्ञानिक प्रयोग को अवश्य करूँगा। आत्मिक चेतना एवं सविता चेतना के तारतम्य को बनाने वाले आधार इसी से विनिर्मित
होंगे। सावित्री विश्वव्यापी है। इसके प्रभाव से भूमण्डल का
सम्पूर्ण क्षेत्र एवं प्राणी समुदाय का समूचा वर्ग प्रभावित होगा।
इस प्रभाव से तमस् क्षीण होगा और सत्त्व की अभिवृद्धि होगी।
इससे अन्तःकरण एवं पर्यावरण में एक साथ सुखद परिवर्तन होंगे।
विनाशक शक्तियाँ विनष्ट होंगी एवं सृजन शक्तियों का नवउत्थान होगा।
हमें क्या करना होगा भगवन्? मह्रर्षि को सुन रहे सभी जनों ने अपने कर्त्तव्य को निर्धारित करना चाहा। उनके प्रश्र के उत्तर में ब्रह्रर्षि
बोले इस कठिन घड़ी में तुम सभी को अपने दायित्व दृढ़ता से
निभाने चाहिए। वत्स जाबालि इस कठिन कार्य में मेरे निजी सहयोगी
की भूमिका निभाएँगे। पुत्र मधुछन्दा अयोध्या में तप कर रहे ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, चित्रकूट में तपस्यारत ब्रह्मर्षि अत्रि एवं सुदूर दक्षिण में वेदपुरी में कठोरतप में संलग्र मह्रर्षि अगस्त्य से सूक्ष्म सम्पर्क बनाए रखेंगे। और उनके संकेतों से समय- समय पर हमें अवगत कराएँगे। क्योंकि ब्रह्मर्षि
वशिष्ठ इस कार्य के लिए सौ पुरुषों का ऐसा महान् साधक वर्ग
तैयार कर रहे हैं, जो लोक में सतयुगी वातावरण, सावित्री शक्ति के
अवतरण को सहज बनाएँ। मह्रर्षि
अत्रि चित्रकूट में हैं, उनका दायित्व यह है कि वह इस
महाप्रयोग की ऊर्जा को धारण करने में वत्स राम, लक्ष्मण एवं
पुत्री सीता को समर्थ बनाएँ।
इसी क्रम में अगली कड़ी में महर्षि
अगस्त्य हैं- वह इस सावित्री महाप्रयोग से उत्पन्न होने वाली
शक्ति महान् दिव्यास्त्रों की संरचना करेंगे। और समय आने पर
श्रीराम को प्रदान करेंगे। यह सभी कार्य एक साथ, एक ही स्तर पर
सम्पन्न होंगे। यद्यपि हम सभी का चेतना स्तर पर जुड़ाव तो होगा
ही। परन्तु अपनी- अपनी प्रायोगिक निमग्रता के कारण यदा- कदा यह सम्पर्क- संस्पर्श न्यून पड़ेगा। इसलिए पुत्र मधुछन्दा इस कार्य के लिए तत्पर रहेंगे। वत्स जेत एवं अघमर्षण
इस कार्य में अपने पिता का सहयोग करेंगे। हमारी दिव्य दृष्टि
कहती है कि यह महान् सावित्री साधना अवश्य सफल होगी। और धरती पर
सतयुगी परिस्थितियाँ अवश्य विनिर्मित- विस्तारित होंगी। इतिहास साक्षी है कि महर्षि
विश्वामित्र के सावित्री महाप्रयोग से धरती पर रामराज्य सम्भव
हो सका। सतयुगी विधान क्रियान्वित हो सका। जिसकी रचना में अत्रिवंश की कन्या विश्वावारा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।