वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

रिसर्च को जहाँ ऋषि अर्चन माना जाता है

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         ‘‘धार्मिक जगत् के लिए अनिवार्य हैं वैज्ञानिक प्रयोग। आखिर प्रयोगों की परख ही तो किसी तथ्य को खरा और प्रामाणिक बनाती है। प्रायोगिकता एवं प्रामाणिकता दोनों जहाँ बरकरार हैं, उसकी उपयोगिता में कोई संशय नहीं रह जाता। जब से धार्मिक जीवन से वैज्ञानिक अन्वीक्षण, अन्वेषण एवं अनुसन्धान की कड़ियाँ टूटी हैं, तब से धर्म व धार्मिकता के पूरे ढाँचे पर संशय और शंकाओं के बादल छाए हुए हैं। मैं ऋषियों के उस देश से आपके पास आया हूँ, जहाँ कभी रिसर्च को ऋषि अर्चन समझा जाता था। जहाँ विश्व में पहली बार विकासवादी वैज्ञानिकता के सांख्यशास्त्र का प्रतिपादन हुआ। जहाँ गणित के समीकरणों के साथ जीवन विज्ञान पर गम्भीर अनुसन्धान किए गए। जहाँ कभी पदार्थ व चेतना एक साथ अनुसन्धान का विषय बनी थी। पर आज ये कड़ियाँ टूट- बिखर गयी हैं। मैं हिमालय और गंगा के उस महान् देश भारत के अतीत की उस धरोहर से ऋषियों के ज्ञान कणों के साथ आपके लिए गंगा के जल कण लाया हूँ। इसी के साथ मैं आपको देने आया हूँ इस युग की महान् विभूति श्रीरामकृष्ण परमहंस एवं उनके प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानन्द का मानवतावादी सन्देश।’’

       यह कहते हुए स्वामी रंगनाथानन्द ने मंच के समीप ही बैठी मास्को विश्वविद्यालय की छात्राओं अंतेचिया, वाविलोवा एवं मैक्सिमोवा को संकेत किया। इन छात्राओं ने स्वामी जी का संकेत समझकर छोटे- छोटे कलशों में भरा हुआ जल एवं आम्रपल्लव उठा लिए और मंगल अभिसिंचन प्रारम्भ कर दिया। इसी के साथ स्वामी जी ने कहा यह गंगा के तटवासी साधु का वोल्गा के तट पर रहने वालों के लिए स्नेह उपहार है। स्वामी रंगानाथानन्द के इस कथन के साथ किए गए गंगाजल के मंगल अभिसिंचन ने मास्को विश्वविद्यालय के उस बड़े से लेक्चर थियेटर में बैठे हुए प्राध्यापकों एवं छात्र- छात्राओं के तन और मन दोनों स्नेह जल से भिगो दिए। यह अक्टूबर १९७७ की एक सांझ थी। मास्को स्टेट यूनिवॢसटी के आमंत्रण पर स्वामी रंगनाथानन्द उस समय के सोवियत रूस के इस विख्यात् विश्वविद्यालय में पधारे थे। यह समय का वह दौर था जब सोवियत रूस में धर्म और धार्मिकता पर व्यापक परिचर्चा सम्भव न थी। परन्तु स्वामी रंगनाथानन्द अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं के अनुरूप ही यहाँ धर्म व अध्यात्म का वैज्ञानिक एवं मानवतावादी स्वर लेकर आए थे।

         १५ दिसम्बर १९०८ में केरल के ट्रिकुर गांव में जन्मे शंकरन कुट्टी साढ़े सत्तरह वर्ष की आयु में श्रीरामकृष्ण मठ एवं मिशन में सम्मिलित हुए। सन् १९३३ ई. में उन्हें श्रीरामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी शिवानन्द जिन्हें श्रीरामकृष्ण संघ में महापुरुष महाराज कहा जाता था- से संन्यास दीक्षा मिली। और उनका संन्यास नाम हुआ स्वामी रंगनाथानन्द। अपने प्रारम्भिक दौर में उन्होंने रसोइये का काम किया। स्कूल शिक्षा अधिक न होने के बावजूद अपने अनवरत स्वाध्याय एवं प्रगाढ़ साधना ने उन्हें ज्ञान की अनगिनत धाराओं में निष्णात बनाने के साथ आध्यात्मिकता के शिखर तक पहुँचाया। अपने व्यक्तित्व के प्रभाव एवं प्रभा के बल पर ही उन्होंने विश्व के ५१ से भी अधिक देशों में भ्रमण कर भारत देश के आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दूत की भूमिका निभाई। यही प्रकाश उनके द्वारा लिखी गई तकरीबन २० पुस्तकों में भी प्रकट हुआ। अपने समय के प्रायः सभी महान् व्यक्ति किसी न किसी रूप में उनके सम्पर्क में आए और उनकी सलाह से प्रेरित व लाभान्वित हुए।

      इस क्रम में पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गांधी, श्री राजीव गांधी, श्री अटलबिहारी वाजपेई और भी न जाने कितने अनगिन लोग हैं। अध्यात्म की सार्वभौमिकता उनका परिचय थी। जिससे परिचित होकर सोवियत रूस के मास्को विश्वविद्यालय ने उन्हें बुलाया था। से १२ अक्टूबर १९७७ की तिथियों में यहाँ उनकी नियमित वक्तृताएँ थीं। लेकिन आज की सांझ वह मास्को विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापकों एम. शिरोकोव, बी.जी. कुलेनेस्तोव, वाई.बी. मोल्कानोव, पी. कास्त्रिन एवं अलेक्जेन्द्रोवा के विशेष आग्रह पर अनौपचारिक तौर पर प्राध्यापकों व छात्र- छात्राओं के समूह को सम्बोधित कर रहे थे। वे कह रहे थे कि आधुनिक विज्ञान के शोधकर्त्ताओं को अपने शोध कार्य की सीमाएँ समेटनी चाहिए। उन्हें उनका विस्तार करना चाहिए। यह विस्तार इतना व्यापक हो कि धर्म, धार्मिक जीवन व धार्मिक प्रक्रियाएँ भी उसकी परिधि में आ जाएँ। ऐसा हो सकेगा तो जो अवांछनीय है वह स्वाभाविक मिटेगा और जो सारभूत है वह स्वतः सामने आ जाएगा। और तब उससे व्यक्ति एवं समाज दोनों लाभान्वित होगा।

       उनकी यह वक्तृता जो वक्तृता कम वार्तालाप अधिक थी। इससे आनन्दित होते हुए मास्को विश्वविद्यालय की शोध छात्रा स्वेतलाना एवं देलोकरोवा ने लगभग एक साथ ही पूछा कि धर्म एवं अध्यात्म में क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्र को सुनकर स्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा- ‘धर्म का व्यक्तित्वगत रूप- व्यक्तिगत रूप अध्यात्म है और अध्यात्म का सामाजिक एवं व्यावहारिक रूप धर्म है। चुँकि समाज में व्यावहारिक रीतियाँ, परिस्थिति, भौगोलिक परिवेश एवं व्यक्तियों के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार परिवर्तनीय है, इसलिए धर्म को भी सामाजिक परिवर्तनों के अनुसार परिवर्तित होते रहना चाहिए। जहाँ तक अध्यात्म की बात है तो यह साधना प्रधान है। इसके लिए प्रयोग की जाने वाली तकनीकों का उद्देश्य है व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास। व्यक्ति की बौद्धिक, भावनात्मक एवं आत्मिक शक्तियों का उच्चतम विकास। इसकी तकनीकें व्यक्तित्व के भेदों के अनुरूप ही प्रत्येक के लिए भिन्न हैं।’ इतना कहने के बाद स्वामी जी ने कहा धर्म हो या अध्यात्म दोनों ही आयामों में वैज्ञानिक प्रयोगों एवं अनुसन्धान का क्रम समाविष्ट होना चाहिए।

        इतना कहकर वह कुछ देर के लिए शान्त हो गए। उन्हें सुनने वाले उनको देख रहे थे। इनकी दृष्टियों से अनभिज्ञ वह अपने में बोले- ऐसा हो सके तब धर्म का सार्वभौमिक- सार्वदेशीय रूप प्रकट होगा। वह क्या होगा? प्रो. शिरोकोव ने पूछा। यह होगा आध्यात्मिक मानवतावाद जिसमें सभी धर्मों की श्रेष्ठताएँ समाविष्ट होंगी। यह सभी धर्मों का मिलन बिन्दु होगा। जो किसी एक देश एक जाति के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व मानव के लिए होगा। पर यह तभी सम्भव होगा जब धार्मिक जीवन में वैज्ञानिक प्रयोगों का क्रम चले। विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय की परिणति ही होगी आध्यात्मिक मानवतावाद। जिसके अन्तर्गत परिस्थिति, परिवेश एवं व्यक्तियों के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप उनके व्यवहारों व सामाजिक नीतियों को सतत् परिमार्जित संस्कारित किया जा सकेगा। साथ ही व्यक्तित्व विकास के लिए नयी- नयी आध्यात्मिक तकनीकें भी अन्वेषित होती रहेंगी।

       स्वामी रंगनाथानन्द द्वारा उद्बोधित आध्यात्मिक मानवतावाद का यह भारतीय विचार रूस के प्राध्यापकों एवं छात्र- छात्राओं को बहुत रूचा। विदाई के अवसर पर स्वामी जी ने उनसे अनौपचारिक बातों में कहा- क्या ही अच्छा हो कि भारत व रूस के बीच राजनैतिक मैत्री की भाँति आध्यात्मिक मैत्री भी विकसित हो। सम्भवतः उनका यह प्रयास रूस में किया गया आध्यात्मिक बीजारोपण था। वहाँ से आने के बाद स्वामी रंगनाथानन्द अपने आध्यात्मिक- सांस्कृतिक दायित्वों में व्यस्त हो गए। उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण देने का निश्चय किया। परन्तु उन्होंने इसे लेने से विनम्रतापूर्ण इन्कार करते हुए कहा- मैं श्रीरामकृष्ण संघ का संन्यासी हूँ। जब मेरा कोई निजी जीवन ही नहीं तो निजी पुरस्कार कैसा? उनकी इन भावनाओं को ध्यान में रखकर सन् १९८२ एवं १९९९ में श्रीरामकृष्ण मठ एवं मिशन को इन्दिरा गांधी पुरस्कार एवं गांधी शान्ति पुरस्कार दिए गए। वह वर्ष १९९८ से २५ अप्रैल २००५ अपनी मृत्यु के क्षण तक श्रीरामकृष्ण मठ एवं मिशन के अध्यक्ष रहे। उन्हें श्रद्धाञ्जलि देते हुए प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह् एवं नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवानी ने कहा था- यूं तो हम दोनों में अनेकों वैचारिक मतभेद हैं, परन्तु इस बारे में हम एकमत हैं कि स्वामी रंगानाथानन्द की शिक्षाओं ने हम दोनों को ही प्रेरित किया है। भविष्य में वैज्ञानिक अध्यात्म की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यहाँ तक कि प्रबन्धन के उत्कर्ष में भी अनुभव की जाएगी। 
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