वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

शक्ति के चेतन स्वरूपों की अनुभूति- अभिव्यक्ति

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        ‘वैज्ञानिक अध्यात्म की अध्येता ऋषि वाक् कौशिकी नदी के तट पर बैठी सन्ध्या वन्दन कर रही थी। सांझ ढल चुकी थी, पर अंधेरा होने में अभी समय था। भगवान् सूर्य धरती के पश्चिमी गोलार्ध में अपना प्रकाश वितरित करने के लिए प्रस्थान कर चुके थे। आकाश में हल्के- हल्के मेघों के बीच अस्त हो रहे सूर्य की लालिमा यदा- कदा झलक जाती थी। कौशिकी की लहरें हवा के कभी मन्द पड़ते- कभी तेज होते झोंकों के साथ अठखेलियाँ कर रही थी। आस- पास की पर्वत शृंखला के छोटे- बड़े शिखर प्रहरी की भांति सजग एवं सचेष्ट थे। किन्तु वहाँ खड़े वृक्ष झूम- झूम कर आनन्द मना रहे थे। ऋषि वाक् भी चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मंत्र का मनन करते हुए आदिशक्ति के मूल स्वरूप एवं विविध रूपों में उसकी अभिव्यक्ति का अर्थ अनुसन्धान कर रही थी। उनका ध्यान प्रकृति के इन बाह्य दृश्यों की ओर बिल्कुल भी न था।

      अर्थ- अनुसन्धान करते हुए मन्त्र जप पूरा करने के पश्चात् जब उन्होंने सूर्यापस्थान पूर्ण किया, तब तक आकाश में मेघमालाएँ सघन हो चुकी थी। हवा के झोंके भी तेज हो चुके थे। कौशिकी नदी का जल वेग से बह रहा था। हवा के तीव्र हो चुके झोंके उसमें रह- रहकर उद्वेलन उत्पन्न कर रहे थे। सन्ध्यावन्दन करके वाक् जब उठीं तो उनका ध्यान आकाश में छा चुके मेघों पर, कौशिकी के वेगपूर्ण प्रवाह एवं हवा की तीव्र होती गति पर गया। तभी आकाश में मेघों की महागर्जना के साथ विद्युत् की कड़क एवं चमक लगभग एक साथ ही उत्पन्न हुए। कुछ ऐसे जैसे कि महारूद्र ने धर्मद्वेषी असुरों के संहार के लिए अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर टंकार ध्वनि की हो। वह वहाँ खड़ी होकर चकित भाव से इसे देखती रही।

इन दृश्यावलियों को निहारते हुए उनके मन में अनायास ही एक साथ अनेकों जिज्ञासाएँ उत्पन्न हुई। मेघों की गर्जना का रहस्य क्या है? विद्युत् में प्रकाश एवं ध्वनि कहाँ से आते हैं? जल में प्रवाह एवं हवाओं में तीव्रवेग कौन उत्पन्न करता है? ये विविध प्रश्र उनके मनोआकाश पर बाह्य आकाश की मेघमालाओं की तरह छा गए। इसी बीच जलवृष्टि भी होने लगी। उनका आश्रम निकट ही था, जहाँ पर वह अपने पिता मह्रर्षि अम्भृण के साथ रहती थी। उनके जन्म के समय ही माता का देहान्त होने के कारण उनके पिता उनके लिए मां भी थे। जन्म से लेकर अब तक उन्होंने माता- पिता का दायित्व एक साथ निभाने के साथ शिक्षक एवं गुरु का दायित्व भी निभाया था। वह भी अपने पिता की योग्य पुत्री थी। तपश्चर्या, श्रेष्ठ संस्कार, सदाचरण, सेवा, कठिन श्रम एवं अनथक विद्याभ्यास में उन्हें प्रमाण माना जाता था। गुरुकुलों के आचार्य, तपस्वी साधकों के मार्गदर्शक, ऋषिकन्याओं के माता- पिता अपने शिष्यों एवं सन्तानों से वाक् का अनुसरण करने को कहते थे।

    वही वाक् जब आश्रम परिसर में पहुँची तो देखा कि पिता अम्भृण द्वार पर ही खड़े थे। पिता ने भी अपनी षोडश वर्षीया पुत्री को थोड़ा थका- थोड़ा चिन्तित पाया। अन्तर्ज्ञानी पिता को तथ्य समझने में पल की देर न लगी। वह समझ गए कि उनकी बेटी को जिज्ञासाओं के बोझ ने थका दिया है। उन्होंने बड़े प्यार से पुत्री का माथा सहलाते हुए कहा- बेटी! तुम भीग चुकी हो, पहले वस्त्र परिवर्तन करके कुछ ऊष्ण पेय ले लो। फिर हम लोग बातें करेंगे। वाक् ने थोड़ी ही देर में अपने पिता के निर्देशों का पालन कर लिया। फिर वे दोनों आश्रम के ग्रन्थागार में आ गए। जहाँ आर्ष साहित्य के साथ लौकिक साहित्य का प्रचुर संकलन था। पिता- पुत्री दोनों आमने- सामने बैठे। इसके बाद ऋषि अम्भृण ने मुस्कराते हुए कहा- तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं का हल एक शब्द में है- शक्ति। इसे ऊर्जा भी कहते हैं। यह सक्रिय एवं निष्क्रिय दोनों ही रूपों में रहती है।

     निष्क्रिय शक्ति को सक्रिय करने के लिए वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रयास किए जाते हैं। ध्यान रखो पुत्री! अखिल सृष्टि में ऐसा कोई कण या बिन्दु नहीं है- जो शक्ति से विहीन हो। पदार्थ के विविध रूपों में यह जड़ एवं निश्चेष्ट दिखने पर भी अन्तर अणुक बल के रूप में क्रियाशील रहती है। यही प्रकाश, ताप, ध्वनि, विद्युत्, चुम्बकीय, गुरुत्वीय, पवन, जल विद्युत्, सौर, भू- ऊष्मा के विविध रूपों में दिखाई देती है। नगण्य समझे जाने वाले परमाणुओं के नाभिक में भी यह प्रचण्ड एवं विस्फोटक रूप में व्याप्त है। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोई ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती बस इसके रूप बदलते रहते हैं।

ऋषि कन्या वाक् अपने पिता के कथन को ध्यान से सुन रही थी। उनके पिता उनसे स्नेहपूर्ण स्वरों में कह रहे थे, अभी तो मैंने शक्ति या ऊर्जा के जड़ रूपों की चर्चा की है। इन भौतिक ऊर्जाओं की ही भांति सूक्ष्म एवं चैतन्य ऊर्जाएँ भी हैं। पुत्री! मैं तुम्हें अध्यात्म विज्ञान का एक महान् रहस्य बताता हूँ, जो पदार्थ विज्ञानी पता नहीं कब जानेंगे? पदार्थ के विभाजन से कणों की सृष्टि और कणों के विखण्डन से ऊर्जा की अभिव्यक्ति यह तत्त्व तो सभी जानते हैं। परन्तु जड़ ऊर्जा के अन्तराल में क्रमिक रूप से चेतन ऊर्जा के उच्चतर आयाम हैं, इसका अनुभव विरले ही कर पाते हैं। जड़ ऊर्जा के विखण्डन- विभाजन से ऐसा सम्भव होता है। प्राण ऊर्जा के विविध रूप, मनो ऊर्जा, भाव ऊर्जा, आत्म ऊर्जा की अभिव्यक्ति इसी क्रम में होती है। आन्तरिक अस्तित्त्व में इसका अनुभव कुण्डलिनी जागरण एवं इसके ऊर्ध्वारोहण के क्रम में होता है। बाह्य जगत् में इसकी अभिव्यक्ति एवं अनुभूति का विधान जो जानते हैं- वे बहुआयामी सृष्टि रचना में समर्थ होते हैं। हालांकि ऐसी सामर्थ्य या बल कुछ विरलों ने ही पाया है।

       सामर्थ्य या बल क्या है तात्! विचारशील कन्या वाक् ने बड़े कोमल स्वरों में पिता से प्रश्र किया। बल, शक्ति या ऊर्जा की अभिव्यक्ति क्षमता को कहते हैं। जड़ हो या चेतन सभी को प्रकृति ने- भगवती आदिशक्ति ने उनकी आणविक या जैविक संरचना के अनुसार कम या अधिक रूप से यह क्षमता दे रखी है। वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रयासों व प्रक्रियाओं से इसे न केवल बढ़ाया जा सकता है; बल्कि इसके विविध उपयोग भी किए जा सकते हैं। जिस तरह भौतिक विज्ञान की प्रक्रियाओं से विद्युत बल, वायु बल, नाभिकीय बल आदि के प्रयोग होते हैं, उसी तरह से विविध आध्यात्मिक प्रक्रियाओं से प्राणबल, मनोबल, आत्मबल आदि के चमत्कारी प्रयोग किए जाते हैं। शक्ति के इन जड़ एवं चेतन स्वरूपों एवं उनकी अभिव्यक्ति क्षमता के लिए आदिशक्ति की बहुआयामी साधना अनिवार्य है।

      पिता मह्रर्षि अम्भृण का यह कथन सुकोमल षोडश वर्षीया कन्या वाक् में महासंकल्प बनकर उतर गया। वह कौशिकी के ही तट पर महातप में तत्पर हो गयी। कठिन तप के प्रभाव से उनमें शक्ति के- ऊर्जा के नए- नए गवाक्ष खुलने लगे। वह विराट् ब्रह्माण्ड व्यापी एवं स्वयं के व्यक्तित्व में व्याप्त शक्ति के विविध आयामों का साक्षात्कार करने लगी। उनसे तदाकार होने लगी। शक्ति की सभी परतों, आयामों को पार करते हुए अन्ततः वह आदिशक्ति के मूल महिमामय प्रवाह को अनुभवकर उससे तदाकार हो कह उठी- ॐ अहं रूद्रेभिर्वसु- भिश्चराम्यहमादित्यैरूत विश्वदेवैः। मैं सच्चिदानन्द सर्वात्मा शक्ति रूद्र, वसु, आदित्य तथा विश्वेदेवगणों के रूप में विचरती हूँ। ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के १२५ वें सूक्त में देवीसूक्त के नाम से जो आठ मन्त्र हैं, वे इन्हीं की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति हैं। उनकी यह वैज्ञानिक अध्यात्म की समर्थ शोध दृष्टि युगों की कड़ियों को अपने में जोड़ते हुए सुदीर्घ काल बाद महात्मा बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में अभिव्यक्त हुई। 
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