‘वैज्ञानिक अध्यात्म की उद्गाता- ऋषि विश्ववारा कर्म सिद्धान्त पर अनुसन्धान कर रही थी। उनका यह अनुसन्धान कार्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष, बौद्धिक ऑकलन, अन्तर्प्रज्ञा एवं समाधिजा प्रज्ञा के सभी तलों पर था। जड़वादियों के अन्वेषण कार्य प्रायः इन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं बौद्धिक ऑकलन
की सीमाओं में ही सिमटे रहते हैं। अपने ज्ञान की सीमा के
विस्तार के लिए बहुत हुआ तो वे इन्द्रियों की सहायता हेतु
दूरदर्शी- सूक्ष्मदर्शी जैसे विविध यन्त्रों का इस्तेमाल करते हैं।
लेकिन इसके आगे उनका कोई वश नहीं। जबकि वैज्ञानिक अध्यात्म के
क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य करने वाले इन्द्रियों के सहायक
यन्त्रों के उपयोग के साथ बौद्धिक कुशलता, अन्तर्प्रज्ञा एवं समाधिजा प्रज्ञा का भी सकारात्मक सार्थक उपयोग करते हैं। इसके फलस्वरूप भौतिक पदार्थ एवं भौतिक ऊर्जाएँ
ही नहीं प्रकृति का समस्त विचार, इसकी परत- दर, आयाम- दर उनके
सामने पूर्णतया प्रत्यक्ष होते हैं। शोध की समग्र पद्धति है भी
यही।
विश्ववारा इस पद्धति में निष्णात थीं। आयु की दृष्टि से अभी उन्होंने यौवन में प्रवेश किया ही था। गौरवर्ण, लम्बाकद, इकहरा शरीर, सौम्य मुख और नेत्रों में तेजस्विता व सरलता एक साथ छलकती थी। ऋषि कन्याएँ एवं राजकन्याएँ ही नहीं देव कन्याएँ भी उन्हें अप्रतिम सौन्दर्य का प्रतिमान मानती थीं।
अग्रितत्त्व
प्रधान देवलोक वासियों का सौन्दर्य भी उनके सामने निस्तेज था।
लेकिन उनकी ऐश्वर्य भोग एवं विलास में तनिक भी रुचि न थी। उनका
जन्म अत्रिवंश में हुआ था। महॢष अत्रि एवं देवी अनुसूइया
उनके माता- पिता तो नहीं थे। लेकिन इनका स्नेह- दुलार उन्हें खूब
मिला था। इन्हीं के संस्कार एवं संरक्षण में इन्होंने ऋषि जीवन
आरम्भ किया। और बहुत कम आयु में ऋग्वेद के पांचवे मण्डल के द्वितीय अनुवाक में पठित अठ्ठाइसवें सूक्त की ६ ऋचाओं को साक्षात् किया। इसके बाद वे देवी अनुसूइया की प्रेरणा से कर्म सिद्धान्त के अनुशीलन में लग गयी। उनके आश्रम से थोड़ी ही दूर पर पयस्विनी के तट पर इनका कुटीर था। जिसमें रहकर वह कठिन तप एवं अविराम स्वाध्याय, अनुसन्धान में संलग्र रहती थी।
अपने निरन्तर प्रयत्न से इन्होंने जाना था कि क्रिया के प्रभाव
तात्कालिक होते हैं, जबकि कर्म के प्रभाव जन्मों- जन्मों तक रहने
वाले दीर्घकालिक। क्रिया में किसी भी तरह की इच्छा- भावना अथवा
संकल्प का संयोग नहीं होता। इसी कारण यह पदार्थ अथवा चेतना के
किसी भी तल पर क्यों न सम्पन्न हो, अपने स्थायी संस्कार नहीं विनिर्मित कर पाती। करने वाला इससे दीर्घकाल के लिए बंधता
भी नहीं है। परन्तु कर्म में तो इच्छा, भावना, संस्कारों की
प्रेरणा के साथ गहरे संकल्प की प्रधानता रहती है। इसीलिए कर्म
केवल वही नहीं होते, जो स्वयं किए जाते हैं, वे भी होते हैं, जो
औरों से कराए जाते हैं अथवा जिनके करने में अपनी सहमति एवं
समर्थन होता है। कृत- कारित एवं अनुमोदित तीनों ही प्रकार के कर्मों के सुनिश्चित परिणाम होते हैं।
विश्ववारा ने यह अनुभव किया था कि जिन योनियों में जीव इच्छा-
भावना एवं संकल्प करने में समर्थ नहीं होता, वहाँ उसके द्वारा
होने वाली क्रियाएँ कर्म व कर्म बन्धन का स्वरूप नहीं ले पाती।
बस ये तात्कालिक प्रभाव देकर समाप्त हो जाती हैं। जैसे कि मच्छर,
मक्खी या कीड़े- मकोड़ों द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ अथवा फिर
पशु- पक्षियों द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ। और सूक्ष्म स्तर पर
भूतों, प्रेतों एवं पिशाचों द्वारा सम्पन्न होने वाली क्रियाएँ। जिन
अवस्थाओं में, जिन योनियों में केवल क्रियाएँ होती हैं, कर्म
नहीं बनते उन्हें भोग योनियाँ कहते हैं। इन योनियों में भ्रमण कर
जीव केवल अपने प्रारब्ध भोग पूरे करता है, वहाँ उससे नए कर्म
नहीं बन पड़ते। परन्तु मनुष्य योनि के लिए कर्म सिद्धान्त अति
सूक्ष्म, गहन एवं जटिल है। यहाँ प्रारब्ध भोग भी पूरे होते हैं
और नए कर्म भी बनते हैं। विश्वावारा
की यह अनुभूति प्रकृति के विस्तार में पदार्थ एवं चेतना के
विभिन्न तल पर होने वाली विभिन्न क्रियाओं के प्रत्यक्षीकरण का
प्रमाण थी।
उन्होंने जब अपने इस निष्कर्ष से माता अनुसूइया को अवगत कराया तो वह हल्के से मुस्कराई और उन्होंने सूर्या सावित्री एवं हविधनि की ओर देखा। ये दोनों अभी कुछ ही देर पहले उनसे मिलने के लिए आए थे। इन्होंने भी विश्वावारा के कथन को सुना था और प्रभावित भी हुए थे। परन्तु विश्ववारा तो माता अनुसूइया की विशेषज्ञ टिप्पणी के लिए उत्सुक थी। उनकी इस उत्सुकता को परखते हुए भगवती अनुसूइया बोलीं- पुत्री!
क्रिया केवल जड़ता के तल पर होती है, फिर वह पदार्थ हो या
शरीर, परन्तु कर्म जड़ एवं चेतन दोनों ही तल पर एक साथ सम्पन्न
होता है। परन्तु इसमें भी सामान्य जनों एवं योगियों- ऋषियों के
जीवन में एक भेद है। सामान्य जन को इच्छा एवं भावना के साथ
क्रिया करनी पड़ती है, तब कर्म पूर्ण होता है। परन्तु योगियों-
ऋषियों की विचार चेतना या भाव चेतना में हल्की सी सकारात्मक या
नकारात्मक तरंग उठते ही स्वतः बाह्य प्रकृति में घटना बन जाती
है। इसलिए ऐसे लोगों का चिन्तन भी कर्म माना जाता है और उन पर
कर्मफल विधान लागू होता है।
भगवती अनुसूइया के कथन में एक नए तथ्य का उद्घाटन था। जिसने विश्ववारा को सोचने के लिए प्रेरित किया। वह बोली माता!
सामान्य जन यदि परिस्थितिवश अपने मनोनुकूल क्रिया न कर सके,
परन्तु मनचाहा सकारात्मक या नकारात्मक सोचते रहे, तब ऐसे में क्या
होगा? उत्तर में देवी अनुसूइया बोली- पुत्री तुम्हारे प्रश्र
में सार्थकता है। ऐसी स्थिति में उनकी सकारात्मक या नकारात्मक
सोच अपने साथ जुड़े भावों की गहराई के अनुरूप चित्त भूमि पर भी
संस्कार उत्पन्न करेगी। यह संस्कार भविष्य में अपने अनुरूप कर्म
सम्पन्न होने की परिस्थितयाँ अवश्य उत्पन्न करेगा। और तब इस कर्म के अच्छे या बुरे परिणाम भी होंगे।
कर्म के परिणाम की क्या प्रक्रिया है? यह प्रश्र हविधनि का था। वह सारी बातों को एकाग्र मन से सुन रहा था। माता अनुसूइया
उसका समाधान करते हुए बोली- कर्मों के परिणाम की प्रक्रिया ही
कर्म का फल विधान सम्पन्न करती है। दरअसल प्रत्येक कर्म के तीन
घटक होते हैं- १. क्रिया, २. विचार- जिनकी सहायता से क्रियान्वयन की योजनाएँ बनती हैं और ३.
भाव- जिसकी गहराई के अनुरूप संकल्प गहरे होते हैं। प्रत्येक कर्म
पहले भाव तल में अंकुरित हो संकल्प बीज बनता है। फिर इसके
अनुरूप योजनाएँ बनती हैं और तब क्रिया घटित होती है। इन तीनों
ही तल पर प्रत्येक का अपना ऊर्जा स्तर होता है। कर्म पूर्ण होने
पर तीनों तल पर ऊर्जाएँ संस्कार के ऊर्जा बीज के रूप में चित्तभूमि में संचित होती है। ये संचित संस्कार अपनी तीव्रता के अनुरूप परिपक्व प्रारब्ध के रूप में परिवर्तित होते हैं, जिसका भोग प्रत्येक के लिए सुनिश्चित और अनिवार्य होता है।
कर्म हों पर कर्मफल न हों, कर्म का बन्धन न हों। यह प्रश्र सूर्या सावित्री का था। जो अब तक मौन भाव से सारे तथ्यों का श्रवण कर रही थी। उसकी यह बात सुनकर देवी अनुसूइया
बोली यह तब सम्भव है- जब स्वधर्म पालन हेतु आवश्यक कर्तव्य तो
किए जाएँ, परन्तु उनमें कोई भी इच्छा, भावना या संकल्प न जुड़ा
हो। यदि इच्छा, भावना का जुड़ाव हो भी तो केवल इतना कि मेरा
प्रत्येक कर्म यज्ञ पुरुष भगवान् नारायण के लिए अर्पित की जाने वाली यज्ञीय आहुति है। लौकिक कामनाओं, भावनाओं से विहीन यज्ञ भाव से यानि ‘‘इदं न मम्’’ के भाव से किए जाने वाले कर्म बन्धन का कारण नहीं होते। हालांकि इस निमित्त की जाने वाली क्रियाओं के तात्कालिक परिणाम अवश्य होंगे। माता अनुसूइया की इस निष्कर्षपूर्ण वाणी ने विश्वावारा के समक्ष अनुसन्धान के नए गवाक्ष खोले। परन्तु भगवती अनुसूइया अभी उन पर और भी कृपालु थी, वह बोलीं- पुत्री!
क्रिया और कर्म की पदार्थ एवं चेतना की समस्त ऊर्जा प्रवाहों
का प्रयोग केवल लोकहित में होना चाहिए और यह ऋषि दध्यङ्ग अथर्वण कुशलता से कर रहे हैं। वे निरन्तर कर्म करते हुए समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त हैं।