वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

जीवन भर चले ‘‘बुद्ध’’ के वैज्ञानिक प्रयोग

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
       भगवान् बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में वैज्ञानिक अध्यात्म की अन्तर्धारा स्वतः ही प्रवाहित हो रही थी। पिछले कुछ काल से वह जेतवन में थे। महास्थविर रेवत, भिक्षु महाकाश्यप एवं भदन्त मौदग्लायन भी इन दिनों वहीं उन्हीं के साथ थे। आनन्द ने तो तथागत की सेवा को ही अपना सब कुछ माना था। सो वह हमेशा ही भगवान् के साथ विहरते थे। तथागत की उपस्थिति जिज्ञासुओं के लिए चुम्बकीय प्रकाश थी। यह ऐसा अद्भुत समुज्ज्वल प्रकाश था, जिसमें आकर्षण एवं सम्मोहन एक साथ थे। इसके वशीभूत हो अनगिन जिज्ञासु नित्य ही बुद्ध वाणी का अमृतपान करने के लिए आते थे। तथागत भी अपने अनुदान- अवदान में कोई संकोच न करते थे। जो भी जिज्ञासुजन उनके पास आते, उनके बीच वह उदारतापूर्वक बोधि का प्रकाश वितरित करते। इसे पाकर जिज्ञासुओं को भी अनोखी तृप्ति- तुष्टि एवं शान्ति मिलती।

       लेकिन हमेशा ही आने वाले आगन्तुकों में जिज्ञासु नहीं होते थे। कुछ ऐसे भी होते जो तथागत के तत्त्वज्ञान की परीक्षा लेना चाहते थे। कुछ का उद्देश्य उनसे शास्त्र- चर्चा के नाम पर वाद- विवाद करना होता था। कुछ की रुचि धार्मिक रीतियों, मान्यताओं, परम्पराओं एवं कर्मकाण्डों में होती थी। भगवान् ऐसे से भी मिलते थे। और अपनी वाणी के प्रकाश से उनके हठ, भ्रम एवं आग्रह का अंधेरा दूर करते। जो बुद्ध को सचमुच में सुनते थे, समझते थे और उनके सान्निध्य में रहते थे, उन्हें अनुभव होता था कि शास्ता के चिन्तन में यदि वैज्ञानिक दृष्टि का प्रकाश है, तो व्यवहार में आध्यात्मिक जीवन मूल्य संवेदित होते हैं। और उनका चरित्र तो इन दोनों के सुखद समन्वय की समुज्ज्वल परिभाषा ही है। तथागत भी पल- पल, क्षण- क्षण उन सभी में अपने बोध की करूणापूर्ण धाराएँ उड़ेलते रहते थे।

      इन क्षणों में भी वह कुछ यही कर रहे थे। इस समय वह जेतवन के पूर्वीभाग में अश्वत्थ की छांव में सुखासन पर बैठे हुए थे। उनके सामने अग्रिम पंक्ति में आर्य रेवत, महाकाश्यप एवं मौद्ग्लायन थे। पिछली पंक्तियों में अन्य भिक्षु- भिक्षुणियाँ बैठे थे। आनन्द उनकी दाहिनी ओर कुछ पीछे की तरफ हटकर खड़े थे। तथागत कह रहे थे- अध्यात्म विज्ञान के प्रयोग जीवन की प्रयोगशाला में करने होते हैं। दीर्घकाल तक निरन्तर प्रयोग और फिर इनके नियमित परीक्षण से ऐसे सुनिश्चित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, जिनसे सभी दुःखों का सदा के लिए निवारण हो सके। भगवान् अभी कुछ और कहते कि इतने में बाहर की ओर से आने वाले एक तरूण भिक्षु ने धीमे स्वर में आनन्द से कुछ कहा। भिक्षु की बातें सुनकर आनन्द के माथे पर किंचित बल पड़े, किन्तु वह संयत रहे और उन्होंने शास्ता से निवेदन किया- भगवन्! विद्वान् ब्राह्मण आचार्यों का एक वर्ग आपसे मिलना चाहता है। उत्तर में बुद्ध मुस्कराए और उन्होंने कहा- उन्हें सत्कारपूर्वक लाओ।

    थोड़ी देर में वे सभी विद्वान् आचार्य तथागत के समक्ष आसनों पर बैठ गए। तथागत ने मधुर वचनों से उनका स्वागत किया, कुशल क्षेम पूछी और कहा- आज्ञा करें आचार्यगण! उन आचार्यों में एक वरिष्ठ वृद्ध आचार्य ने कहा, हम सब आज्ञा करने नहीं प्रश्र करने आए हैं। तथागत ने किंचित हंसते हुए कहा, मेरे लिए आप सब विद्वानों का प्रत्येक आदेश शिरोधार्य है। बुद्ध के विनम्र कथन के प्रत्युत्तर में विद्वान ब्राह्मण तनिक नम्र तो हुए परन्तु अहंता की कठोरता उनमें अभी भी थी। आत्मा एवं ईश्वर के बारे में आपका क्या विचार है? हम सबने यह भी सुना है कि आप वेदों को, शास्त्रों को, ऋषियों के ज्ञान को नकारते हैं। वृद्ध आचार्य के इस उत्तेजित कथन के उत्तर में बुद्ध शान्त स्वर में बोले- देव! हम विचारों का वाद- विवाद नहीं करते, बल्कि अपने अनुभव को व्यक्त करते हैं। रही बात वेदों की, शास्त्रों की एवं ऋषियों की तो मैंने उनकी प्रयोग धर्मिता को स्वीकारा है। मैंने स्वयं के जीवन में अध्यात्म विज्ञान के अनेकों प्रयोग किए हैं, और अभी भी ऐसे अनेकों युगानुकूल प्रयोगों को सम्पन्न करने का क्रम जारी है।

     ऐसा कहकर वह थोड़ा रूके और कहने लगे- गीता में योगविद्या के अनुभवी आचार्य योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है- यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ २/४६॥ सब ओर परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रह जाता है, अध्यात्म तत्त्व का अनुभव करने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है। अर्थात् पोथियों में संकलित ज्ञान से अनुभव कहीं श्रेष्ठ है, फिर वह पोथी भले ही वेद क्यों न हो? इसलिए श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर यही है कि व्यर्थ के वाद- विवाद में उलझने की बजाय हम लोग आपस में अपने- अपने आध्यात्मिक प्रयोगों- परिणामों एवं निष्कर्षों के अनुभवों से एक दूसरे को लाभान्वित करें। बुद्ध के इस कथन के उत्तर में घण्टों- घण्टों धारा प्रवाह वेद- शास्त्रों के मन्त्रों को बोलने में निष्णात, संस्कृत भाषा में वाद- विवाद करने में सक्षम वे सारे आचार्य मौन रह गए।

     देर तक यह चुप्पी छायी रही, तब बुद्ध ने विनम्रता से कहा- हे विद्वान् आचार्यगण! अध्यात्म दरअसल इस बहुआयामी मानव जीवन की, इसके कण- कण में समायी अनगिन शक्तियों की सम्पूर्ण अनुभूति एवं अभिव्यक्ति है। इस अनुभूति एवं अभिव्यक्ति पर आधारित सरल- सहज एवं संवेदनशील आचरण एवं व्यवहार की पद्धतियों का समाज में प्रवर्तन धर्म है। प्रत्येक युग में अध्यात्मवेत्ता महानुभावों ने यही किया है। वर्तमान युग में यही मैं कर रहा हूँ। विद्वान् आचार्यों को बुद्ध का यह कथन वैदिक ऋषियों की मन्त्रवाणी की तरह लगा। उनकी विनम्रता के वेगपूर्ण प्रवाह में इन आचार्यों का अहं कब का बह चुका था। वे सब के सब समवेत स्वर में एक साथ बोले- भगवन्! आप हमें जीवन का बोध कराएँ।

   उत्तर में भगवान् ने विहँस कर कहा- आचार्यगण आप सभी विद्वान् हैं। आप को सत्य की समझ है। सबसे पहले पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से जीवन की मूल समस्या खोजनी होगी? यदि आप इस मूल समस्या का अन्वीक्षण करेंगे तो पाएँगे कि जीवन की मूल समस्या -- दुःख है। भले ही इसके कारण एवं प्रकार कितने ही क्यों न हों? यदि दुःख का अनुभव हो गया, तो दुःख का मूल कारण भी अनुभव होगा, जो कि तृष्णा है। इन दोनों अनुभवों में पारगामी होने पर अन्वेषण- अनुसन्धान के महत्त्वपूर्ण बिन्दु के रूप में सामने आता है- दुःख के निरोध या निवारण का उपाय। इसी उद्देश्य के लिए अध्यात्म विज्ञान के सभी प्रयोगों का विधान है। मेरा स्वयं का अनुभव कहता है, निर्वाण ही वह उपाय है, जिससे सभी दुःख एक साथ, सदा के लिए शान्त हो जाते हैं।

    इसके पश्चात् अध्यात्म विज्ञान का अगला एवं अन्तिम अन्वेषण बिन्दु है- दुःख निरोध का मार्ग। मेरे अनुभव में यह अष्टांगिक है- १. सम्यक् दृष्टि- यानि कि जीवन को विवेकपूर्ण ढंग से देखना, २. सम्यक् संकल्प- अर्थात् अपने विचारों को सही रखना, ३. सम्यक् वाक् यानि कि वाणी को दोषमुक्त करना, प्रिय व हितकर बोलना, ४. सम्यक् कर्मान्त- अर्थात् सत्कर्म व निष्काम कर्म का मर्म समझना, ५. सम्यक् अजीव- यानि अपनी आजीविका के साधनों को शुद्ध करना। किसी के नुकसान में अपना नफा न सोचना। ६. सम्यक् पुरुषार्थ- अर्थात् अपने सभी प्रयत्न व पुरुषार्थ सदा संवेदना के सूत्र में गुंथे रहे, ७. सम्यक् स्मृति- इसके द्वारा बोधयुक्त हो स्वयं के अनुसन्धान की चेष्टा करना एवं ८. सम्यक् समाधि- इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। अध्यात्म विज्ञान का परम ध्येय भी यही है। इतना कहकर तथागत शान्त होकर मुस्कराने लगे। सुन रहे सभी जन एक अनिर्वचनीय आनन्द में डूब गए। कुछ क्षण पश्चात् भगवान् बुद्ध ने मधुर स्वरों में एक वाक्य कहा- तीर्थंकर महावीर भी इन दिनों सत्यान्वेषण के कुछ ऐसे ही महत्त्वपूर्ण प्रयोग कर रहे हैं। 
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118