दार्शनिक- आध्यात्मिक क्षेत्र में किए गए मौलिक वैज्ञानिक प्रयोगों ने रेने देकार्त
के अनुसन्धान को नए आयाम दिए थे। उनके नवीन निष्कर्षों एवं
सत्यान्वेषी व्यक्तित्व ने स्वीडन की अविवाहिता युवा रानी क्रिस्टीना को बेहद प्रभावित किया था। रानी क्रिस्टीना
अपार वैभव एवं अनगिन सुख- साधनों से घिरे रहने के बावजूद
आध्यात्मिक जिज्ञासु थी। सम्भवतः इसी कारण उसने अब तक विवाह नहीं
किया था। देकार्त
द्वारा किए गए आध्यात्मिकता एवं वैज्ञानिकता के समन्वय ने उसे
बेहद प्रभावित किया था। कहीं अन्तर में उसकी कोमल संवेदनाएँ
तीव्रता से झंकृत हुई थीं। इसी के साथ वर्षों से मनोभूमि में यूं ही पड़े हुए आध्यात्मिक जिज्ञासा के बीज में नवांकुरण भी हुआ था। उसने लगातार कई साल तक रेने देकार्त
को अनेकों पत्र लिखे, उन्हें कई आकर्षक प्रस्ताव भी दिए। इन
प्रस्तावों में एक प्रस्ताव यह भी था कि वह उनसे विवाह करना
चाहती है।
इस पत्र को पढ़कर वह मुस्कराए फिर उन्होंने लापरवाही से कन्धे झटके और काम में लग गए। संयोग से उसी दिन सांझ को यह पत्र उनके शिष्य ग्यूलिक्स के हाथों लग गया। वह मेलब्रांश के साथ उनके कक्ष की सफाई कर रहा था। ग्यूलिक्स तो खैर वहीं हालैण्ड का ही रहने वाला था, पर मेलब्रांश
अपने गुरु से मिलने फ्रांस से कुछ ही दिनों पहले यहाँ हालैण्ड
आया था। इन दोनों को अपने गुरु को सुनना जितना अच्छा लगता था,
उससे भी अच्छी लगती थी उनकी सेवा। मेलब्रांश बातों- बातों में यदा- कदा ग्यूलिक्स के सौभाग्य की सराहना करता था। वह कहता था कि तुम सौभाग्यशाली हो जो महान् दार्शनिक- आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक देकार्त
फ्रांस में जन्म लेने के बावजूद तुम्हारे देश हालैण्ड में रहते
हैं। मुझे तो उनसे मिलने के लिए फ्रांस से यहाँ हालैण्ड आना
पड़ता है। उसके इस कथन को सुनकर ग्यूलिक्स आज
बोला कुछ नहीं। बस चुपचाप अपने हाथ में लिए पत्र को पढ़ता रहा,
जो उसने अभी थोड़ी देर पहले कमरे में रखी इस बड़ी टेबल के कोने
से उठाया था।
क्या पढ़ रहे हो इतना मग्र होकर? मेलब्रांश के इस प्रश्र के उत्तर में ग्यूलिक्स ने बिना कुछ कहे उस पत्र को थमा दिया। अब मेलब्रांश
ने भी उस पत्र को पढ़ा और दोनों ने एक दूसरे को देखा फिर
कुछ निश्चय किया। रात्रि के खाने में उन दोनों ने एक साथ देकार्त
से निवेदन किया कि उन्हें रानी का आग्रह स्वीकार कर लेना
चाहिए। अच्छा तो तुम लोगों ने वह पत्र देख लिया है। इतना कहने
के साथ देकार्त
ने उन दोनों की ओर देखते हुए कहा- यदि तुम रानी द्वारा दिए
गए शादी के प्रस्ताव की बात कर रहे हो, तो मेरा उत्तर है नहीं।
क्योंकि मेरा सम्पूर्ण जीवन दार्शनिक एवं आध्यात्मिक अध्ययन में
वैज्ञानिक प्रयोग करते हुए सत्यान्वेषण के लिए है। सत्यान्वेषी साधक को एकान्त, एकाग्र एवं साधनों व सम्बन्धों से रहित होना चाहिए। देकार्त के इस कथन में तपस्वी सन्त के आध्यात्मिक भावों की अनुगूँज थी।
इस पर वे दोनों कुछ मिनटों तक चुप बने रहे। फिर धीरे से उन्होंने बात बदलते हुए पूछा- सत्यान्वेषण की विधि क्या है? विधि एवं प्रक्रिया तो सुदीर्घ है, पर इसका प्रारम्भ सन्देह से होना चाहिए। देकार्त
ने शान्त स्वर में कहा। लेकिन चर्च के पादरी तो विश्वास की
बात करते हैं। लेकिन मेरी वैज्ञानिक दृष्टि को यह उचित नहीं
लगता। क्योंकि विश्वास का मतलब हुआ कि बिना कोई प्रयोग किए, कोई
भी अनुभव पाए बगैर सब कुछ यूं ही मान लेना। मेरे विचार में ऐसा विश्वास अनुभव के द्वार अवरूद्ध
करता है, जबकि सन्देह अनुभव के लिए प्रेरित करता है। यह ठीक है
कि विश्वास तनाव मुक्ति का झूठा अहसास देता है, पर यह भी सच
है कि विश्वास से मानसिक सक्रियता समाप्त होती है और मिलती है
एक चेतनात्मक सुषुप्ति। जबकि सन्देह मस्तिष्क की तंत्रिकाओं को
झकझोरता है, जाग्रत् करता है। मानसिक सुषुप्ति को होश एवं सक्रियता
में बदलता है।
इसी के साथ मेरा यह भी मानना है कि सन्देह को सकारात्मक व
सक्रिय होना चाहिए। सन्देह करने का मतलब संशयी एवं शंकालु होना
नहीं है। ऐसे लोग तो अपनी मानसिक उलझनों को बढ़ाकर स्वयं का
विनाश कर लेते हैं। ऐसों से तो फिर विश्वासी ही अच्छे। सन्देह का
परिणाम होना चाहिए मानसिक जागृति। इस जागृति से अंकुरित होनी
चाहिए प्रश्रशील-
विचारशील जिज्ञासा। इस जिज्ञासा को तृप्त करने के लिए किए जाने
चाहिए वैज्ञानिक प्रयोग। इन प्रयोगों में जो अनुभव मिले उन पर
विश्वास होना चाहिए। विश्वास को सन्देह के चरम परिणाम के रूप में
प्रकट होना चाहिए, न कि इसे मानसिक निकम्मेपन की परिभाषा बन चेतना में अंधकार फैलाना चाहिए। देकार्त की वाणी ने ग्यूलिक्स एवं मेलब्रांश की चेतना में नए गवाक्ष खोले। उन्हें अपूर्व सुख की अनुभूति हुई। वह अभी कुछ और कह पाते, इसके पहले देकार्त
ने कहा कि मैं तो कहता हूँ कि तुम स्वयं पर भी संदेह करो।
सोचो तुम हो भी या नहीं। यदि हो, क्योंकि विचार किया जा रहा है,
तो विचार करने वाला तो होगा ही। यह जो भी है वह कौन है? इन प्रश्रों को विश्वास के आधार पर नहीं अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोगों के अनुभव के रूप में सुलझाओ। तब तुम्हें अपने रहस्य का साक्षात्कार होगा। इतना कहने के साथ उसने ग्यूलिक्स एवं मेलब्रांश
की ओर मुस्कराते हुए देखा। उसे लगा कि वे दोनों कुछ पूछना
चाहते हैं। उसने कहा- तुम संकोच न करो पूछो। वैसे भी मेरी विधि
में सन्देह का स्थान है, संकोच का नहीं। यह कहकर वह जोर से हँस
पड़ा।
देकार्त
की इस निर्मल निर्झर की तरह प्रवाहित हँसी में इन दोनों की
हिचकिचाहट एवं संकोच बह गए। उन्होंने कहा- आध्यात्मिक- दार्शनिक
क्रियाओं व विचारों में वैज्ञानिक विधि की क्या आवश्यकता है? इसके
उत्तर में देकार्त
ने तनिक दृढ़ता से कहा- आवश्यकता है, बड़ी गहरी आवश्यकता है।
मनुष्य जीवन स्वयं ही अध्यात्म एवं विज्ञान का संयोग है। मनुष्य न
केवल जड़ है और न केवल चेतन। वह दोनों का मिलन है। उसका शरीर
जड़ है तो आत्मा चेतन। जड़ के अध्ययन के लिए विज्ञान की आवश्यकता
है तो चेतन का अनुसन्धान अध्यात्म से होता है। क्रियाएँ वह जड़
शरीर की सहायता से जड़ जगत् में करता है, तो उसके विचार, ज्ञान व
अनुभव आदि चेतना में होते हैं। मनुष्य ही क्यों यह सम्पूर्ण
जगत् भी तो जड़ प्रकृति एवं चेतन परमात्मा के संयोग से संचालित
है। तब ऐसे में इनके सही अध्ययन- अनुसंधान के लिए भी विज्ञान एवं
अध्यात्म का संयोग चाहिए। विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वय ही सत्यान्वेषण की सम्पूर्ण विधि है।
देकार्त
के कथन में उसके अनुभव का सत्य ध्वनित था। वैसे भी ये दोनों
जानते थे कि उनके गुरु ने केवल दर्शन का ही अध्ययन नहीं किया
है। उन्होंने शरीर क्रिया विज्ञान, मनोविज्ञान, गणित, ज्योतिष,
ब्रह्माण्ड- विज्ञान पर गहरे अध्ययन- अनुसन्धान किए हैं। ज्ञानवाही एवं क्रियावाही
नाड़ियों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन उनकी महत्त्वपूर्ण देन
है। उन्होंने केवल दर्शन को ही सन्देह की विधि नहीं दी, बल्कि
पहली बार नाड़ी क्रिया तथा मानसिक प्रक्रियाओं के व्यवहार को
स्पष्ट किया है। यथार्थ में उनके गुरु पश्चिमी जगत् में न केवल
आधुनिक दर्शन के जन्मदाता हैं, बल्कि वे आधुनिक विज्ञान के भी
प्रवर्तक हैं। इन विचार वीथियों में गुजरते हुए, वाणी के प्रवाह में प्रवाहित होते हुए रात्रि भोजन भी समाप्त हो गया। देकार्त ने पानी पीने के बाद नेपकीन से हाथ पोंछे और अपने शयन कक्ष में जाने के लिए उठे।
इसी समय ग्यूलिक्स एवं मेलब्रांश ने फिर से एक बार सम्भवतः अपनी समझ में अन्तिम बार स्वीडन की रानी क्रिस्टीना
के आमंत्रण पर विचार करने के लिए उनसे अनुरोध किया। इन्होंने
कहा कि आप उसके प्रेम एवं विवाह के प्रस्ताव को अवश्य ठुकरा
दें, किन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासा को अवश्य तृप्त करें। अपने शिष्यों
की यह बात देकार्त को भा गयी। उसने विहँस
कर अपनी स्वीकृति देते हुए अपने शिष्यों से कहा- कि तुम लोग
रानी को सूचित कर दो कि वह मुझसे अपनी व्यक्तिगत बातों की नहीं
बल्कि केवल दार्शनिक- आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक बातों पर ही
चर्चा करेगी। साथ ही उसे सूर्योदय के समय मुझसे अध्ययन करना
होगा, क्योंकि इसी समय ज्ञान की सच्ची उपासना का समय है। रानी क्रिस्टीना ने उनकी सभी बातें मान ली। सन् १६४९ ई. में वह स्वीडन गए। परन्तु दुर्भाग्यवश चार महीनों के बाद ५४
वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। परन्तु उन्होंने पश्चिमी
जगत् को विज्ञान की जो नवीन दृष्टि दी, सुदीर्घ काल बाद उसका
सुफल वैज्ञानिक ऋषि आइन्सटाइन के रूप में प्रकट हुआ।