वैज्ञानिक अध्यात्म की अध्ययन- अनुसन्धान यात्रा की सही व सम्पूर्ण शुरूआत ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना के साथ हुई। उस दिन सन् १९७९ ई. के जून महीने की ५
तारीख थी। युगशक्ति वेदमाता गायत्री के अवतरण के महापर्व का
उल्लास चहुँ ओर छलक रहा था। गायत्री जयन्ती- गायत्री उपासकों के
लिए, युगतीर्थ शान्तिकुञ्ज के आश्रम निवासियों के लिए सदा से
महत्त्वपूर्ण रही है। आज इसका महत्त्व पिछले वर्षों की अपेक्षा
कहीं बढ़कर था। आज वेदजननी- ज्ञान की आदिमाता गायत्री अपने साथ
वैज्ञानिक अध्यात्म के ज्ञान प्रवाह को लेकर अवतीर्ण हो रही थी।
ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान इसी के साकार रूप में आविर्भूत हुआ था।
इसी का आज उद्घाटन होना था। शान्तिकुञ्ज से दो- ढाई फर्लांग की दूरी पर भगवती गंगा की सप्तधाराओं
के किनारे ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ब्रह्मलोक के ज्ञान पुञ्ज की
तरह धरा पर साकार हुआ था, जो युगद्रष्टा युगऋषि आचार्य श्री के
स्वप्रों का साकार रूप था।
प्रातः बेला कुछ दूर चलकर मध्याह्न की ओर बढ़ चली थी। युगऋषि
परम पूज्य गुरुदेव शान्तिकुञ्ज के कार्यक्रमों को पूर्ण करके
ब्रह्मवर्चस आ चुके थे। उनके साथ ही आया था शान्तिकुञ्ज के कार्यकर्त्ताओं का समूह। क्षेत्रों से गायत्री परिवार के परिजन और शान्तिकुञ्ज के कुछ कार्यकर्त्ता
यहाँ पहले से थे। यह उपस्थिति आज के दिनों में मनाए जाने वाले
शान्तिकुञ्ज के पर्वों जितनी तो नहीं थी। पर ये वे कुछ लोग
थे, जिन्होंने ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के नींव की ईंटें रखी थी।
और जो स्वयं युग निर्माण मिशन, शान्तिकुञ्ज के विचारक्रान्ति
अभियान एवं ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वैज्ञानिक अध्यात्म की
प्रतिष्ठापना के लिए नींव की ईंटों की तरह खपने के लिए उद्यत
थे। युगऋषि गुरुदेव ने यहाँ पहुँचते ही इन सबको बड़ी उम्मीद भरी
नजरों से निहारा। इन सबने भी उच्च स्वर से अपने सद्गुरु का
जयघोष किया। इसके बाद देर तक ब्रह्मवर्चस के भूमितल पर मन्दिरों में दीप जलते रहे, घण्टियाँ गूंजती रही और वेदमाता अपने अलग- अलग चौबीस रूपों में यहाँ प्रतिष्ठित होती रहीं।
आदिशक्ति माता गायत्री के चौबीस स्वरूपों की प्रतिष्ठा, गायत्री
महामंत्र के चौबीस पुरश्चरण करने वाले आचार्य श्री ने सम्पन्न
की। इसके बाद उन्होंने यहाँ जुटे कार्यकर्त्ताओं को सम्बोधित करना प्रारम्भ किया। उनकी वाणी का प्रवाह प्रारम्भ होते ही गंगा की सातों जलधाराओं को छूता हुआ वायु का प्रवाह जेठ के आतप को शीतल करने लगा। गुरुदेव के मुख से उच्चारित देवियों एवं सज्जनों!
इन दो शब्दों ने सबकी सारी थकान हर ली। उन्होंने कहा- आज हम
सब ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के रूप में जिस वैज्ञानिक अध्यात्म
की अनुसन्धानशाला की स्थापना कर रहे हैं, वह कल इक्कीसवी
सदी के उज्ज्वल भविष्य का वैचारिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक आधार
बनेगा। वैदिक युग के ऋषियों ने विज्ञान एवं अध्यात्म को समन्वित
रूप से देखा था। और इस महाविज्ञान पर गहन अन्वीक्षण, अन्वेषण किए
थे;
परन्तु मध्ययुग के बाद और आधुनिक युग में जो परिस्थिति बनी
उनमें विज्ञान एवं अध्यात्म को जोड़ने वाली कड़ियाँ टूट गयी।
इन टूटी कड़ियों के कारण ही विज्ञान विनाशकारी बन गया। और
अध्यात्म मूढ़ताओं, परम्पराओं की पूजा- पत्री से आच्छादित हो गया।
दूसरे विश्वयुद्ध से शुरू हुई परमाणु अस्त्रों की होड़ अभी थमी
नहीं है। अध्यात्म की पावनता एवं सृजन सम्वेदना भी पता नहीं कहाँ
जा छुपी है। इस विकट स्थिति से उबरने के लिए विज्ञान एवं
अध्यात्म के समन्वय की जरूरत है। जरूरत है नए सिरे से वैज्ञानिक
अध्यात्म की अध्ययन- अनुसन्धान यात्रा शुरू करने की, जिसे शुरू तो
हम सब मिलकर करेंगे, लेकिन जिसे हमारी भावी पीढ़ियाँ गतिशील बनाए
रखेंगी। गुरुदेव के शब्द सुनने वालों की मानसिक चेतना में नयी
लहरें पैदा कर रहे थे। उनमें से कई सोच रहे थे कि वैज्ञानिक
अध्यात्म की शोध का स्वरूप क्या होगा। यह शोध किस तरह सम्पन्न
होगी? उनके इस प्रश्रों ने सम्भवतः युगऋषि की चिन्तन चेतना को छुआ।
और वह स्वस्फूर्त
हो कहने लगे- वैज्ञानिक अध्यात्म की यह शोध वैचारिक- दार्शनिक
एवं क्रियात्मक- प्रायोगिक दोनों तरह की होगी। इसमें वैचारिक या
सैद्धान्तिक शोधकार्य के अन्तर्गत युग की वैयक्तिक, पारिवारिक एवं
सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक
समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन- अनुसन्धान किए जाएँगे।
वैज्ञानिक जीवन दृष्टि एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को ध्यान में
रखते हुए समाधान खोजे जाएँगे। इन समाधानों की खोज के साथ ही
वैज्ञानिक अध्यात्म का दार्शनिक- वैचारिक ढाँचा आकार लेगा।
वैज्ञानिक- अध्यात्म के रूप में नवयुग का नवीन दर्शन प्रकट होगा,
जो वर्तमान की दार्शनिक मान्यताओं की तरह एकांगी नहीं, बल्कि
समग्र एवं व्यावहारिक होगा। यह ऐसा दर्शन होगा, जिसे सही अर्थों
में जीवन दर्शन कहा जा सके।
यही जीवन दर्शन क्रियात्मक एवं प्रायोगिक शोधकार्य की आधारभूमि
बनेगा। इस प्रायोगिक शोध के भी दो आयाम होंगे। इसमें पहली तरह की
शोध सर्वेक्षण कार्य के आधार पर की जाएगी। समस्याओं के अनुरूप
परिवार एवं समाज का विभिन्न स्तर पर सर्वेक्षण। इसके बाद समस्याओं
के समाधान की खोज। इस प्रक्रिया में सर्वेक्षण के अतिरिक्त प्रश्रावलियों
एवं साक्षात्कार आदि की विधियों का प्रयोग भी किया जा सकेगा।
ये विधियाँ तो खैर समस्या एवं परिस्थितियों के अनुरूप विकसित
होती रहेगी। लेकिन इन सबका मकसद एक ही होगा- आध्यात्मिक चिन्तन,
चरित्र एवं व्यवहार के प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन। आध्यात्मिक
विचार प्रवाह एवं आध्यात्मिक जीवन शैली की व्यापक वैज्ञानिक परख।
यही परख प्रयोगशालाओं में की जाएगी। इसके मुख्यतया तीन बिन्दु
होंगे- पहला- आध्यात्मिक साधनाओं के शारीरिक प्रभाव। उदाहरण के लिए
मन्त्र जप, उपवास आदि के शरीर पर असर का वैज्ञानिक अध्ययन। दूसरा-
आध्यात्मिक प्रयोगों का मानसिक क्षमताओं एवं मानवीय व्यवहार पर
प्रभाव। यह अध्ययन मनोवैज्ञानिक होगा। इसका ही अगला कदम
परामनोवैज्ञानिक अध्ययन- अनुसन्धान के रूप में सामने आएगा। जिसमें
साधक द्वारा निरन्तर की जा रही आध्यात्मिक साधनाओं के विशिष्ट
प्रभावों की वैज्ञानिक परख की जाएगी। इस क्रम में परामनोवैज्ञानिक
शक्तियों, जैसे कि दूरश्रवण, पूर्वाभास, सुदूर संवेदन के साथ
प्राणऊर्जा, वैद्युत्
चुम्बकीय शक्ति की विशिष्टता को भी परखा- जाँचा जाएगा। इस सबके
साथ उन तकनीकों का भी विकास किया जाएगा, जिससे आध्यात्मिक
व्यक्तित्व की सच्चाई का वैज्ञानिक ऑकलन किया जा सके।
इतना सब कुछ एक प्रवाह में कहने के बाद युगऋषि आचार्य श्री
थोड़ी देर मौन रहे। उनकी आँखों ने जैसे शून्य में कुछ देखा। उनकी
चिन्तन चेतना में जैसे भविष्य ने यकायक अपनी झलक दिखाई। और वे
हल्के से मुस्करा उठे, फिर बोले यह सब काम बहुत बड़ा है। इसके
लिए यह स्थान कम है और लोग भी थोड़े हैं। इसलिए भविष्य में इसी
का विकास महान् विश्वविद्यालय के रूप में होगा। जो मैंने स्वप्र देखा है वह कभी अधूरा नहीं रहेगा। मेरे स्वप्र
सदा पूरे हुए हैं, यह भी होगा। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के
उद्देश्य अपनी व्यापक क्रियाशीलता में विश्वविद्यालय का रूप लेंगे,
जहाँ देवसंस्कृति के अन्य अनेकों आयाम प्रकट होंगे। जहाँ
वैज्ञानिक अध्यात्म का नव्य एवं भव्य भविष्य साकार होगा।