भगवान् महावीर के उपदेशों में वैज्ञानिक अध्यात्म की व्यापक
अभिव्यक्ति हो रही थी। त्रिलोक पूजित तीर्थंकर इन दिनों नालन्दा
के श्रीपद्म उद्यान में थे। और इस समय वह सम्पूर्ण उदारता से देशना का दान दे रहे थे। सर्वज्ञ जिनेन्द्र कदम्ब वृक्ष की छांव में मिट्टी के चबूतरे पर आसीन थे। इस चबूतरे को आस- पास के ग्रामीण क्षेत्र की कन्याओं ने गोमय से लीपकर सुगन्धित पुष्पों से सजाया था। भगवान् की बगल में तनिक पीछे की ओर हटकर पट्टगणधर गौतम खड़े थे। उनके मुख पर सतर्कता, सजगता एवं तत्परता के भाव थे। वह प्रभु के प्रत्येक इंगित एवं संकेत को सहजतापूर्वक समझने और उसे क्रियान्वित करने में सक्षम थे। सामने की पंक्तियों में सुधर्मा, सिद्धसेन, समन्त भद्र, हरिभद्र, पात्रकेसरी एवं श्रीदत्त आदि जिज्ञासु साधक बैठे थे।
इन्हीं के बीच मगध सम्राट बिम्बसार श्रेणिक एवं महारानी चेलना भी थी। पट्टगणधर गौतम ने इन्हें विशिष्ट आसन देने की बहुतेरी कोशिश की, पर ये किसी भी तरह नहीं माने। उलटे उनसे कहा- आर्य!
यह किसी सम्राट की राजसभा नहीं है, जहाँ धन या पद की ऊँच- नीच
अथवा किन्हीं वैभव- विभूतियों की विशिष्टता, वरिष्ठता के आधार पर
आसन दिये जाते हैं। यह तो तत्त्वज्ञानी तीर्थंकर की अनुग्रह सभा
है। यहाँ की योग्यता तो विनयशीलता है। जो जितना विनयशील होगा, उसे
उतना ही अधिक भगवान् का सान्निध्य- सामीप्य प्राप्त होगा। सम्राट
की यह बात सभी को भायी। आज की इस सभा में मगध एवं वैशाली के ही नहीं, सुदूर क्षेत्रों के श्रेष्ठी, कृषक, कर्मकार,
शिल्पी सभी वर्ग के लोग आए थे। इसमें विद्वान् और अनपढ़ सभी थे।
किशोर, वृद्ध, पुरुष- नारी सब थे। न कोई आयु बन्धन था, न जाति
बन्धन, स्त्री- पुरुष का भी कोई भेद न था। सभी को यही अनुभूति हो
रही थी कि भगवान् हमारे हैं, अपने एकदम प्राणों से भी सगे।
उत्सुकता एवं जिज्ञासा के शैल शिखरों के बीच तीर्थंकर महावीर की वाणी जल प्रपात की भांति
अजस्र- अबाध प्रवाहित हो रही थी। वह कह रहे थे- जीवन भ्रान्ति
नहीं है, संसार माया नहीं है, यह तो आत्मा एवं सर्वात्मा की
अभिव्यक्ति का सर्वोत्तम माध्यम है। यह अभिव्यक्ति उत्तरोत्तर जितनी
सम्पूर्ण व समग्र होती जाती है, उतना ही इसका सौन्दर्य बढ़ता
जाता है। आत्मा एवं सर्वात्मा की अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता में ही
जीवन एवं संसार के सौन्दर्य की सम्पूर्णता है। इसी में क्षण-
क्षण प्रसन्नता व आनन्द की अनुभूति होती है। इस अनूठी अभिव्यक्ति
का माध्यम है चिंतन एवं सत्कर्म। इस ओर हम जितना भी बढ़ते हैं- प्रसन्नता और आनन्द भी उतना ही बढ़ते हैं। इसमें पांच
बाधाएँ हैं। पहली बाधा है, विवेक का अभाव यानि कि मिथ्यात्व।
दूसरी बाधा है- वैराग्य का अभाव, जिसकी वजह से राग, द्वेष पनपते
हैं। तीसरी बाधा है- प्रमाद यानि कि सचिंतन एवं
सत्कर्मों को न करने की प्रवृत्ति। चौथी बाधा है- कषाय- जो लोभ,
क्रोध, मान, माया का रूप लेकर आते हैं। और अन्तिम पांचवी बाधा है- मानसिक, वाचिक, कायिक क्रियाओं में विकृतियों व विकारों के योग।
तीर्थंकर की सरल- सुगम वाणी प्रकाश किरणों की भांति हृदय में उतर कर सब ओर प्रकाश विकरित कर रही थी। वह कह रहे थे- इन सभी बाधाओं को दूर करने का उपाय है- १. सम्यक् दर्शन- अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं प्रयोगों को सम्पूर्ण अन्तर्मन से स्वीकारना। २. सम्यक् ज्ञान- इनके तत्त्व को गहनता से आत्मसात कर लेना। एवं ३.
सम्यक् चरित्र- इसके अन्तर्गत अपने को आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं
प्रयोगों में इस कदर ढालना होता है कि समूचा जीवन ही अध्यात्म
विज्ञान की परिभाषा बन जाए। ऐसा होने पर केवल ज्ञान होता है,
जिसमें सत्ता एवं सत्य की सम्पूर्ण अनुभूति होती है। जबकि सामान्य
अवस्थाओं में इसके सापेक्षिक अनुभव ही हो पाते हैं। भगवान्
महावीर का यह कथन आर्य सुधर्मा को कुछ कम समझ में आया। उन्होंने विनम्र स्वर में अनुमति लेकर प्रश्र किया- भगवन्! सत्ता एवं सत्य सम्पूर्ण है अथवा सापेक्षिक।
सुधर्मा के इस प्रश्र में गहरी तत्त्व जिज्ञासा थी। भगवान् महावीर उनके इस प्रश्र पर प्रमुदित हुए और बोले- वत्स!
सत्ता एवं सत्य सम्पूर्ण भी है और सापेक्षिक भी। इसके बारे में
तुम पहले यह जानो कि सत्ता की अनुभूति ही सत्य है। केवल ज्ञान
की अवस्था में, समाधि की परमोच्च एवं सर्वोच्च अवस्था में ही अस्तित्त्व
की अनन्त सत्ता की सम्पूर्ण अनुभूति हो पाती है। केवल उसी
अवस्था में सत्ता के सत्य का सम्पूर्ण अनुभव होता है। अन्य
सामान्य अवस्थाओं में कभी इसका एक पहलू अनुभव होता है, तो कभी
दूसरा। इसलिए ऐसी दशा में सत्ता एवं सत्य सदा सापेक्ष ही बने
रहते हैं। इस सापेक्षवाद को अनेकान्तवाद भी कहते हैं।
सुनने वाले सभी अनुभव कर रहे थे कि भगवान् महावीर के अनुभव में कहीं भी निषेध या नकार नहीं है। उनके अनुभवजनित
ज्ञान की अनन्तता में सभी के लिए समुचित स्थान है। वह जहाँ
बैठे थे, उसी चबूतरे के एक कोने पर मिट्टी का घड़ा रखा था।
उन्होंने उस घड़े की ओर देखा, फिर तनिक मुस्कराए और उन्होंने सुधर्मा से पूछा- बोलो वत्स! क्या यह पात्र तुम्हें अनुभव हो रहा है? उत्तर में सुधर्मा ने कहा- हाँ भगवन्। तीर्थंकर विहंसकर बोले- यह ज्ञान का, बोध का एक आयाम है- १.
स्यात् अस्ति- यानि कि शायद हाँ। इतना कहते हुए उन्होंने उस घड़े
को उठाकर अपनी ओट में कर लिया और पूछा- घड़े के बारे में अब
तुम्हारी दृष्टि क्या कहती है। उत्तर में सुधर्मा ने कहा- भगवन्! अब मैं घड़ा अनुभव नहीं कर पा रहा हूँ। महावीर फिर हंसे और बोले- वत्स! यह ज्ञान का दूसरा आयाम है- २. स्यात् नास्ति- यानि कि शायद नहीं।
इसके बाद उन्होंने सुधर्मा से फिर पूछा- वत्स! तुम क्या पूरी तरह आश्वस्त हो कि घड़ा नहीं है। सुधर्मा
बोला- भगवन् हाँ भी और नहीं भी। क्योंकि भले ही मैं घड़े को
नहीं देख पा रहा हूँ, परन्तु घड़ा कहीं तो है इसलिए हाँ, परन्तु
मैं उसे इस समय नहीं देख पा रहा हूँ- इसलिए नहीं। इस पर भगवान्
बोले- वत्स यह बोध का तीसरा आयाम है ३.
स्यात् अस्ति- नास्ति। यानि कि शायद हाँ भी, शायद नहीं भी। महावीर
पुनः बोले- क्या तुम अपने अनुभव को ठीक- ठीक कह सकते हो? सुधर्मा बोला- नहीं भगवन्! तीर्थंकर ने कहा यही ज्ञान का चौथा आयाम है- ४. स्यात् अवक्तव्यम्- सत्य अवक्तव्य है। सुधर्मा
एवं तीर्थंकर प्रभु के बीच हो रहा यह वार्तालाप अब सभी को
रुचिकर एवं प्रिय लगने लगा। भगवान् हंस रहे थे। अब वह बोले सुधर्मा क्या तुम अपने कथन पर अटल हो। सुधर्मा
ने कुछ देर सोचा फिर बोला- भगवन् घड़ा कहीं तो है लेकिन उसके
बारे में ठीक- ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता है। अब की बार महावीर हंसे नहीं बस गम्भीरता से बोले- यह ज्ञान का पांचवा आयाम है- ५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम्, यानि कि सत्ता का सत्य है तो पर उसे ठीक से नहीं कहा जा सकता।
सुधर्मा के साथ सिद्धसेन, समन्तभद्र सहित अन्य सब भी भगवान् के कथन को आत्मसात कर रहे थे। अबकी बार उन्होंने सिद्धसेन से पूछा- वत्स घड़े के बारे में तुम कहो। सिद्धसेन ने कहा- भगवन्!
घड़ा इस समय आँखों के सामने नहीं है, उसके बारे में कुछ ठीक-
ठीक नहीं कहा जा सकता। इस पर भगवान् महावीर बोले- यह ज्ञान का
छठा आयाम है- ६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम्, यानि कि वस्तु नहीं है और अवक्तव्य है। इसके बाद उन्होंने समन्तभद्र की ओर इंगित करके पूछा- वत्स! अब तुम घड़े के बारे में कुछ कहो। समन्त
भद्र थोड़ा हिचकिचाते हुए बोले- भगवन् घड़ा है, लेकिन मेरी आँखों
के सामने नहीं होने कारण नहीं है। इसलिए है और नहीं है, इसके
बारे में कुछ ठीक से नहीं कहा जा सकता। तीर्थंकर समन्तभद्र के हिचकिचाने के कारण जोर से हंस पड़े और बोले- यह ज्ञान का सातवां आयाम है ७. स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम्। यानि कि सत्ता और उसका सत्य है भी नहीं भी है और इसके बारे में ठीक से नहीं कहा जा सकता।
इतना कहने के बाद वह तनिक गम्भीर हुए और बोले- सत्ता और उसके
सत्य अनुभव के बारे में स्यात् कहना उनके सापेक्षिक होने का
प्रतीक है। सामान्य दृष्टि में ये सापेक्षिक ढंग से ही अनुभव
होते हैं। यह सापेक्षिता सप्तआयामी
है। परन्तु केवल ज्ञान में समाधि के सर्वोच्च शिखर पर ये सभी
स्यात् समाप्त हो जाते हैं। और सत्ता एवं सत्य की सम्पूर्ण
अनुभूति होती है। स्याद्वाद यानि कि सापेक्षितावाद के इस अद्भुत
वैज्ञानिक सिद्धान्त को प्रकट करने के बाद भगवान् एक पल के लिए
मौन हुए फिर बोले- सापेक्षिता से ऊपर उठकर सत्ता और सत्य के
सम्पूर्ण अनुभव के लिए आध्यात्मिक ऋषियों की वैज्ञानिक देन योगविज्ञान की प्रक्रियाओं को अपनाना पड़ता है।