वैज्ञानिक अध्यात्म की उर्वरा में अंकुरित आयुर्वेद केवल चिकित्सा
विज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन विज्ञान भी है। इसके बहुआयामी
अनुसन्धान के लिए आचार्य नागार्जुन एक बृहद् प्रयोगशाला का
निर्माण करा रहे थे। कल- कल करती कृष्णा नदी के रम्य तट पर यह
प्रयोगशाला श्रीशैल के शिखरों पर कुछ इस तरह से बनी थी, जैसे कि इस अनूठी प्रयोगशाला के विविध भवन श्रीपर्वत के शिखर सूत्रों में मणिमाला की तरह पिरोये हों। श्रीशैल पर भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक विशिष्ट ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन
युगों से स्थापित है। आचार्य की प्रयोगशाला, उनका आश्रम इसी के
सान्निध्य में था। आचार्य नागार्जुन ईसा की पहली शताब्दी में विदर्भ क्षेत्र के छत्तीसगढ़ नामक गांव में जन्मे थे। ब्राह्मण माता- पिता ने अपने इस प्रतिभाशाली पुत्र को किशोरवय में ही वेद- वेदांग, दर्शन, व्याकरण में पारंगत कर दिया था।
उच्च शिक्षा की लालसा उन्हें पाटलीपुत्र खींच लायी। उन दिनों पाटलीपुत्र विद्या में काशी से कहीं कम न था। अश्वघोष, आर्यदेव, वसबन्धु, असङ्ग एवं दिङ्गनाग जैसे धुरन्धर विद्वान यहीं पाटलिपुत्र में रहते थे। नागार्जुन ने अपने योगदान से पाटलिपुत्र की विद्याप्रभा
को पूर्ण किया। कठिन तप, योग साधना, निरन्तर अध्ययन- अध्यापन,
अनुसन्धान ने उन्हें प्रतिभा का पर्याय बना दिया। वह शून्यवाद के
प्रवर्तक दार्शनिक, रसेश्वर तन्त्र के महान् रसायन शास्त्री, चौरासी महासिद्धों में अलौकिक महासिद्ध सरहपा के नाम से विख्यात् रहस्यमय तंत्रसिद्ध,
पारद का औषधीय प्रयोग करने वाले प्रथम आचार्य, आयुर्वेद की औषधि,
शल्य एवं रसायन विद्या में निष्णात कुशल चिकित्सक सब कुछ एक
साथ थे। और इन सबसे भी बढ़कर वह ऐसे प्रचण्ड पराक्रमी देशभक्त
थे, जिन्होंने अपने शिष्य शातवाहन को प्रेरित कर पराक्रमी शक शासक कनिष्क को पाटलिपुत्र से पलायन करने पर मजबूर किया। भारत भूमि एक बार फिर से आक्रान्ताओं की दासता से मुक्त हुई।
वही महासिद्ध योगी एवं तान्त्रिक, उच्चकोटि के दार्शनिक, विलक्षण
चिकित्साशास्त्री, महान् रसायनज्ञ अपने शिष्य प्रतापी नरेश शातवाहन
के अनुरोध से पाटलिपुत्र के गंगा तट से आकर यहाँ कृष्णा के
किनारे आ बसे थे। उनकी प्रयोगशाला का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया
था। चिकित्सा विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, रसायन विज्ञान एवं योग
तन्त्र विज्ञान की ऐसी समन्वित अद्भुत प्रयोगशाला अन्यत्र कहीं
नहीं थी। आचार्य नागार्जुन ने यद्यपि भगवान् बुद्ध की करूणा से प्रेरित होकर बौद्धमत को स्वीकार कर लिया था, फिर भी उनकी आस्था भगवान् सदाशिव में यथावत् थी। यही वजह है कि उन्होंने अपनी प्रयोगशाला के लिए श्रीशैल का चयन किया था। प्रतापी नरेश शातवाहन भी अपने गुरु के इस सान्निध्य को पाकर गर्वित, दर्पित एवं सन्तुष्ट थे। वह प्रायः उनसे मिलने के लिए श्रीशैल पर आते रहते थे।
आज भी वह अपने महान् गुरु के दर्शन के लिए आए थे। आचार्य से मिलने के लिए कुछ दिनों पूर्व कमलशील, विमुक्त सेन एवं सुभूति भी आए हुए थे। ये तीनों ही अपनी लेखनी एवं वाणी से धर्म संवेदना का प्रचार करते थे। इनमें से सुभूति का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं था। वे अपनी जिज्ञासुवृत्ति के कारण आयुर्वेद, आरोग्य एवं चिकित्सा के बारे में कई प्रश्र पूछ रहे थे और आचार्य उन्हें समझा रहे थे। जिस समय नरेश शातवाहन वहाँ पहुँचे उस समय आचार्य कह रहे थे- मनुष्य शरीर हड्डियों में लिपटे हुए मांस और चमड़े का पिण्ड भर नहीं है। उसमें अनेकों रहस्यों का समावेश है। मनुष्य शरीर में नाड़ी संस्थान, अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ, चक्र स्थान, उपत्यिकाएँ,
नाड़ी गुच्छक ऐसे अवयव हैं, जिन्हें चमत्कार से कम नहीं कहा जा
सकता। इन्हीं सबके माध्यम से ब्रह्माण्ड की ऊर्जा धाराएँ, प्राणों
का प्रकाश प्रवाह इस शरीर में प्रवेश कर इसे जीवन्त, निरोगी एवं
सुखी बनाए रखता है।
नरेश शातवाहन
को आचार्य की ये बातें विलक्षण लगी। उन्होंने पूछा- इस ऊर्जा
प्रवाह के शरीर में प्रवेश की रीति- नीति क्या है? इस प्रश्र
पर आचार्य ने कहा- दरअसल यह स्थूल शरीर एवं लौकिक जीवन चित्त
की ही अभिव्यक्ति है। इसलिए चित्त की अवस्था के अनुरूप ही नाड़ी
संस्थान, चक्र एवं उपत्यिकाएँ
आदि सक्रिय रहते हैं। यदा- कदा प्रारब्ध वश यदि चित्त के किसी
दोषपूर्ण संस्कार ने इन प्रकाश एवं ऊर्जा द्वारों को अवरूद्ध कर लिया तो शरीर रोगी हो जाता है। ऐसे रोग, दुर्घटना एवं जीवन क्रम में अन्य व्यतिक्रम प्रारब्धवश
होते हैं। परन्तु इसी के साथ खान- पान, रहन- सहन एवं आहार- विहार
दोषपूर्ण होने से भी यह व्यतिक्रम होता है। किन्तु इस व्यतिक्रम
को खान- पान व रहन- सहन में सुधार से एवं सामान्य औषधियों से
ठीक कर लिया जाता है।
परन्तु प्रारब्ध जन्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा कठिन है।
इसीलिए आयुर्वेद को ज्योतिष एवं तंत्र के साथ अभिन्न रीति से
जोड़ा गया है। ये तीनों मिलकर सम्पूर्ण एवं सफल चिकित्सा विज्ञान
का निर्माण करते हैं। इसीलिए आयुर्वेद एक ऐसा महाविज्ञान है
जिसमें जड़ विज्ञान एवं चेतन विज्ञान के तत्त्व एक साथ गुँथे
हैं। ज्योतिॢवज्ञान
आयुर्वेद के निदान पंचक को पूर्ण करता है और यह बताता है कि
शरीर में जो रोग लक्षण हैं वे सब केवल खान- पान एवं रहन- सहन
के व्यतिक्रम एवं प्रकृति विपर्यय के कारण हैं, या फिर इसके पीछे
परिभ्रमणशील कालचक्र एवं उससे उत्प्रेरित संस्कार- कर्मबीज कारण हैं। जिन्होंने शरीर में अवस्थित ऊर्जा प्रवाह एवं प्राण प्रवाह को धारण- ग्रहण करने वाले केन्द्रों को अवरूद्ध कर रखा है।
यदि ऐसा है तो आचार्य? आर्य सुभूति के प्रश्र
में थोड़ी चिन्ता की झलक थी। वह इन दिनों बीमार थे। सम्भवतः
उनकी चिन्ता यह थी कि उन्हें किसी जटिल रोग या ग्रह योग तो
नहीं घेर लिया है। उनकी इस चिन्ता पर आचार्य हँस दिए और बोले-
वत्स सुभूति!
तुम अपने लिए चिन्तित मत हो। तुम्हारा रोग तो केवल जीवनक्रम
में व्यतिक्रम के कारण है, सामान्य पथ्य, परहेज एवं साधारण औषधियों
से तुम पूर्णतः स्वस्थ हो जाओगे। आर्य सुभूति को तो अपने प्रश्र का उत्तर मिल गया, मगर नरेश शातवाहन कुछ विशेष जानना चाहते थे। उन्होंने पूछा- तन्त्र का आयुर्वेद चिकित्सा में क्या स्थान है? नरेश के इस प्रश्र को आचार्य ने गम्भीरता से लिया और बोले- राजन्!
तन्त्र की क्रियाएँ विशेषतया प्रारब्ध जन्य रोगों को हटाने-
मिटाने के लिए हैं। इन क्रियाओं से शरीर के ऊर्जा एवं प्राण को
धारण- ग्रहण करने वाले केन्द्रों में आए हुए अवरोधों को हटाया
जाता है, जिससे कि ऊर्जा एवं प्राण का अबाध प्रवाह शरीर में
प्रवाहित रहे।
इसके अतिरिक्त तन्त्र की क्रियाओं से औषधियों को विशेष ऊर्जावान्
एवं प्राणवान बनाया जाता है। तन्त्र क्रियाओं के संयोग से
औषधियाँ इतनी अधिक प्राणवान हो जाती हैं कि इनकी एक खुराक को
लेकर रोगी सदा के लिए भला चंगा हो जाता है। इस चमत्कार को चाहो
तो तुम लोग अभी देख सकते हो। अवश्य भगवन्! सभी ने एक साथ समवेत स्वर में कहा। उनके ऐसा कहने पर आचार्य ने सुभूति को दी जाने वाली औषधि की एक पुड़िया ली। उसे हाथ में लेकर वह होठों में कुछ बुदबुदाए और फिर सुभूति को खिला दिया। आश्चर्य! इसे लेकर एक सप्ताह से बीमार सुभूति दो पलों में पूर्णतयः
स्वस्थ हो गया। चिकित्सा के इस चमत्कार को प्रत्यक्ष अनुभव कर
सबके सब उस महान् आचार्य को देखते रह गए, जिन्होंने दर्शन,
तन्त्र, योग एवं आयुर्वेद तथा रसायन शास्त्र पर दर्जनों ग्रन्थों
का प्रणयन किया था। लेखक एवं कवि कमलशील तो भावुक होकर कह उठे --
त्यागी होकर भी निरन्तर जो स्वाधीनता का धनी।
वैरागी फिर भी रही रसमयी विद्या सदा संगिनी॥
बैरी व्यूह स्वदेश के जिस यती को देखते ही लुके।
श्री नागार्जुन के पवित्र चरणों में शीश मेरा झुके॥
अन्य सभी के साथ नरेश शातवाहन भी श्रद्धानत थे। वैज्ञानिक अध्यात्म के इन्हीं विचार बीजों का पश्चिमी देशों में कालान्तर में बीजारोपण सुकरात ने किया।