इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १

हर ओर बेचैनी, व्याधियाँ एवं उद्विग्नता

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कोलाहल, प्रदूषण, गन्दगी, बीमारियाँ आदि विपत्तियों से घिरा हुआ मनुष्य दिनोंदिन जीवनी शक्ति खोता चला जाता है। शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ उसे जर्जर किये दे रही हैं। दुर्बलता जन्य कुरूपता को छिपाने के लिए सज- धज ही एकमात्र उपाय दीखता है। शरीर और मन की विकृतियों को छिपाने के लिए बढ़ते शृंगार की आँधी- आदमी को विलासी, आलसी, अपव्ययी और अहंकारी बना कर एक नये किस्म का संकट खड़ा कर रही है।     

    चमकीले आवरणों का छद्म उघाड़ कर देखा जाए, तो प्रतीत होता है कि इन शताब्दियों में मनुष्य ने जो पाया है, उसकी तुलना में खोया कहीं अधिक है। सुविधाएँ तो निःसंदेह बढ़ती जाती हैं, पर उसके बदले जीवनी शक्ति से लेकर शालीनता तक का क्षरण, अपहरण बुरी तरह हुआ है। आदमी ऐसी स्थिति में रह रहा है, जिसे उन भूत पलीतों के सदृश्य कह सकते हैं, जो मरघट जैसी नीरवता के बीच रहते और डरती- डराती जिन्दगी जीते हैं।

    समृद्धि बटोरने के लिए इन दिनों हर कोई बेचैन है, किन्तु इसके लिए योग्यता, प्रामाणिकता और पुरुषार्थ परायणता सम्पन्न बनने की आवश्यकता पड़ती है, पर लोग मुफ्त में घर बैठे जल्दी- जल्दी अनाप- शनाप पाना चाहते हैं। इसके लिए अनाचार के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं रह जाता। इन दिनों प्रगति के नाम पर सम्पन्न बनने की ललक ही आकाश चूमने लगी है। उसी का परिणाम है कि तृष्णा भी आकाश चूमने लगी है। इस मानसिकता की परिणति एक ही होती है, मनुष्य अनेकानेक दुर्गुणों से ग्रस्त होता जाता है। पारस्परिक विश्वास और स्नेह सद्भाव खो बैठने पर व्यक्ति हँसती- हँसाती सद्भाव और सहयोग की जिन्दगी जी सकेगा, इसमें सन्देह ही बना रहेगा।

    अस्त- व्यस्तता और अनगढ़ता ने उभर कर, प्रगतिशील उपलब्धियों पर कब्जा कर लिया लगता है अथवा अभिनव उपलब्धियों के नाम पर उभरे हुए अति उत्साह ने, अहंकार बनकर शाश्वत मूल्यों का तिरस्कार कर दिया है। दोनों में से जो भी कारण हो, है सर्वथा चिन्ताजनक।


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