इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १

वास्तविकता, जिसे कैसे नकारा जाए?

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समस्त विश्व के आधे प्रतिभाशाली लोग युद्ध उद्देश्यों के निमित्त किये जाने वाले उद्योगों में प्रकारान्तर से लगे हैं। पूँजी और इमारतें भी इसी प्रयोजन के लिए घिरी हुई हैं। बड़ों के चिन्तन और कौशल भी इसी का ताना बाना बुनने में उलझे रहते हैं। इस समूचे तंत्र का उपयोग यदि युद्ध में ही हुआ, तो समझना चाहिए कि परमाणु आयुध धरती का महाविनाश करके रख देंगे। तब यहाँ जीवन नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रहेगी। यदि युद्ध नहीं होता है, तो दूसरे तरह का नया संकट खड़ा होगा, जो उत्पादन हो चुका है, उसका क्या किया जाए? जन- शक्ति धन- शक्ति और साधन- शक्ति इस प्रयोजन में लगी है, उसे उलट कर नये क्रम में लगाने की विकट समस्या को असम्भव से सम्भव कैसे बनाया जाए ?

    इस सब में भयंकर है मनुष्य का उल्टा चिन्तन, संकीर्ण स्वार्थपरता से बेतरह भरा हुआ मानस, आलसी, विलासी और अनाचारी स्वभाव। इन सबसे मिलकर वह प्रेत- पिशाच स्तर का बन गया है। भले ही ऊपर से आवरण वह देवताओं का, सन्तों जैसा ही क्यों न ओढ़े फिरता हो? स्थिति ने जनसमुदाय को शारीरिक दृष्टि से रोगी, अभावग्रस्त, चिंतित, असहिष्णु एवं कातर- आतुर बनाकर रख दिया है। इस सबका समापन किस प्रकार बन पड़ेगा? इन्हीं परिस्थितियों में रहते, अगले दिनों क्या कुछ बन पड़ेगा? इस चिन्ता से हर विचारशील का किंकर्तव्यविमूढ़ होना स्वाभाविक है। सूझ नहीं पड़ता कि भविष्य में क्या घटित होकर रहेगा?

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