इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग २

विभीषिकाओं के अंधकार से झाँकती प्रकाश किरणें

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   इन दिनों जिधर भी दृष्टि डालें, चर्चा परिस्थितियों की विपन्नता पर होती सुनी जाती है। कुछ तो मानवी स्वभाव ही ऐसा है कि वह आशंकाओं, विभीषिकाओं को बढ़- चढ़कर कहने में सहज रुचि रखता है। कुछ सही अर्थों में वास्तविकता भी है, जो मानव जाति का भविष्य निराशा एवं अंधकार से भरा दिखाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य ने विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण प्रगति कर दिखाई है। बीसवीं सदी के ही विगत दो दशकों में इतनी तेजी से परिवर्तन आए हैं कि दुनियाँ की काया पलट हो गई सी लगती है। सुख साधन बढ़े हैं, साथ ही तनाव- उद्विग्नता मानसिक संक्षोभ- विक्षोभों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। व्यक्ति अन्दर से अशान्त है। ऐसा लगता है कि भौतिक सुख की मृग तृष्णा में वह इतना भटक गया है कि उसे उचित- अनुचित उपयोगी- अनुपयोगी का कुछ ज्ञान नहीं रहा ।। वह न सोचने योग्य सोचता व न करने योग्य करता चला जा रहा है। फलतः: संकटों के घटाटोप चुनौती बनकर उसके समक्ष आ खड़े हुए हैं।

    हर व्यक्ति इतनी तेजी से आए परिवर्तन एवं मानव मात्र के, विश्व मानवता के भविष्य के प्रति चिन्तित है। प्रसिद्ध चिन्तक भविष्य विज्ञानी श्री एल्विन टॉफलर अपनी पुस्तक ‘फ्यूचर शॉक’ में लिखते हैं कि ‘‘यह एक तरह से अच्छा है कि गलती मनुष्य ने ही की, आपत्तियों को उसी ने न्यौत बुलाया एवं वही इसका समाधान ढूँढ़ने पर भी अब उतारू हो रहा है।

    ‘‘टाइम’’ जैसी प्रतिष्ठित अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका प्रतिवर्ष किसी विशिष्ट व्यक्ति को ‘मैन आफ द इयर’ चुनती है। सन् ८८ के लिए उस पत्रिका ने किसी को ‘मैन आफ द इयर’ न चुनकर, पृथ्वी, को ‘‘प्लनेट आफ द इयर’’ घोषित किया है। यह घोषणा २ जनवरी ८९ को की गई, जिसमें पृथ्वी को ‘एन्डेन्जर्ड अर्थ’ अर्थात् प्रदूषण के कारण संकटों से घिरी हुई दर्शाया गया। यह घोषणा इस दिशा में मनीषियों के चिन्तन प्रवाह के गतिशील होने का हमें आभास देती है। क्या हम विनाश की ओर बढ़ रहे हैं? यह प्रश्न सभी के मन में बिजली की तरह कौंध रहा है। ऐसी स्थिति में हर विचारशील ने विश्व भर में अपने- अपने स्तर पर सोचा, अब की परिस्थितियों का विवेचन किया एवं भावी सम्भावनाओं पर अपना मत व्यक्त किया है। यह भी कहा है कि अभी भी देर नहीं हुई, यदि मनुष्य अपने चिन्तन की धारा को सही दिशा में मोड़ दे, तो वह आसन्न विभीषिका के घटाटोपों से सम्भावित खतरों को टाल सकता है।

    हटसन इंस्टीट्यूट न्यूयार्क के हरमन कॉन, वर्ल्डवाच इंस्टीट्यूट अमेरिका के लेस्कर आर ब्राउन, जो आँकड़ों के आधार पर भविष्य की रूपरेखा बनाते हैं, आज से ४०० वर्ष पूर्व फ्राँस स में जन्मे चिकित्सक नोस्ट्राडेमस, फ्राँस के नार्मन परिवार में जन्मे काउन्ट लुई हेमन जिन्हें संसार, फ्राँस के नार्मन परिवार में जन्मे काउन्ट लुई हेमन जिन्हें संसार ‘कीरो’ के नाम से पुकारता था, क्रिस्टल बॉल के माध्यम से भविष्य का पूर्वानुमान लगाने वाली सुविख्यात महिला जीन डिक्सन तथा क्रान्तिकारी मनीषी चिन्तक महर्षि अरविन्द जैसे मूर्धन्यगण कहते हैं कि यद्यपि यह बेला संकटों से भरी है, विनाश समीप खड़ा दिखाई देता है, तथापि दुर्बुद्धि पर अन्ततः: सद्बुद्धि की ही विजय होगी एवं पृथ्वी पर सतयुगी व्यवस्था आएगी। आसन्न संकटों के प्रति बढ़ी जागरूकता से मनीषीगण विशेष रूप से आशान्वित हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य को बीसवीं सदी के समापन एवं इक्कीसवीं सदी के शुभारम्भ वाले बारह वर्षों में, जिसे संधि बेला कहकर पुकारा गया है, अपना पराक्रम- पुरुषार्थ श्रेष्ठता की दिशा में नियोजित रखना चाहिए। शेष कार्य ब्राह्मी चेतना, दैवी विधि- व्यवस्था महाकाल की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया उससे स्वयं करा लेगी।

    इन दिनों औद्योगीकरण के बढ़ने से चिमनियों से निकलता प्रदूषण हवा को और कारखानों का कचरा जलाशयों को, पीने का पानी देने वाली नदियों को दूषित करता चला जा रहा है। बढ़ती आबादी के साथ ईंधन की खपत भी बढ़ी है। इस कारण वायुमंडल में बढ़ती विषाक्तता तथा अंतरिक्ष का बढ़ता तापमान जहाँ एक ओर घुटन भरा माहौल पैदा कर रहा है, वहीं दूसरी ओर ध्रुवों के पिघलने, समुद्र में ज्वार आने व बड़े तटीय शहरों के जल- राशि में डूब जाने का भी संकेत देता है। ऊँचे अंतरिक्ष में ‘ओजोन’ का कवच टूटने से, अयन मंडल पतला होता चला जाने से, ब्रह्मांडीय किरणों के वायरसों के धरातल पर आ बरसने की चर्चा जोरों पर है। युद्धोन्माद के कारण उड़ते जा रहे अणु- आयुधों रासायनिक हथियारों की विभीषिका भी कम डरावनी नहीं है। बढ़ता हुआ आणविक विकिरण सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए प्रत्यक्षत: किस प्रकार संकट का कारण बन सकता है, यह हम कुछ वर्ष पूर्व सोवियत रूस के चेर्नोबिल रिएक्टर में हुए लीकेज एवं तद्जन्य परिणामों के रूप में देख चुके हैं।

    सतत कटते जा रहे वन, हरीतिमा की चादर को पृथ्वी से हटाते व भयंकर संकट मानव जाति के लिए खड़ा करते देखे जा सकते हैं। वर्षा की कमी, भूक्षरण, रेगिस्तानों का बिस्मार, जल स्रोतों का समाप्त होते चले जाना, जलाऊ ईंधन का अभाव, वायु शोधन में अवरोध, तलहटी में आकर बैठी भारी मात्रा में मिट्टी के कारण हर वर्ष बाढ़ की त्रासदियाँ, मौसम असंतुलन के कारण अतिवृष्टि- ओलों की मार, ये ऐसे संकट हैं जो मनुष्य द्वारा अदूरदर्शिता से काटे जा रहे वनों व भूमि के संसाधनों के तेजी से दोहन के फलस्वरूप जन्मे हैं।

    द्रुतगति से बढ़ती जा रही जनसंख्या हर क्षेत्र में अभाव उत्पन्न कर रही है। शहरों में गंदी बस्तियाँ बढ़ रही हैं, तो कस्बे फूलते नगरों का रूप लेते जा रहे हैं। कचरे की समस्या भी इसके साथ तेजी से बढ़ रही है। ईस्वी संवत् के प्रारंभ में, पूरे विश्व में ३० करोड़ व्यक्ति रहते थे। आज उसी पृथ्वी पर लगभग सत्रह गुने पाँच अरब से भी अधिक व्यक्ति रहते हैं। साधन सीमित हैं, उपभोग करने वाले अधिक। फलतः: प्रगति कार्यक्रम की सफलता को न केवल चुनौती रही है, एक ऐसा असंतुलन उत्पन्न होने जा रहा है, जिससे अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है।

    यौन क्षेत्र में बरती गई स्वेच्छाचारिता, बढ़ती कामुकता ने, यौन रोगों एवं असाध्य ‘एड्स’ जैसी महामारियों को जन्म दिया है। इसकी चपेट में क्रमश: एक बड़ा समुदाय आता जा रहा है जो विनाश की संभावना को प्रबल बनाता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। नशेबाजी जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि स्मैक, हेरोइन, मारीजुआना जैसी घातक वस्तुएँ किशोरों युवकों व बेरोजगारों की एक बड़ी संख्या को विक्षिप्त स्तर का न बना दें? जीवनी शक्ति घटती चली जा रही है। मौसम का जरा सा असंतुलन मनुष्य को व्याधिग्रस्त करता देखा जाता है, अस्पतालों की संख्या में बढ़ोत्तरी तो हुई, किंतु प्रत्यक्षत: स्वस्थ, और परोक्ष रूप से मानसिक रोग भी बड़ी तेजी से बढ़े हैं।

    विलासिता में कोई कमी आती नहीं दीखती। मँहगाई, बेरोजगारी की दुहरी मार, बढ़ी जनसंख्या को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। खर्चीली शादियाँ, जन साधारण को दरिद्र और बेईमान तथा नवविवाहित वधुओं को बलि का शिकार बनाती देखी जाती हैं। दहेज ही नहीं, अन्यान्य कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं के कारण न जाने कितने घर एवं धन- साधन बर्बाद होते देखे जा सकते हैं। मिलावट- नकली वस्तुओं की भरमार है। अपराधी आक्रामकता, हिंसा की बाढ़ इस तेजी से आ रही है कि शांति और सुव्यवस्था पर भारी संकट लदता चला जा रहा है। पारस्परिक स्नेह सहयोग की भावना तो पलायन ही कर बैठी है। आदमी को अपनों की सद्भावना पर भी अब विश्वास नहीं रहा।

    प्रस्तुत घटनाक्रम भयावह तो हैं ही, वास्तविक भी हैं। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सूझ- बूझ एवं विश्व शांति की बात सोची जानी चाहिए थी, क्योंकि यह विश्व मानवता की, समूचे संसार की समस्या है। साहित्यकार, कलाकार, मनीषी, चिंतकों को बढ़कर आगे आना चाहिए था, पर इस विषम वेला में जितना कुछ किया जाना है, उन आवश्यकताओं को देखते हुए विभूतियों का वर्तमान पुरुषार्थ छोटा ही नजर आता है,

    समीक्षक- पर्यवेक्षक अगले दिनों की विभीषिका का प्रस्तुतीकरण इस प्रकार करते हैं, जिससे वर्तमान की अवांछनीयताएँ और भविष्य की अशुभ संभावनाएँ ही उभर कर सामने आती हैं। ऐसी दशा में हताशा का निषेधात्मक वातावरण बनना स्वाभाविक ही है। निराश मन:स्थिति अपने आप में एक इतनी बड़ी विपदा है, जिसके रहते व्यक्ति समर्थ होते हुए भी उज्ज्वल भविष्य की संरचना हेतु कुछ कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। उत्साह उल्लास में कमी पड़ती है तथा मनोबल गिरता है।

    हौसले बुलंद हों तो प्रतिकूलताओं के बीच भी थोड़े से व्यक्ति मिलजुलकर इतना कुछ कर सकते हैं, जिसे देखकर आश्चर्यचकित रहा जा सकता है। मानवी पराक्रम व भविष्य को बदल देने की उसकी सामर्थ्य मनुष्य को प्राप्त ऐसी विभूति है जिस पर यदि विश्वास किया जा सके, तो यह मानकर चलना चाहिए कि निराशा के वातावरण में भी आशा का, उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं का उद्भव हो सकता है।

    वस्तुतः: परिवर्तन प्रक्रिया चल तो बहुत दिनों से रही थी, पर उसकी आरंभिक मंदगति को द्रुतगामी बनने का अवसर इन बारह वर्षों में मिला, ऐसा मनीषियों- दिव्यदर्शियों का मत है। ये बारह वर्ष बीसवीं सदी के समापन व इक्कीसवीं सदी के आगमन की मध्य वेला के कहे जा सकते हैं। इस अवधि को परस्पर विरोधी गतिविधियों से भरा देख रहे हैं। एक ओर दुष्प्रवृत्तियों की कष्टकारी दंड व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर देखी जा सकती है तो दूसरी ओर नूतन अभिनव सृजन के आधार भी खड़े होते देखे जा रहे हैं। इससे मन को असमंजस तो हो सकता है, पर युग संधि इसी को तो कहते हैं, जिसमें एक स्थिति जाती है, दूसरी आती है। दोनों प्रक्रियाएँ एक- दूसरे की पूरक होती हैं। पतझड़ के साथ- साथ वसंत की हरीतिमा अपने आगमन का परिचय देने लगती है। चारों ओर उल्लास उमंग भरा वातावरण छा जाता है। जराजीर्ण काया को त्यागते समय जीवन का दु:खी तो हो सकता है, पर नए जन्म का आनंद इसके बिना लिया भी तो नहीं जा सकता? नश्तर चलाते समय सर्जन निर्दयता से फोड़े की चीर- फाड़ करते हैं, पर मवाद निकलने पर कष्ट मुक्ति का आनंद भी तो अपनी जगह है।

    दूरदर्शियों, भविष्य द्रष्टाओं, अध्यात्म वेत्ताओं एवं पूर्वानुमान लगाने में सक्षम वैज्ञानिकों को इन दिनों चारों ओर एक व्यापक परिवर्तन की लहर दिखाई दे रही है। सभी इस तथ्य पर एक मत हैं कि यह समय यद्यपि कष्टकर हो सकता है, पर शीघ्र ही उज्ज्वल भविष्य की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा सकेंगी।

    भविष्य कथन विज्ञान सम्मत है या नहीं, इस पर कभी विवाद रहा होगा, किं तु अब स्वयं नृतत्वविज्ञानी, भौतिकविद् यह कहने लगे हैं कि भविष्य कैसा होगा इसको काफी पूर्व जाना जा सकता है। तदनुसार अपने क्रिया- कलापों का सुनियोजन कर सकना भी संभव है। चंद्रमा पर अपना कदम रखने वाले अग्रणी अंतरिक्ष विज्ञानी ‘नासा’ के सुविख्यात डॉक्टर एडगर मिचैल का कहना है कि भविष्य कथन को विज्ञान की कसौटी पर कसना अब संभव है ।। यह कह पाना भी संभव है कि आने वाला समय कैसा होगा? वे रचनात्मक दिशा में सोचते हुए कहते हैं कि भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है, क्योंकि आधुनिकता की दौड़ से हताश मानव जाति पूरी गंभीरता से उन प्रयोजनों में जुट रही है जो नवयुग के अरुणोदय का संकेत देते हैं। एक साक्षात्कार में उनने ‘द मैन हू सॉ द फ्यूचर’ नामक एक कृति, जिस पर वीडियो फिल्म भी बन चुकी है, में कहा है कि ह्वाट वी कन्टेम्प नेट टुडे बिकम्स अवर फ्यूचर एण्ड इट इज गोइंग टू बि डॉन आफ ए न्यू एरा इन कमिंग फ्यू इयर्स, दिस कैन बी फोरसीन बाय विटनेसिंग द इवेंट्स। अर्थात् जैसा हम आज सोचते- करते हैं वही हमारा भविष्य बन जाता है। आने वाले वर्ष नवयुग के अरुणोदय काल के होंगे, यह सुनिश्चित है। यह आज के सृजन प्रयासों प्रयासों को देखकर कहा जा सकता है।

    ज्योतिषियों के भविष्य ज्ञान पर किसी को संदेह हो सकता है, पर संसार में समय- समय पर ऐसे सूक्ष्मदर्शी अतीन्द्रिय क्षमता संपन्न भविष्य द्रष्टा जन्मे हैं, जिनने आने वाले वर्षों से लेकर सदियों तक के बारे में जो कुछ कहा- वह सच होकर रहा। अब जो उनके कथन प्रकाश में आए हैं वे इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल होने की संभावना ही दर्शाते हैं। इनमें वैज्ञानिक भी हैं, चिकित्सक भी, गुह्यविज्ञानी एवं रहस्य विज्ञान के मनीषी भी और अध्यात्मवेत्ता भी। यही नहीं ऐसे सामान्य व्यक्ति भी इनमें हैं, जिनमें अंतःस्फुरणा उठी, पूर्वाभास की क्षमता जाग उठी एवं भविष्य के गर्भ में झाँक कर वे जो कुछ भी भविष्य कथन पर पाने में समर्थ थे, वह अंततः: सत्य निकला। ऐसे कुछ संस्थान- संगठन भी हैं जो विश्व स्तर भविष्य विज्ञान नामक विधा पर ही चिंतन करते हैं एवं आँकड़ों- तथ्यों, घट रही घटनाओं, प्रचलनों आदि के सहारे अपना अनुमान लगाते हैं विज्ञान के क्षेत्र में इनके कथन बड़े प्रामाणिक माने जाते हैं, ये सभी एक ही अभिमत व्यक्त करते हैं कि मनुष्य अपनी चाल निश्चित ही बदलेगा।

    शान्तिकुञ्ज हरिद्वार ने भी इस विषय पर गहरा चिंतन व शोध कार्य कर यही निष्कर्ष निकाला है। विषद अध्ययन, परिस्थितियों के आँकलन पर तो यह अनुमान आधारित है ही, भविष्य के विषय में पूर्वाभास की भी अपनी बड़ी भूमिका रही है। जैसे अन्यान्यों को पूर्वानुमान होता रहा है, ठीक उसी प्रकार यह अंत:स्फुरणा इस तंत्र के संचालक- संस्थापक को भी होती रही है कि भविष्य उज्ज्वल होगा, विपन्नताओं के बादल छटेंगे एवं शीघ्र ही नवयुग का अरुणोदय होगा। प्रत्यक्षतः 5 लाख पत्रिकाओं के माध्यम से पच्चीस लाख प्रबुद्ध पाठकों का एवं परोक्ष रूप से करोड़ों व्यक्तियों का परिकर इस मिशन से, सूत्र संचालक से जुड़ा। इन सबको यही आश्वासन दिया जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी नूतन उज्ज्वल संभावनाएँ लेकर आ रही है। आवश्यकता है उस स्वर्णिम प्रभात की अगवानी हेतु विश्व भर के आशावादी मनीषी, प्रतिभा संपन्न सृजनशिल्पी एक जुट हों एवं अन्यान्यों का भी मनोबल बढ़ायें। इन बाहर वर्षों में संभावित प्रतिकूलताओं को निरस्त करने के लिए सभी धर्म, जाति, पंथ मतों के व्यक्तियों के लिए एक सामूहिक महापुरश्चरण सविता के ध्यान एवं सद्बुद्धि की अवधारणा के रूप में आरंभ किया गया है, सभी को इसमें सहभागी बनने का खुला आमंत्रण है।

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