वस्तुतः लगन, श्रद्धा और प्रामाणिकता के साथ यदि उच्चस्तरीय उद्देश्यों के
लिए इन दिनों कोई सामान्य स्तर का तंत्र भी खड़ा हो, तो उसे असाधारण सफलता
मिलेगी। शान्तिकुञ्ज ने इसी सूत्र को अपनाया है। इस तथ्य को अंगीकार करने
वाली अनेक प्रतिभाएँ समग्र उत्साह के साथ नवनिर्माण के क्षेत्र में उमंगें
भरी मनःस्थिति में कदम बढ़ा सकती हैं और अपने संकल्पों में दैवी अनुदानों
को जुड़ा हुआ अनुभव कर सकती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्जुन के रथ
की सारथी भी तो दिव्य शक्ति ही बनी थी। शान्तिकुञ्ज के सूत्र संचालक ने भी
परोक्ष सत्ता के प्रतिनिधि बन, प्राप्त होते रहने वाले संकेतों के आधार पर
यह सारा सरंजाम जुटाया है।
भव्य भवन बनाने से पहले इनके छोटे
आकार के मॉडल आनुपातिक आधार पर खड़े, विनिर्मित कर लिए जाते हैं। ताजमहल
आदि के मॉडल आसानी से देखे जा भी सकते हैं। बड़े- बड़े बाँध, बड़ी
परियोजनाएँ अट्टालिकाएँ पहले आर्चीटेक्ट की दृष्टि से मॉडल रूप में ही
विनिर्मित कर, फिर उन्हें विभिन्न चरणों में साकार रूप दिया जाता है।
शान्तिकुञ्ज ने इक्कीसवीं सदी के उपयुक्त उज्ज्वल भविष्य संरचना के स्वरूप
के अनुसार अपने आपको छोटे मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया है।
इस
मॉडल में युग की सामयिक आवश्कताओं की पूर्ति हेतु युग मनीषा द्वारा किये
जा सकने वाले तीन महत्त्वपूर्ण प्रयासों को अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है।
१- युग चेतना को जनमानस के अन्तराल तक पहुँचाने वाली महाप्रज्ञा की पक्षधर
लेखनी। २- जन मानस को झकझोरने और उल्टे को सीधा करने में समर्थ परिमार्जित
वाणी। ३- अपनी प्रतिभा, प्रखरता और प्रामाणिकता को पग- पग पर खरा सिद्ध
करते रहने में समर्थ पुरोधाओं- अग्रदूतों का परिकर।
युग
क्रान्तियों में सदा यही तीनों अपनी समर्थ भूमिका निभाते रहे हैं। अनीति
अनाचार को आदर्शवादी प्रवाह में परिवर्तन कर सकने वाले महान कायाकल्प
इन्हीं तीन अमोघ शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं।
आज की
परिस्थितियों में क्या ऐसा सम्भव है? इस पर सहज ही विश्वास नहीं होता। कारण
कि इन दिनों आदर्शवादिता मात्र कहने की चीज रह गई है। वह व्यवहार में भी
उतर सकती है, इस पर सहज ही विश्वास नहीं होता। इसीलिए यह उपाय सोचा गया है
कि इतने महान प्रयोजन की पूर्ति एवं विशाल आयोजन के लिए एक विश्वस्त, परिचय
देने वाला मॉडल खड़ा किया जाए कि प्रज्ञा अभियान की रूप रेखा का
व्यावहारिक क्रियान्वयन किस प्रकार सम्भव है? इसी के लिए एक छोटा, किन्तु
आदर्श एवं आनुपातिक मॉडल शान्तिकुञ्ज के रूप में बनाकर खड़ा कर दिया गया
है। इसे देख समझ कर सही कल्पना की जा सकती है कि भविष्य कैसे बदलेगा? नूतन
सदी कैसे आएगी।
सामान्यतया अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर पता
चलता है कि जनसाधारण के लिए प्रचलनों का अनुकरण सरल पड़ता है। बुद्धि
संगत, सामयिक, उपयोगी न होने पर भी लोग उन्हें आग्रह पूर्वक अपनाए रहते
हैं, पर नये दीखने वाले प्रचलन अत्यन्त आवश्यक होने पर भी गले नहीं उतरते।
कड़वी औषधि रोग नाशक होने पर भी उसे सेवन करते ही मुँह बिचकता है। खादी का
तत्त्वज्ञान जब तक जन साधारण को हृदयंगम कराया जाता रहा, तब तक उसका
व्यवहार हुआ। अब उस ओर उपेक्षा बरती जाती, देखी जाती है।
विचार
क्रान्ति में पुरानी लीक से हट कर नया उपयोगी मार्ग अपनाने के लिए कहा जाता
है, किन्तु उससे पूर्वजों की हेठी होती मानी जाती है और पूर्वाग्रह के
समर्थन में हजार बेतुके तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसी दशा में उस अति
सामयिक एवं आवश्यक प्रयास से जन साधारण को सहमत कराने के लिए कुछ बड़े और
कठिन उपाय अगले दिनों अपनाने होंगे।
इस सन्दर्भ में लेखनी,
वाणी, प्रशिक्षण समारोह- आयोजन व्यवहार, प्रचलन प्रस्तुत करने के साथ- साथ
यह भी उतना ही जरूरी है कि आदर्शवादी प्रतिपादनों को ऐसे लोग प्रस्तुत
करें, जिनकी कथनी और करनी एक हो। जिनकी प्रामाणिकता और प्रखरता पर उँगली न
उठती हो। इन सभी सरंजामों को जुटाने पर ही विचार- क्रान्ति का गतिचक्र आगे
बढ़ सकता है, भले ही वह छोटे आकार तथा धीमी गति से चलने वाला ही क्यों न
हो?
युग क्रान्ति के लिए अनिवार्य है कि भ्रान्तियों के हर पक्ष
पर प्रहार करने वाले प्रतिपादन प्रस्तुत किये जाएँ, और उनके स्थान पर जो
विवेकयुक्त स्थापनाएँ की जानी हैं, उसके लिए तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरणों
के साथ भाव संवेदनाओं को स्पष्ट करने वाली शैली में प्रभावशाली लेखन किया
जाए। उसके प्रकाशन के लिए भी मिशनरी स्तर का तंत्र खड़ा किया जाए। सामान्य
रूप से लोग हलका मनोरंजन साहित्य पढ़ते हैं, साहित्य को प्रकाशक छापते भी
हैं। इस लोकोपयोगी साहित्य को प्रकाशित करना और जन- जन तक पहुँचाने के लिए
उसे सस्ता भी रखना आवश्यक है। साथ ही हर शिक्षित को वह साहित्य आग्रह
पूर्वक पढ़ाया जाए, ऐसा तंत्र भी विकसित करना आवश्यक है।
साधन
रहित परिस्थितियों में बड़ा सरंजाम जुट नहीं सकता। याचना करने, अर्थ संग्रह
करने की अपेक्षा सूत्र संचालकों द्वारा यह उचित समझा गया कि उपयोगिता को
अपने बलबूते लोकप्रिय बनने देने का अवसर दिया जाए। इससे प्रस्तुतीकरण के
स्तर की सहज समीक्षा भी हो जाएगी।
अब से ५० वर्ष पूर्व इसी
प्रयोजन के लिए हिन्दी ‘अखण्ड ज्योति’ प्रकाशित की गई। यह मासिक पत्रिका
मात्र न होकर हमारी चिन्तन का नवनीत था, जिसकी प्रेरणा सतत हमें दुर्गम
हिमालय से मिलती थी। आरम्भ में इसकी ५०० प्रतियाँ छापी गई। स्वयं सेवक स्तर
पर घर- घर जाकर बाँटने का क्रम बनाया गया। अब यह उसकी अपेक्षा ५०० गुनी
अधिक, अर्थात् ढाई लाख से अधिक की संख्या मे छपने लगी है। क्रमश: बढ़ते-
बढ़ते १९८९ अप्रैल माह तक उसकी ग्राहक संख्या तीन लाख आ पहुँची है।
अध्यात्म तत्त्वदर्शन का विज्ञान सम्मत प्रतिपादन, विज्ञान को नई दिशा देने
वाले समन्वयात्मक तथ्य परक लेखों का संकलन, मनुष्य में छिपी अनन्त
सम्भावनाएँ व उनके विकास के विधि- उपचारों के सम्बन्ध में इस पत्रिका का
लेखन सम्पादन हरिद्वार से ही होता है, प्रकाशन मथुरा से। जिसने भी पढ़ा है,
उसे न केवल लेखन शैली ने प्रभावित किया है, वरन् गूढ़ समयानुकूल
प्रतिपादनों ने नई प्रेरणा भी दी है।
दूसरी पत्रिका आज से २७
वर्ष पूर्व ‘‘युग निर्माण योजना नाम से आरम्भ की गई। इस विषय वस्तु की
परिधि वह थी, जो अखण्ड ज्योति की सीमा में नहीं आती थी। परिवार एवं सामाजिक
निर्माण के लिए प्रस्तुत किये जाने वाले प्रतिपादनों का प्रचार- प्रसार यह
पत्रिका करने लगी। देखते- देखते यह भी ७० हजार छपने लगी। गुजराती, मराठी,
उड़िया तमिल, तेलगू भाषा के संस्करण बड़ी संख्या में पाठकों के समक्ष पहुँच
रहे हैं। इनमें गुजराती पत्रिका युग शक्ति नाम से डेढ़ लाख से भी अधिक की
संख्या में प्रकाशित हो रही है, गुरुमुखी, बँगला एवं अंग्रेजी संस्करण
प्रकाशित हुए, पर उनकी व्यवस्था ठीक तरह न बन पाने के कारण उन्हें
पुस्तकाकार रूप में समय- समय पर प्रकाशित किये जाने की व्यवस्था बना ली गई।
इस प्रकार पत्रिकाओं के जो संस्करण छपते हैं, उनकी संख्या चार और पाँच लाख
के बीच रही है। हर पत्रिका को न्यूनतम दस पाठक पढ़ते हैं। इस प्रकार वे
सभी मिलकर प्राय: पच्चास लाख व्यक्तियों की विचार चेतना को हर माह झकझोरती
हैं।
बिना विज्ञापन लिए, बिना अर्थ याचना किये, मात्र अपनी
उपयोगिता और पाठकों की सहयोगी सद्भावना के सहारे यह ग्राहक संख्या बढ़ी है।
मात्र कागज, छपाई एवं डाक खर्च का ही भार इस प्रकाशन पर पड़ता है एवं नो
प्रॉफिट, नो लॉस, प्रक्रिया पर अखण्ड ज्योति ६० रुपये वार्षिक (पृष्ठ ६४),
युग शक्ति गुजराती, ४० रुपये वार्षिक (पृष्ठ ५२), युग निर्माण योजना
हिन्दी, ३० रुपये वार्षिक (पृष्ठ ३६), सतत प्रकाशित हो रही है एवं विज्ञापन
न लेने का अपना संकल्प दुहराती हुई दूने उत्साह से पाठकों के बीच पहुँच
रही हैं।
यह एक उदाहरण है कि बड़ी प्रतिभाएँ यदि बड़े साधनों से
बड़े क्षेत्र में यह कार्य करें, तो विचार क्रान्ति की प्रथम आवश्यकता की
पूर्ति हो सकना किसी प्रकार असम्भव नहीं रह सकता जब एक व्यक्ति अपने श्रेय
समर्पण से इतना कुछ कर सकता है तो ऐसे ही अनेक की श्रम- साधना कितने बड़े
को प्रभावित कर सकने वाली सफलता प्रस्तुत कर सकेगी, इसका अनुमान लगा सकना
किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए।
साहित्य क्षेत्र में
स्थाई महत्त्व की पुस्तकों की भी आवश्यकता है। शान्तिकुञ्ज के माध्यम से
एवं युग निर्माण योजना द्वारा युग साहित्य के अन्तर्गत प्राय: ढाई हजार से
अधिक पुस्तकें अब तक छपी हैं। सब मानव, परिवार, समाज की भिन्न- भिन्न
समस्याओं पर हैं। देश की अधिकांश भाषाओं में उनके अनुवाद हुए हैं। मूल्य के
सम्बन्ध में वही निश्चित नीति है नफा न नुकसान। गरीब देश का, देहात परिकर
का पाठक बड़े मूल्य की पुस्तकों का लाभ नहीं उठा पाता। प्रचार इसी आधार पर
बन पड़ा कि जिसने भी पढ़ा उसने दूसरों को पढ़ाया और उन्हें खरीदने के लिए
उकसाया। झोला पुस्तकालय कन्धों पर लादे, पाठक अपने परिचय क्षेत्र में
निकलते हैं। दूसरों को पुस्तकें पढ़ने देने और वापस लेने जाते हैं। कोई
उत्साह दिखाता है, तो बेच भी देते हैं। यह कार्य विशुद्ध सेवा भावना से
होता है। इसलिए कमीशन की उलझन खड़ी नहीं होने पाती। ईसाई मिशन और
कम्युनिस्ट प्रचारक अपना साहित्य प्राय: इसी प्रकार फैलाते रहे हैं।
पत्रिकाएँ और पुस्तकें कितना क्रान्तिकारी कार्य कर सकती हैं, यह इन
पंक्तियों के लेखक ने स्वयं देखा है। एक व्यापक परिकर के लोगों को बड़े
प्रयास अपनाने की प्रेरणा देकर, विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों के लिए विचार
संशोधन और संवर्धन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रस्तुतियाँ इन पुस्तकों के
माध्यम से की जा सकती है। इस प्रकार व्यापक परिवर्तन का आधार बन सकता
है।
दूसरा पक्ष है वाणी। सत्संग, प्रवचन- गोष्ठी सभाएँ,
विचार- विनिमय सत्र समारोह आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं। शान्तिकुञ्ज के
पिछले लम्बे समय से, वर्ष भर एक- एक माह के युग शिल्पी सत्र तथा ९- ९ दिन
के संजीवनी विद्या के प्रतिभा संवर्धन सत्र चलते आ रहे हैं, जिनमें अब तक
पाँच लाख से भी अधिक व्यक्ति भाग ले चुके हैं। युग शिल्पी सत्र (जो १- १
माह के होते हैं) में प्रचारक स्तर की योग्यता उत्पन्न की जाती है। सुगम
संगीत, सुगम वाद्ययन्त्र, कथा प्रवचन, स्लाइड, प्रोजेक्टर, वीडियो आदि के
माध्यम से आदर्शवादी प्रचलनों की, दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन, स्टीकर
आन्दोलन, दीपयज्ञों के माध्यम से बिना खर्च के बड़े और प्रभावी समारोह स्तर
की विधि व्यवस्था इन्हीं सत्रों में सिखा दी जाती है। प्रतिभागी
सत्रार्थियों के निवास, भोजन, शिक्षण, आवश्यक उपकरण आदि की समुचित व्यवस्था
यहाँ है। अपने अभ्यास व प्रशिक्षण के आधार पर ये प्रचारक जहाँ जाते हैं,
वहाँ भीड़ एकत्रित कर, लोकरंजन से लोकमंगल- जन का प्रयोजन पूरा करते हैं।
जो प्रतिपादन गले उतारना है, उसे सुगम संगीत के माध्यम से प्रस्तुत करते
रहते हैं व हजारों की संख्या में जनता इन आदर्शवादी प्रकरणों को सुनने आती
है। स्थाई स्तर पर हर वर्ष प्राय: साढ़े तीन हजार प्रचारक इस सत्र पद्धति
के अन्तर्गत विनिर्मित हो जाते हैं।
जिनके पास समय कम है, वे नौ
दिन के सत्रों में जीवन साधना विषयक संजीवनी विद्या का ज्ञान प्राप्त
करने, अपनी मन:स्थिति का संवर्धन करने के निमित्त आते हैं। ये सत्र अलग से
चलते हैं व उनकी संख्या प्राय: पाँच सौ से एक हजार के बीच हो जाती है। ये
कार्यकर्ता भी क्षेत्रों में जाकर प्रचारक की भूमिका निभाते हैं।