क्रिया की प्रतिक्रिया होना सुनिश्चित है। घड़ी का पेंडुलम एक सिरे तक
पहुँचने के बाद वापस दूसरे सिरे की ओर लौट पड़ता है। अति बरतने वाले कुछ ही
समय बाद पछताते और सही स्थिति प्राप्त करने के लिए तरसते देखे गये हैं।
विषैले पदार्थ खा बैठने पर उल्टी- दस्त तो लगते ही हैं, जान जोखिम तक का
खतरा सामने आ खड़ा होता है। क्रोधी को बदले में प्रतिशोध सहना पड़ता है।
दुर्व्यसनी अपनी सेहत, खुशहाली और इज्जत तीनों ही गँवा बैठता है। अपव्ययी
लोग तंगी भुगतते देखे गये हैं। कुकर्मी, लोक और परलोक दोनों ही बिगाड़ लेते
हैं। इसके विपरीत परिश्रमी, अनुशासित और मनोयोगपूर्वक व्यस्त रहने वाले
अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में दिन- रात सफल होते चले जाते हैं।
जिन दिनों शक्तियों के सदुपयोग का प्रचलन था, उन दिनों साधारण साधनों के
रहते हुए भी लोग प्रसन्न रहते और सुख- शान्ति भरे वातावरण में जीवन- यापन
करते थे। सतयुग वही काल था, जिसकी सराहना करते- करते इतिहासकार अभी भी नहीं
थकते हैं। इसके विपरीत यदि मर्यादाओं और वर्जनाओं का परित्याग कर अनाचारी-
उद्दण्ड उपक्रम अपनाया जाए, तो ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होना स्वाभाविक
है, जिनकी कलियुग के नाम से भर्त्सना की जाती है, जिनमें प्रचुर साधन होते
हुए भी लोग डरती- डराती जलती- जलाती जिन्दगी जीते हैं। इन दिनों ऐसा ही कुछ
हो रहा है। विज्ञान ने मनुष्य को अतिशय शक्ति का स्वामी बनाया है। बढ़ते
बुद्धि वैभव ने जानकारियों के अम्बार जुटा लिए हैं। विलास के साधनों की कमी
नहीं। साज- सज्जा को देख कर भ्रम होता है कि कहीं हम लोग स्वर्ग में विचरण
तो नहीं कर रहे हैं। इतना ही पर्याप्त होता तो सचमुच यही माना जाता कि इन
शताब्दियों में असाधारण प्रगति हुई है, पर जब लिफाफे का कलेवर उघाड़ कर
देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि भीतर दुर्गन्ध भरे विषाणुओं, जीवाणुओं
के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। यह विडम्बना, शालीनता के परित्याग का ही
प्रतिफल है। विज्ञान और धर्म यदि मिलकर चले होते, तो आज की उपलब्धियाँ
व्यक्ति और समाज के सामने सुख- शान्ति के इतने आधार खड़े कर देती, जो सतयुग
की तुलना में कहीं अधिक बढ़े- चढ़े होते, पर उस दुर्भाग्य को क्या कहा
जाए, जिसने सदुपयोग और दुरुपयोग की विभाजन रेखा को ही मिटा कर रख दिया है।