इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १

इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य

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इन आधारों पर इक्कीसवीं सदी सुखद सम्भावनाओं की अवधि है। बीसवीं सदी में उपलब्धियाँ कम और विभीषिकाएँ अधिक उभरी हैं। अब उस उपक्रम में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने जा रहा है। प्रात: सायं की सन्धि बेला की तरह बीसवीं सदी का आरम्भ वाला यह समय युगसन्धि का है। इसका भी अपना एक मध्यकाल है, जिसे बारह वर्ष का माना गया है, सन् १९८९ से २००० तक का। इस बीच मध्यवर्ती स्तर के सूक्ष्म और स्थूल परिवर्तनों की क्रान्तिकारी तैयारी होगी। बुझता हुआ दीपक अधिक ऊँची लौ उभारता है, मरते समय चींटी के पंख उगते हैं। मरणकाल में साँसों की गति तेज हो जाती है। दिन और रात के मिलन वाला सन्ध्याकाल भी अनेक विचित्रताओं को लिए हुए होता है। प्रसव पीड़ा के समय दो प्रकार की परस्पर विरोधी विचित्रताएँ देखी जाती हैं, एक ओर पीड़ा की कराह कही- सुनी जाती है, तो दूसरी ओर सन्तान लाभ की प्रसन्नता भी उस परिवार के सभी लोगों पर छाई होती है। युगसन्धि के इन बारह वर्षों में चलने वाली उथल- पुथल भी ज्वार भाटे जैसी है। इसमें एक ओर अवांछनीयता हारे जुआरी की तरह दूने दाँव लगाती देखी जाएगी और अनर्थ उत्पन्न करने में कुछ उठा न रखेगी। दूसरी ओर सृजन के दृश्य और प्रयास भी अपना- अपना पूरा जोर आजमाकर बाजी जीतने की चेष्टा में प्राणपण से जुटे दिखाई पड़ेंगे।

    युगसन्धि की इस ऐतिहासिक वेला में सृजन सम्भावनाओं के दृश्यमान प्रयत्न जहाँ शासन, अर्थ क्षेत्र, विज्ञान आदि की परिधि में दिखाई पड़ेंगे, वहाँ अध्यात्म शक्तियाँ भी अपने तप- उपचार को ऐसा गतिशील करेंगी, जिससे भगीरथ, दधीचि, हरिश्चन्द्र, विश्वामित्र आदि द्वारा किये गये महान परिवर्तनों की भूमिका निबाही जाती देखी जा सके। लोक सेवियों का एक बड़ा वर्ग भी इन्हीं दिनों कार्य क्षेत्र में उतरेगा और राम के रीछ वानरों, कृष्ण के ग्वाल- बालों बुद्ध के परिव्राजकों और गाँधी के सत्याग्रहियों की अभिनव भूमिका का निर्वाह करते हुए एक नये इतिहास की नई संरचना करते हुए देखा जाएगा। यह सब अदृश्य प्रयत्नों की ही अनुकृति समझी जा सकेगी। अदृश्य जगत से सक्रिय परिवर्तन की लहरें

    दृश्य घटनाएँ और हलचलें सामने उपस्थित और आँखों से दीखने वाली होती हैं, पर उनका आरम्भ अदृश्य जगत से होता है। जीवित रहने के लिए साँस की प्रधान आवश्यकता है, जो अन्न जल से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और आकाश में अदृश्य रूप से विद्यमान है। ऋतु परिवर्तन, प्राणियों और क्रिया- कलापों को असाधारण रूप से प्रभावित करता है। मनुष्यों की भली- बुरी क्रियाएँ अदृश्य जगत के वातावरण को प्रभावित करती हैं और फिर वहाँ से वे तदनुरूप परिस्थितियाँ बनकर उतरती हैं। उन्हीं के प्रतिफल सुख और दुःख के प्रतीक बनकर उतरते हैं। इन दिनों जो हो रहा है, उसका कारण लोक प्रचलन तो है ही, अदृश्य जगत के तूफानी प्रवाह भी परिस्थितियों को कम प्रभावित नहीं करते। समाधान के उपाय प्रत्यक्ष स्तर के तो होने ही चाहिए, पर साथ ही यह भी आवश्यकता है कि अध्यात्म उपचारों के जैसे सूक्ष्म क्षेत्र के पुरुषार्थ भी वैसे किये जाएँ, जैसे कि स्वाधीनता संग्राम के दिनों में महर्षि अरविन्द, रमण, पौहारी बाबा, रामकृष्ण परमहंस आदि ने किये थे। पक्षी दोनों पंखों के सहारे उड़ता है। विपत्तियों से जूझने और प्रगति के क्षेत्र में ऊँची उड़ाने उड़ने के लिए न केवल विकास के पक्षधर प्रयासों को क्रियान्वित किया जाना चाहिए, वरन् ऐसा भी कुछ होना चाहिए, जिसमें देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गा का अवतरण हुआ था तथा ऋषियों ने रक्त से घड़ा भरकर सीता को उत्पन्न किया था। उनके माध्यम से ही असुर दमन, लंका दहन और राम राज्य की पृष्ठभूमि बनाने वाला अदृश्य आधार खड़ा किया था।
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