इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य-भाग १

बढ़ती आबादी, बढ़ते संकट

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यह सब बातें कामुकता को प्राकृतिक मनोरंजन मानने और उसे उन्मुक्त रूप से अपनाने के पक्ष में जाती हैं। फलतः बंधनमुक्त यौनाचार जनसंख्या वृद्धि की नई विभीषिका खड़ी कर रहा है। गर्भ निरोध से लेकर भ्रूण हत्याओं तक को प्रोत्साहन मिलने के बाद भी जनसंख्या वृद्धि में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। पूरी पृथ्वी पर जनसंख्या चक्रवृद्धि ब्याज के हिसाब से बढ़ रही है। एक के चार, चार के सोलह, सोलह के चौसठ बनते-बनते संख्या न जाने कहाँ तक जा पहुँचेगी। तीन हजार वर्ष पहले मात्र तीस करोड़ व्यक्ति सारे संसार में थे, अब तो वे छः सौ करोड़ हो गए हैं। लगता है कि अगले बीस वर्षों में कम से कम दूने होकर ऐसा संकट उत्पन्न करेंगे, जिसमें मकान का, आहार का संकट तो रहेगा ही, रास्तों पर चलना भी मुश्किल हो जाएगा।

    पृथ्वी पर सीमित संख्या में ही प्राणियों को निर्वाह देने की क्षमता है। वह असीम प्राणियों को पोषण नहीं दे सकती। बढ़ता हुआ जनसमुदाय अभी भी ऐसे अगणित संकट खड़े कर रहा है। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि कम पड़ती जा रही है। आवास के लिए बहुमंजिले मकान बन रहे हैं, फिर भी खेती के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी भूमि की बड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ रही है। जंगल बुरी तरह कट रहे हैं। उसमें घिरी हुई जमीन को खाली कर लेने की आवश्यकता, कानूनी रोकथाम के होते हुए भी किसी न किसी तरह पूरी हो रही है। वन कटते जा रहे हैं। फलस्वरूप वायु प्रदूषण की रोकथाम का रास्ता बन्द हो रहा है, जमीन में जड़ों की पकड़ न रहने से हर साल बाढ़ें आती हैं, भूमि कटती है, रेगिस्तान बनते हैं। नदियों की गहराई कम होते जाने से पानी का संकट सामने आता है। फर्नीचर, मकान और जलावन तक के लिए लकड़ी मुश्किल हो रही है। वन कटने की अनेक हानियों को जानते हुए भी, आवास के लिए, खाद्य के लिए, सड़कों स्कूलों और बाँधों के लिए जमीन तो चाहिए। यह सब जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम ही तो हैं। इन्हीं में एक अनर्थ और जुड़ जाता है, शहरों की आबादी का बढ़ना बढ़ते हुए शहर, घिचपिच की गन्दगी के कारण नरक तुल्य बनते जा रहे हैं।


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