मनुष्य अनन्त शक्तियों का भण्डार है। उसमें से बहुत थोड़ा अंश ही शरीर व्यवसाय में खर्च हो पाता है। शेष शक्ति प्रसुप्त मूर्छित स्थिति में पड़ी रहती है। काम में न आने पर पैने औजारों को भी जंग खा जाती है। प्रतिभा के अंग-प्रत्यंगों का प्रयोग न होने पर, मनुष्य भी मात्र कोल्हू के बैल की तरह किसी प्रकार जिन्दगी के दिन काटता रहता है, पर जब भी उसका उत्साह उभरता है, तभी तत्परता, लगन, स्फूर्ति और गहराई तक उतरने, खाने-पीने की ललक, अपने जादू भरे चमत्कार दिखाने लगती है, व्यक्ति कहीं से कहीं जा पहुँचता है और साधारण परिस्थितियों में भी ऐसी कुछ कर दिखाने लगता है, जिनसे आश्चर्यचकित हुआ जा सके।
पिछली तीन सदियों को आत्म जाग्रति का समय कहना चाहिए, भले ही वह भौतिक प्रयोजन के पक्ष में ही सीमित क्यों न रही हों। शक्ति का जहाँ भी प्रयोग होता है, वह अपना काम करती है। उसने किया भी। भौतिक प्रगति की दिशा में उसका रुझान जुड़ा, अन्वेषण चले और उसने प्रत्यक्षवाद के पुराने ढाँचे को एक नये दर्शन रूप में गढ़कर तैयार कर दिया। नई स्फूर्ति के साथ जब नवीनता उभरती है, तो उसका परिणाम भी असाधारण होता है। प्रगति के नाम पर बढ़ा-चढ़ा भौतिकवाद और प्रत्यक्षवाद संसार के सामने आया और उसने जन-जन को प्रभावित किया। आविष्कारों ने सुविधा-साधनों के अम्बार जमा किये। बुद्धिमत्ता के नाम पर इतनी अधिक जानकारियाँ एकत्रित कर ली गईं, जो किसी को भी अहंकारी बनाने के लिए पर्याप्त हो सकती थी। वैसे जानकारियाँ बढ़ाना सराहना के योग्य कार्य है, इसलिए प्रगतिशील का श्रेय भी उन सबको मिला है, जिनने यह उत्साह और पुरुषार्थ दिखाया।