यह विज्ञान के उत्कर्ष के साथ ही उसके दुरुपयोग की कहानी है, जिसमें सुखद अंश कम और गुरुपद भाग अधिक है। वह उपक्रम अभी भी रुका नहीं है, वरन् दिन-दिन उसका विस्तार ही हो रहा है। अब तक जो हानियाँ सामने आई हैं जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उन्हीं का समाधान हाथ नहीं लग रहा है, फिर इस सबका अधिकाधिक संवर्धन अगले ही दिनों न जाने क्या दुर्गति उत्पन्न करेगा? इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कुछ ही समय के वैज्ञानिक दुरुपयोग का क्या नतीजा निकला और अगले दिनों उसकी अभिवृद्धि से और भी क्या अनर्थ हो सकने की आशंका है?
विज्ञान का दर्शन प्रत्यक्षवाद पर अवलंबित है। उसने दर्शन को भी प्रभावित किया है और यह मान्यता विकसित की है कि जो कुछ सामने है, उसी को सब कुछ माना जाए। इसका निष्कर्ष आज के प्रत्यक्ष लाभ को प्रधानता देता है। परोक्ष का अंकुश अस्वीकार कर देने पर ईश्वर, धर्म और उसके साथ जुड़े हुए संयम, सदाचार और पुण्य-परमार्थ के लिए कोई भी स्थान नहीं रह जाता। मर्यादाओं और वर्जनाओं को अंधविश्वास कह कर, उनसे पीछा छुड़ाने पर इसलिए जोर दिया गया है कि इससे व्यक्ति की निजी सुविधाओं में कमी आती है। पूर्ति का सिद्धान्त यही कहता है कि जिस प्रकार भी, जितना भी लाभ उठाया जा सके, उठाना चाहिए, उसमें सिद्धान्त को आड़े नहीं आने देना चाहिए। इसी मान्यता ने पशु-पक्षियों के वध को स्वाभाविक प्रक्रिया बनाकर असंख्यों गुना बढ़ा दिया है। अन्य प्राणियों के प्रति निष्ठुरता बरतने के उपरांत जो बाँध टूटता है, वह मनुष्यों के साथ निष्ठुरता न बरतने का कोई सैद्धांतिक कारण शेष नहीं रहने देता। मनुष्य को पशु-प्रवृत्तियों का वहनकर्ता ठहरा देने के उपरान्त यौन स्वेच्छाचार न बरतने के पक्ष में भी कोई ठोस दलील नहीं रह जाती।
विज्ञान और बुद्धिवाद की नई धाराएँ खोजने के लिए और उनके आधार पर तात्कालिक लाभ के जादू-चमत्कार प्रस्तुत करने वाली आधुनिकता, नीति और सदाचार का एक सिरे से दूसरे सिरे तक उन्मूलन करती, मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनाती जा रही है।