बात इतने पर ही समाप्त नहीं होती, वरन् इससे भी बड़े रूप में सामने आती है।
वह है दुरुपयोग या सदुपयोग में से एक के चयन की। स्वार्थपरता और
अदूरदर्शिता का समन्वय जब भी होता है, तब एक ही बात सूझ पड़ती है कि जो कुछ
जितना जल्दी बटोरा और उससे जितना भी कुछ मौज- मजा उठा सकना सम्भव हो, वैसा
कर लिया जाए। उतावले, बचकाने व्यक्ति यही करते हैं। वे उपलब्धियों को
धैर्यपूर्वक सत्प्रयोजनों में खर्च कर सकने की स्थिति में ही नहीं होते।
ऐसा कुछ करते हैं जैसा कि सोने का अण्डा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरकर
सारे अण्डे एक ही दिन में निकाल लेने की दृष्टि से आतुर व्यक्ति ने किया
था।
सदुपयोग से, किसी भी वस्तु से अपना और दूसरों का हित साधन
किया जा सकता है, पर जब उसी का दुरुपयोग होने लगता है, तो एक माचिस की तीली
से सारा गाँव जल जाने जैसा अनर्थ उत्पन्न होता है। प्रगतिशील शताब्दियों
में पाया तो बहुत कुछ, पर दूरदर्शिता के अभाव में उसका सदुपयोग न बन पड़ा
और उपयोग ऐसा हुआ, जिससे आज हर दिशा में संकटों के घटाटोप गहरा रहे हैं।
शासकों और धनाढ्यों के हित को प्राथमिकता न मिली होती, तो वैज्ञानिक
उपलब्धियों ने जन- साधारण का स्तर कहीं से कहीं पहुँचा दिया होता। जब
मशीनें मनुष्य के काम- काज में हाथ बँटाने लगीं थीं, तो उन्हें छोटे आकार
का बनाया गया होता। कम परिश्रम में, कम समय में निर्वाह साधन जुटा लेने का
अवसर मिला होता और बचे समय को कला- कौशल में, व्यक्तियों को अधिक सुयोग्य
बनाने में लगाया गया होता। परिणाम यह होता कि हर कहीं खुशहाली होती। कोई
बेकार न रहा होता और किसी को यह कहने का अवसर न मिला होता कि निजी
व्यक्तित्व के विकास एवं समाज के बहुमुखी उत्कर्ष में योगदान करने का अवसर
नहीं मिला, पर दुरुपयोग तो दुरुपयोग है, उसके कारण अमृत भी विष बन जाता है।