संपादकीय - हम सन्तानों के संकल्प- चरणों में अनुरक्ति की भावभरी कामना

September 2002

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माँ! हम सब सन्तानों का संकल्प हमारी भावनाओं का सजल उद्रेक है। जो आपकी यादों के सघन होते ही बरबस उमड़ पड़ा है। हम सबको यह तन-मन-जीवन देने वाली आप ही हैं। हममें से हर एक के जीवन में यदि कहीं कोई उपलब्धियाँ नजर आती हैं, तो वे सबकी सब आपके आशीषों का ही सुफल है। आपके द्वारा पाए गए अनुदानों को थोड़े बहुत अंशों में आप पर न्यौछावर करने में कुछ खास बड़ाई नहीं है। इस सच्चाई को हम सभी जानते हैं। पर आपकी सेवा करने की चाहत मन-अन्तःकरण में इतनी बलवती हो उठी है कि आपके लिए संकल्पित होने से अपने-आपको किसी भी तरह से रोक नहीं पा रहे। हालाँकि यह संकल्प आपकी कुछ विशेष सेवा करने में तो क्या आपका थोड़ा बहुत ऋण चुकाने में भी अक्षम है। फिर भी ऐसा करने में आपके बालक होने का जो अहसास मिलता है, उसमें हमारे हृदय को प्रगाढ़ आनन्द की अनुभूति मिलती है। इस अनुभूति की व्याख्या कर पाने में विश्व की सभी भाषाओं के शब्दकोश मिलकर भी अक्षम हैं।

इस छोटे से जीवन में जो कुछ देखा-सुना है, उसमें से कुछ दृश्यों ने मन को बड़ी गहराई तक छुआ है। ऐसा ही एक दृश्य उभरता है कि एक ग्रामीण अंचल में एक माता चौके में खाना पका रही है। उसके इर्द-गिर्द खेलते हुए छोटे-छोटे बच्चे मनों में अपनी माँ को खुश करने की चाहत संजोये हैं। उनकी माँ जानती है कि उसके ये बच्चे इतने छोटे हैं कि कोई विशेष काम नहीं कर सकते। फिर भी उनका मन रखने के लिए वह उनसे कभी चिमटा-सड़सी, कटोरी-गिलास जैसा कोई छोटा-मोटा बर्तन माँग लेती है। और कभी कोई दूसरी छोटी सी चीज इधर से उधर रखने को कहती है। बच्चों के ऐसे करने में माता के श्रम में कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। उसे जो और जितना करना है, वह उतना ही करती है। कभी-कभी तो उल्टे बच्चों की उलट-पुलट से उसके कई काम और बढ़ जाते हैं। परन्तु अपनी माता के प्रति उमड़ते हुए प्यार को छलकाते हुए छोटे बच्चे जब अपने नन्हें कदमों से चलकर छोटे-छोटे हाथों से कोई हल्की-फुल्की चीज माँ को सौंपते हैं, तो उनकी उस खुशी का वर्णन करना किसी भी लेखक या कवि के बूते का नहीं होता। बच्चों की यह खुशी देखकर माता भी परम प्रसन्न हो उठती है।

बस माँ! हम सब के संकल्प में समायी भावना भी कुछ ऐसी है। जिस मिशन को स्वयं आप महाशक्ति विश्वमाता संचालित कर रही हैं, उसमें भला कब? कहाँ? क्या? और कैसे कोई कमी पड़ेगी। जिसकी जड़ों में युगावतार परम पूज्य गुरुदेव ने अपने अनन्त तप की समूची ऊर्जा उड़ेल रखी हैं, उसके विकास में भला क्यों किसी तरह के व्यवधान आएँगे? माता भगवती महाकाली और पिता भगवान् महाकाल के संरक्षण में सुरक्षित-संरक्षित इस मिशन को वक्र दृष्टि से देखने की हिम्मत सामान्य मनुष्य तो क्या शनि, राहू, केतु जैसी वक्री और क्रूर कही जाने वाली शक्तियाँ भी नहीं कर सकती। इस समस्त सच्चाई को जानते हुए भी हम सब तो बस अपनी आकुल-व्याकुल भावनाओं को आपको अर्पित करना चाहते हैं।

हममें से हर एक को याद है कि आप अपने जीवन काल में कहा करती थीं कि यह समूचा मिशन आपका और परम पूज्य गुरुदेव का शरीर है। आपने कहा था कि जब हम लोग (आप और गुरुदेव) न रहेंगे तो इस मिशन के व्यापक विस्तार में हमें देखा और अनुभव किया जा सकता है। हम सबके सम्मिलित संकल्पों में यही अनुभूति निहित है। आपके जीवन काल में हममें से अनेकों को आपके निकट रहने का अवसर नहीं मिला है। हममें से बहुतेरे चाहकर भी आपकी कोई निजी सेवा नहीं कर पाए हैं। बस उसी कमी को हम सब इस दैवी मिशन की सेवा करके पूरा करना चाहते हैं। इसके लिए हम सब जो धन, श्रम एवं मनोयोग लगाएँगे, उससे हमें आपकी निजी सेवा करने का सुख मिलेगा। अपने विगलित हृदयों से हम सब याचना करते हैं- करुणामयी माँ! हमारी इन सेवाओं को इसी रूप में स्वीकार करिएगा।

आपके हम सब पुत्र-पुत्रियों में कितनी योग्यता है, मालूम नहीं। पर हमारी इतनी योग्यता तो सुनिश्चित है ही कि हम सब जो हैं, जैसे हैं, आपके और केवल आपके हैं। हम सबके सम्मिलित संकल्प इसी मूल भावना की भूमि पर अंकुरित हुए हैं। हममें से हर एक को पता है कि आप सर्वान्तर्यामी हैं। हमारे हृदयों की प्रेरक शक्ति हैं। बिना कुछ भी कहे, बताए या जताए आप सभी कुछ जानने में, अनुभव करने में समर्थ हैं। फिर भी आपकी भावनाओं की तृप्ति के लिए आपको साक्षी मानकर, आपके सामने हम सब निम्न सत्यों के परिपालन हेतु संकल्पित होते हैं-

1. हम सब सदा से आपके हैं और मन-वाणी, कर्म और सम्पूर्ण अन्तःकरण से सदा ही आपके बनें रहेंगे।

2. हे दिव्य जननी! हम सब आपके दिव्य बालक-बालिकाएँ बनने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे। अपने मन-वचन और कर्म से ऐसा कोई काम न होने देंगे जो आपकी आन-बान और शान के अनुकूल न हो।

3. आप हमारी माँ हैं और हम सब आपकी सन्तानें। हम अपना पारस्परिक जीवन इन्हीं भावनाओं के अनुरूप जियेंगे। किसी के प्रति भी कोई कलुषित विचार अथवा ईर्ष्या-द्वेष को स्थान न देंगे। यदि किसी से भूलवश कोई गलती हो भी गयी तो भी उसे आपका स्मरण करते हुए प्रीति भाव से क्षमा करेंगे।

4.इस सम्पूर्ण मिशन को आपके दिव्य शरीर के रूप में अनुभव करेंगे। इसके प्रति सदा ही पुण्य भाव रखते हुए अपने धन-श्रम एवं प्रतिभा को यथाशक्ति अर्पित करते रहेंगे।

बस माता! हमारे ये चार संकल्प हम सबके पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतीक हैं। इस चतुर्विध पुरुषार्थ का एकमात्र उद्देश्य आपके कृपापूर्ण सान्निध्य को पाना है। एक बार एक कार्यकर्त्ता के यह पूछने पर कि माताजी क्या आप हमसे पूरी तरह से परिचित हैं? उत्तर में आपने हँसते हुए कहा था-बेटा! मैं तेरी रग-रग से वाकिफ हूँ। मैं यह भी जानती हूँ कि तू पैदा होने के पहले कहाँ-किस स्थिति में था। आगे अभी क्या-क्या नादानियाँ और शैतानियाँ करेगा और फिर इस शरीर के बाद कहाँ जाएगा? इस पर उसने तपाक से पूछा-कहाँ जाऊँगा माताजी? ‘और कहाँ जाएगा? घूम-फिरकर मेरे ही पास-मेरी ही गोद में तो आएगा।’ इसके बाद कुछ देर चुप रहकर आप बोली थीं कि “इस मिशन से जुड़े हुए तुम सब लोगों को मैंने ही जन्म दिया है। अपनी ओर इंगित करते हुए आपने बताया था कि इस स्थूल देह की तो सीमा है इसीलिए मैंने तुम सब लोगों को अलग-अलग घरों में पैदा किया है, पर तुम सबकी असली माँ मैं ही हूँ।”

“जैसे-जैसे तुम लोग बड़े होते जाते हो मैं तुम्हें अपने पास बुला लेती हूँ। अभी तुम लोग आए हो आगे मेरे और बेटे-बेटियाँ आयेंगे। तुम लोगों ने मुझे इस रूप में देख लिया, हो सकता है वे लोग न देख पाएँ। पर इससे क्या उन सबकी माँ भी तो मैं ही हूँ। मैंने ही सबको जन्म दिया है और अन्त में सभी को मेरे ही पास आना है। मेरी ही गोद में, मेरे ही दिव्य धाम में।” हे माता! आपकी वाणी के अनुरूप हमारे सभी संकल्पों का लक्ष्य भी यही है। हम जब तक जीवित रहे, इस मिशन को आपका दिव्य स्वरूप मानकर इसकी सेवा करते रहे और जब हमारी देह पंचतत्त्वों में विलीन हो तो हमारी अन्तर्चेतना आपमें विलीन हो जाए। बिना किसी भटकाव के आपकी ओर बढ़ते रहे-चलते रहे-चलते रहे, हमें ऐसी शक्ति-भक्ति और प्रगाढ़ अनुरक्ति दो हे माँ! अन्त में आपके पावन स्मरण के साथ आपको कोटि-कोटि नमन और अपना आन्तरिक समर्पण।

ॐ श्री भगवतीदेर्व्यपणमस्तु!


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