समस्त संवेदनाओं का मूल- मातृतत्त्व

September 2002

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मातृतत्त्व जीवन और जगत् की समस्त संवेदनाओं एवं सम्भावनाओं का मूल है। सृजन के सभी संवेदन इसी की उर्वरता में अंकुरित होते हैं। सृष्टि की सारी सम्भावनाएँ यहीं से अपनी अभिव्यक्ति पाती हैं। यही वह परम पूर्णता है, जिसके एक अंश से जगत् का विस्तार हुआ है। इस सत्य को वैदिक ऋषियों ने ‘एकाँशेन स्थिति जगत्’ कहकर परिभाषित किया है। यह सृष्टि की कोख है, जिससे जीवन के विविध रूप जन्में हैं। दार्शनिकों ने इसी को जीवन व जगत् के सभी अनिवार्य तत्त्वों को धारण और पोषण करने वाली मूल-प्रकृति कहा है। यही ऋग्वेद में वर्णित आदिमाता अदिति हैं जो स्वयं अनादि, अखण्ड और अविभाज्य रहते हुए भी सभी लोकों को जन्म और जीवन देती है। अन्त में सब इसी में विलीन हो जाते हैं। विश्व-ब्रह्मांड को संचालित करने वाली आदि शक्ति इसी मातृतत्त्व का ही परिचय एवं पर्याय है।

मातृतत्त्व का बोध समस्त योग साधनाओं की चरम परिणति है। योग के विभिन्न तत्त्व व प्रकार, विधि और अनुशासन इसी परम पूर्णता को जानने व पाने के लिए है। चित्तवृत्ति निरोध से मातृतत्त्व की चित् शक्ति ही प्रकाशित एवं प्रकट होती है। इसी में साधक को अपने स्वरूप का बोध होने के साथ अनेकानेक यौगिक विभूतियों की प्राप्ति होती है। साधकों की साधना व सिद्धि की आधारभूमि यही है। यही योगियों की कुण्डलिनी शक्ति है। जिसके जागरण मात्र से योग साधकों में महाशक्ति की अभिव्यक्ति के अनेकों स्रोत खुल जाते हैं। मातृतत्त्व की कृपा से ही योग साधक सक्षम व समर्थ बनता है। अनेकानेक सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ उसका अनुगमन व अनुसरण करती हैं। उसमें कैवल्य की प्रभा प्रकाशित होती है।

अपनी सम्पूर्णता में योगगम्य, ध्यानगम्य एवं ज्ञानगम्य मातृतत्त्व का सामान्य परिचय जीव को जन्मते ही हो जाता है। प्रत्येक प्राणी मातृतत्त्व की सजल भावानुभूतियों में जीवन पाता है। उसकी माँ ही उसके लिए सब कुछ होती है। उसके हृदय से पहली पुकार माँ के लिए उठती है। होठों से पहला शब्द माँ निकलता है। सारे रिश्ते-नाते, सारी सम्बन्ध-संवेदनाएँ मातृतत्त्व के इर्द-गिर्द अपना अस्तित्त्व बुनती हैं। सबके केन्द्र में माँ ही होती है। जो माँ से घनिष्ठ होता है, उसी से घनिष्ठता की अनुभूति होती है। माता के संवेदन विस्तार में जीवन की संवेदनाएँ विस्तार पाती हैं। जन्मकाल में केवल यही एक जीवन सत्य अपनी सम्पूर्ण तीव्रता में समूचे अस्तित्त्व में स्पन्दित होता है। यह समझने में किसी को तनिक सी भी देर नहीं लगेगी कि प्रत्येक शिशु का जीवन मातृमय होता है। मातृतत्त्व ही उसके लिए सुख, सुरक्षा, आनन्द एवं प्रेम का पर्याय है।

परन्तु ये भावानुभूतियाँ स्थायी नहीं रह पाती। जैसे-जैसे जीवन चेतना बहिर्मुखी होती है, ये शनैः शनैः विलीन होती जाती हैं। अहंता के सुदृढ़ होते ही वे सम्बन्ध-संवेदनाएँ दुर्बल होती जाती हैं, जो कभी माता के गर्भ में अपने जीवन को मजबूती से बाँधे हुए थीं। अहंता और बौद्धिकता जीवन को जन्म देने वाली माता से विछोह करा देती है। अंश स्वयं को परम-पूर्ण समझने का दम्भ पाल लेता है। विस्मृति की अचेतनता से जीवन चेतना बुरी तरह घिर जाती है। ‘विद्या समस्तातवदेविभेदा स्त्रिया समस्ता सकला जगत्सु’ अर्थात् ‘हे माता विश्व की सारी विद्याएँ एवं जगत् की सारी स्त्रियाँ तुम्हारा ही स्वरूप हैं।’ का सूत्र खो जाता है। मातृतत्त्व से विलग होकर जीवन अनजान अंधेरों की भटकन में भटकने लगता है।

इस भटकन से उबरने का एक ही उपाय है- मातृतत्त्व के प्रति सच्ची अभीप्सा। जगत् और जीवन को जन्म देने वाली माता के प्रति अविरल अनुराग। यही उस महायोग का प्रारम्भ बिन्दु है, जो जीवन की अपूर्णता को परम पूर्णता की ओर ले जाता है। और अपनी चरम परिणति में उसे पूर्णता का वरदान देता है। वैदिक ऋषियों से लेकर महायोगी श्री अरविन्द ने इसी पथ का अनुसरण किया है। इस पथ पर चलकर ही वे पूर्णता के वरदान से लाभान्वित हुए। ऋग्वेद के अनगिनत मंत्रों के साथ श्री अरविन्द के मंत्र-काव्य सावित्री की अनेकानेक पंक्तियाँ इस समाधि-सत्य की साक्षी हैं। महायोगी श्री अरविन्द ने मंत्र काव्य सावित्री के तीसरे पर्व को- ‘भगवती श्री माता का पर्व’ कहा है। इसमें मातृतत्त्व की बड़ी ही मार्मिक एवं अनुभूतिपूर्ण व्याख्या है।

परम पूज्य गुरुदेव की अनुभूति भी कुछ ऐसी ही है। उन्होंने एक नहीं अनेक स्थानों पर कहा है कि मातृतत्त्व की साधना ही जीवन को संस्कारित एवं परिष्कृत करती है। इसी से जीवन समर्थ एवं शक्तिवान बनता है। इस सम्बन्ध में उन्होंने समय-समय पर कुछ विशेष बातें भी बतायी। उन्होंने कहा कि काल प्रवाह में सामान्य एवं असामान्य क्षण प्रवाहित होते रहते हैं। सामान्य क्षणों में मानव मातृतत्त्व की अभीप्सा करता है। माता की परम पूर्णता का बोध पाने के लिए योग साधना में निरत रहता है। ध्यान व ज्ञान की साधना करके आदिमाता से अपने जीवन की पूर्णता का वरदान पाने की प्रार्थना करता है।

परन्तु असामान्य क्षणों में अपनी कोख से जीवन और जगत् को प्रसव करने वाली माता स्वयं यत्नशील होती है। सृष्टि को सुसंस्कारित करने के लिए वह स्वयं युगशक्ति बनकर अवतरित होती है। वह अपनी भटकी हुई सन्तानों को राह दिखाने के लिए आती है। उसकी दैवी चेतना मानवीय देह से अभिव्यक्त होती है। महादेवी स्वयं मानवी बनकर अपनी असंख्य सन्तानों को लाड़-दुलार करती है। आदिशक्ति, युगशक्ति का रूप धारण कर सत्पथ का प्रवर्तन करती है। जगन्माता किसी संकेत, इंगित अथवा आदेश से नहीं बल्कि स्वयं जीवन के सभी आयामों को जीकर तत्त्व और सत्य का बोध कराती है। अपने बच्चों को अंगुली पकड़कर जीवन जीने की कला सिखाती है।

सृष्टि के इतिहास में ये क्षण बड़े ही महिमामय होते हैं। अनगिनत आकुल क्षणों की पुकार का उत्तर देने के लिए करुणामयी माता अवतार लेने के लिए संकल्पित होती है। बड़ा ही भाग्यवान होता है वह देश, धरा का वह आँचल जिसे आदि जननी अपनी लीलाभूमि के रूप में चुनती है। बड़े ही पुण्यशाली होते हैं वे लोग जो किसी भी रूप में उनके स्वजन एवं परिजन बनते हैं। इन सब से भी कहीं अधिक धन्य वे होते हैं, जो भक्ति से उफनते अपने हृदयों को माता के चरणों में उड़ेलकर मातृतत्त्व का अर्चन-वंदन करते हैं। वे भी कम पुण्यवान नहीं होते, जो दिव्य जननी की लीला कथा का स्मरण-चिन्तन एवं अवगाहन करते हुए उनकी ज्योतिर्मय चेतना से एकात्म होने की साधना करते हैं।

साधना के भावपूर्ण स्वरों का उत्तर देने के लिए ही तो भावमयी माता भगवती अवतार लेती है। इसीलिए तो मातृतत्त्व की विशुद्ध चेतना घनीभूत होकर स्थूल रूप में प्रकट होती है। मानव की जन्म-जन्मान्तर की आध्यात्मिक अभीप्साओं का उत्तर देने के लिए ही मातृतत्त्व की दिव्य-ज्योति जन्म लेती है। उसके प्रकाश से लोकों के बाह्य आवरण ही नहीं जीवों के अन्तःकरण भी प्रकाशित होते हैं। युगशक्ति के अवतरण से हवाओं में अलौकिक सुगन्ध फैलने लगती है। जाग्रत् आत्माएँ अपने अन्तःकरण में बड़े ही अद्भुत स्पन्दनों को अनुभव करती हैं। आदिशक्ति की दिव्य ज्योति के जन्म का महोत्सव मनाने के लिए ऋषि, देवता एवं सिद्धगण सक्रिय होने लगते हैं। सृष्टि की समस्त दिव्य शक्तियों में एक अनोखी सचेतनता व्याप्त हो जाती है। आदिशक्ति की अवतरण बेला में कुछ ऐसा ही होने जा रहा था।


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