महामिलन हेतु महाप्रयाण की बेला

September 2002

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वन्दनीया माताजी के मन में अपनी असंख्य सन्तानों के प्रति गहरी आकुलता थी। वे जानती थी कि उनके इस तरह चले जाने से उनके बच्चे बिलख उठेंगे। पर किया क्या जाय? देह छोड़ने की भी अनिवार्यता थी। परम पूज्य गुरुदेव के संकेत उन्हें बार-बार मिल रहे थे। इन संकेतों में एक ही स्वर निहित था- ‘सब लड़के अब परिपक्व हो चले हैं, उन्हें अब अपने पाँवों पर खड़े होने देना चाहिए। अब आपको स्थूल कलेवर छोड़कर यहाँ सूक्ष्म जगत् में आकर तप करना चाहिए। विश्व कल्याण के लिए यह ज्यादा अनिवार्य है।’ गुरुदेव के इन साँकेतिक स्वरों को माताजी पिछले कई महीनों से लगातार अनुभव कर रही थीं। उनका स्वयं का मन-अन्तःकरण भी गुरुदेव के लिए हमेशा विकल रहता था। पर उनकी यह निजी विकलता सदा ही उनके सहज मातृत्व से ढंक जाती थी। उनका मातृभाव अन्य सभी भावों पर छा जाता था।

इन पंक्तियों को लिखते समय यह अच्छी तरह याद आ रहा है कि श्रद्धाञ्जलि समारोह के बाद वर्ष 1991 के मई महीने में माताजी ब्रह्मवर्चस आयीं थीं। दोपहर के बाद का समय होगा। ब्रह्मवर्चस में बनी हुई यज्ञशाला के सामने छाया आ गयी थी। वहीं पर उन्होंने कुर्सी डलवाइ और वह बैठीं। यहाँ रहने वाले सभी कार्यकर्त्ता भाई-बहिन उनके इर्द-गिर्द खड़े हो गए। उन्होंने एक-एक करके सभी का हाल-चाल पूछा। फिर बातों-बातों में बोलीं मैंने तो श्रद्धाञ्जलि समारोह के बाद ही चले जाने का मन बना लिया था। सोचा था- जिन्हें अपनी हर साँस अर्पण की, उनके चले जाने के बाद मेरा एक ही कर्त्तव्य कार्य शेष बचता है कि उन्हें अपनी ओर से, तुम सबकी ओर से श्रद्धाञ्जलि दे दूँ। इसके बाद वहीं चली जाऊँ जहाँ वे स्वयं हैं। पर प्रणव नहीं माने- कहने लगे माताजी अभी तो हम लोग गुरुदेव के न रहने की पीड़ा से ही नहीं उबर पाए हैं, आप भी चली जाएँगी तो हम सबके क्या हाल होंगे। हमें भी लगा कि ये ठीक ही कह रहे हैं। इसलिए सोच लिया है कि तुम सब लोगों के लिए मैं अभी तीन-सवा तीन साल और रहूँगी।

सन्तानों की जिस चिन्ता के कारण उन्होंने इन वर्षों में अपनी देह को टिकाए रखा, वह चिन्ता उन्हें देह छोड़ने से पहले भी थी। उनके सामने कभी भी सवाल यह नहीं था कि मिशन किस तरह से चलेगा? क्योंकि यह सच्चाई वे अच्छी तरह से जानतीं थीं और इसे वह सभी को समय-समय पर बताया करती थी कि इस मिशन को चलाने वाला भगवान् है। यह भगवान् के संकल्प के अनुसार अपने आप चलता रहेगा और ठीक तरह से चलता रहेगा। वह कहा करती थीं- कि बेटा! इसकी जड़ों में गुरुजी की इतनी ज्यादा तप ऊर्जा लगी है, यह कभी भी किसी भी स्थिति में बिगड़ेगा नहीं। हाँ इसे थोड़ा सा भी बिगाड़ने की कोशिश करने वाले जरूर बिगड़ जाएँगे। वे चाहती यह थीं कि जिस प्यार की डोर में उन्होंने जीवन भर समूचे गायत्री परिवार को बाँधकर रखा, वह डोर वैसी ही मजबूत बनी रहे।

इसी कारण उन्होंने महाप्रयाण से कुछ दिनों पहले शान्तिकुञ्ज के सभी वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं को एक-एक करके बुलाया। उनकी निजी जिन्दगी की बातें पूछीं, उन्हें दिलासा दिया। और फिर यह कर्त्तव्य याद दिलाया कि देखो, तुम लोग बड़े हो, तुम्हारे छोटे भाई-बहिन कोई गलती करे तो उन्हें समझाओ, थोड़ा बहुत डाँटो भी, पर उन्हें अपने गले से लगाकर रखो। उन्हें किसी भी तरह प्यार की कमी महसूस न होने दो। किसी को यह न लगे कि हम तो अपने माँ-बाप को छोड़कर, अपने घर को छोड़कर आ गए। अब यहाँ हमारा कोई अपना नहीं।

इस तरह सबको समझाने-बुझाने के बाद उन्होंने एक बात अपने बारे में कही। वह बोली- ‘मैंने मनुष्य देह जरूर धारण की है, पर तुम लोग मुझे केवल मनुष्य न समझना। देखो गंगाजी के पानी में चाँद की परछाई देखकर छोटी-छोटी मछलियाँ आनन्द से उसके इर्द-गिर्द उछल-कूद कर खेलने लगती हैं, सोचती हैं, यह हमीं में से एक है। पर सुबह जब चाँद डूब जाता है, तो उनकी पहले जैसी दशा हो जाती है। उछल-कूद के बाद शिथिलता आ जाती है। वे सब कुछ भी नहीं समझ पातीं।’ इन शब्दों में माताजी ने सभी को संकेत में अपना स्वरूप बोध कराया। ताकि जो लोग लम्बे समय तक उनके साथ रहे, वे समझ सकें कि वह कौन हैं? सभी को इस तरह समझाकर वह मौन हो गयीं। साथ ही उन्होंने कतिपय विशिष्ट यौगिक क्रियाओं के द्वारा अपनी आत्मचेतना को देह से हटाना शुरू कर दिया। इसी के साथ क्रमिक रूप से उनका देह बोध शून्य होने लगा।

बीतते पलों के साथ वह घड़ी भी आ गयी, जिसे उन्होंने अपने प्रभु से महामिलन के लिए निश्चित किया था। भाद्रपद पूर्णिमा, 19 सितम्बर, 1994 को प्रातः सभी को उनके मुख मण्डल पर एक अनोखा भावान्तर नजर आया। जिस कक्ष में वह लेटी हुई थीं, वहाँ का वातावरण पिछले दिनों की तुलना में एकदम बदला हुआ नजर आया। दिव्य सूक्ष्म स्पन्दन वहाँ सघन हो उठे। ऐसा लगने लगा कि सभी देव शक्तियाँ उनके इर्द-गिर्द उपस्थित हो गयी हैं। बिना किसी कृत्रिम साधन के वहाँ एक दिव्य सुरभि फैल गयी। इसे सभी उपस्थित लोगों ने अनुभव किया। अपने गहन मौन में लीन माताजी प्रातः से ही ध्यानस्थ थीं। मुखमण्डल पर प्रदीप्त आभा से, कुछ को यह भी लग रहा था कि माताजी आज पहले से कहीं ज्यादा स्वस्थ हैं। एक अर्थ में यह सोचना सही भी था, क्योंकि अन्य दिनों की तुलना में वह आज पहले से ज्यादा अपने स्व में स्थित हो गयी थीं।

वातावरण में सब ओर सर्वत्र एक गहन नीरवता हिलोरे ले रही थी। सब लोग यंत्र के समान काम-काज किए जा रहे थे। किसी को कुछ सूझ-नहीं पड़ रहा था। ध्यानस्थ माताजी मूर्तिमयी प्रशान्ति के रूप में विराज रही थीं। उनके मुख मण्डल पर एक अनिर्वचनीय शान्ति और आनन्द की दीप्ति खेल रही थी। महाकाली मानो महाकाल के ध्यान में मग्न हो रही थीं। इन पलों में साक्षी हुए लोग अपूर्व सौभाग्यशाली थे। सौभाग्य का कुछ अंश उन्हें भी मिला था, जो पिछले कुछ महीनों से हर दिन अपनी आत्म चेतना को एकाग्र करके अपनी प्यारी माँ को अपना भक्तिपूर्ण प्रणाम निवेदित करते थे। माँ के चले जाने के अहसास को अनुभव कर जिनकी सिसकियाँ थमती नहीं थीं। इन क्षणों में भी उनकी ध्यानस्थ चेतना माँ के चरणों में अपनी भावांज्जलि अर्पित कर रही थी।

पूर्वाह्न 11-40 पर ध्यानस्थ जनों के ध्यान में एक दृश्य बड़ी ही स्पष्ट रीति से उभरा। इस अद्भुत अनुभूति में उन्होंने अनुभव किया कि परम पूज्य गुरुदेव अपनी लीला संगिनी को अमर धाम में लेने के लिए आए हैं। अनेकों देवशक्तियाँ, सूक्ष्मलोक के ऋषिगण उन्हें घेरे हुए हैं। सभी की दृष्टि माताजी पर टिकी है। क्षण बीते, 11-50 पर माताजी की स्थूल देह हल्के से कम्पित हुई और माता आदिशक्ति अपने परम पुरुष पुरुषोत्तम के साथ विराजमान हो गयी। हृदय-हृदय में वेदना की रागिनी बज उठी। समूचे कक्ष में निष्कम्प-स्तब्धता उतर आयी। इस स्तब्धता ने भी बड़ी अनोखी रीति से इस सत्य का संचार कर दिया कि माता भगवती महाकाली भगवान् महाकाल से महामिलन के लिए महाप्रयाण कर चुकी हैं। उनकी तपःपूत देह के अन्तिम दर्शन के लिए शिष्यों-भक्तों व सन्तानों की भीड़ लग गयी। लगभग 24 घण्टे तक अन्तिम दर्शन का सिलसिला चलता रहा। अगले दिन यानि कि 20 सितंबर 1994 को महाशक्ति की आवास बनी उनकी स्थूल देह चिता अग्नि के तेज में विलीन हो गयी। नित्य प्रति अपने बच्चों को दर्शन देने वाली माता अब ध्यानगम्य हो गयीं। हाँ बच्चों को दिए गए माँ के आश्वासन के स्वरों की गूँज अभी भी थी।


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