महाशक्ति के दिव्य साधना स्थल के रूप में शान्तिकुञ्ज के निर्माण की परिकल्पना परम पूज्य गुरुदेव की दूसरी हिमालय यात्रा के समय ही तैयार हो गयी थी। उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने इसकी आवश्यकता एवं इस तरह के निर्माण की स्पष्ट रूपरेखा से उन्हें इस विशिष्ट अवधि में अवगत करा दिया था। हिमालय की गहनताओं में युगों से तप कर रहे दिव्य देहधारी ऋषियों की सम्मति भी यही थी। गुरुदेव की यह दूसरी हिमालय यात्रा (1960-61) पहली बार की तुलना में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण थी। इस बार उन्हें अपने मार्गदर्शक के साथ हिमालय की दिव्य ऋषि सत्ताओं के न केवल दर्शन मिले, बल्कि उनसे चिन्तन परामर्श का विशेष अवसर मिला। विश्व वसुधा के विभिन्न घटनाचक्रों एवं इसकी भावी नियति पर विशेष चर्चा हुई। भारत भूमि के संकटापन्न वर्तमान एवं इसके दीर्घकालिक उज्ज्वल भविष्य का उन्हें दर्शन कराया गया। साथ ही इस सम्बन्ध में उनकी भूमिका निर्धारित की गयी।
इसी समय यह भी निर्धारण किया गया कि आगामी दिनों गुरुदेव की यह भूमिका पूरी तरह से परोक्ष होगी। जीवन के साठ वर्ष पूरा होने के बाद वे हिमालय के ऋषितन्त्र के साथ मिलकर गहन आध्यात्मिक प्रयोग करते हुए धरती के नवीन भाग्य एवं भविष्य के निर्माण हेतु प्रयत्नशील रहेंगे। प्रत्यक्ष दायित्व महाशक्ति के रूप में माताजी स्वयं सम्हालेंगी। इस प्रत्यक्ष दायित्व को पूरी तरह से सम्हालने से ही उनके अवतार कार्य का प्रारम्भ और विस्तार होगा। उनके इस कार्य के लिए मथुरा बहुत अधिक उपयुक्त स्थान नहीं है। महाशक्ति ने अपनी हर अवतार लीला में हिमालय की सुरम्य छाँव एवं गंगा तट को ही तपस्थली के रूप में चुना है। इस बार भी यही ठीक होगा। वह जिस भूमि को अपने दिव्य साधना स्थल के रूप में चुनेंगी, वही स्थान भविष्य में सम्पूर्ण विश्व के लिए ऊर्जा अनुदान का केन्द्र बनेगा। अपने इस निर्धारण में ऋषितन्त्र ने यह भी स्पष्ट किया- इस युग के लिए विधि ने जो युग प्रत्यावर्तन का विधान रचा है, उसमें केन्द्रीय भूमिका महाशक्ति स्वयं निभाएँगी। ऋषिगण एवं दिव्य लोकों की देव शक्तियाँ उनका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में सहयोग करेंगे।
हिमालय के ऋषितन्त्र के निर्धारण के अनुरूप गुरुदेव ने आवश्यक कार्य योजना बनाते हुए अपनी तपश्चर्या की अवधि पूरी की और उन दिव्य विभूतियों से अनुमति लेकर मथुरा वापस लौटे। आगामी हिमालय यात्रा से पहले उन्हें यहाँ के बहुत सारे काम पूरे करने थे। घर-परिवार की जिम्मेदारियों के साथ गायत्री तपोभूमि की व्यवस्था को भी चुस्त-दुरुस्त बनाना था। वापसी पर माताजी से वह कुछ ज्यादा विस्तार से बता पाते-इसके पहले ही उन्होंने कह दिया- कि “मुझे आपका और हिमालय में तपस्यालीन पूज्य ऋषियों का प्रत्येक आदेश स्वीकार है।” गुरुदेव जानते थे कि माताजी उनकी अन्तर्चेतना में होने वाली प्रत्येक हलचल एवं स्पन्दन को अपने अन्तःकरण में अनुभव करती रहती हैं। इसलिए बिना बताए माताजी के सब कुछ समझ जाने पर उनको तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ। परन्तु इस पर उन्हें थोड़ा अचरज जरूर हुआ कि वे मथुरा में फैले अपने ममता के धागों को इतनी तेजी समेटने के लिए कैसे तैयार हो गयीं?
हालाँकि वे अच्छी तरह से जानते थे कि माताजी महाशक्ति हैं। उनमें ममता की शक्ति है तो दृढ़ता की शक्ति भी है। वह भावस्वरूपा हैं, तो संकल्पमयी भी हैं। शक्ति के जितने भी स्वरूप हैं, सब उनकी आत्मचेतना में समाहित हैं। जीवन के विविध रूप उन शक्तिमयी का स्पर्श पाकर अपने आप ही शक्ति स्रोत में बदल जाते हैं। ममतामयी की अगाध ममता में दुर्बलता का कोई नामो-निशान नहीं है। न वे स्वयं कभी दुर्बल होती हैं और न ही अपने बच्चों को दुर्बल होते हुए देखना चाहती हैं। माताजी के इस स्वरूप-सत्य से सुपरिचित गुरुदेव ने नयी दिशा में सोचना शुरू कर दिया। उनकी दैवी योजना को पूरा करने के लिए देव शक्तियाँ स्वयं उपयुक्त पात्रों को जुटाने लगी थीं। चार-पाँच वर्षों में ही गायत्री तपोभूमि को सम्हालने व भली प्रकार चलाने के लिए पं. लीलापत शर्मा, वीरेश्वर उपाध्याय, द्वारका प्रसाद चैतन्य आदि समर्पित व सुपात्र कार्यकर्त्ताओं की टीम आ जुटी। इन सभी लोगों के लिए गुरुदेव व माताजी आराध्य थे। उनकी प्रत्येक इच्छा हर रूप में उन्हें स्वीकार थी। विदाई सम्मेलन का विराट व्यवस्था तंत्र भी इन सबने संभाल लिया। यह 17 से 20 जून 1971 में होना था।
यहाँ की भावी व्यवस्था का ढर्रा बैठ जाने के बावजूद अभी भविष्य के कार्य के लिए उपयुक्त स्थान को क्रय करना बाकी था। यद्यपि ध्यानस्थ भावदशा में गुरुदेव एवं माताजी दोनों ने ही देवभूमि हरिद्वार में स्थित विशिष्ट स्थान को पहचान लिया था। उन दोनों ने यह भी जान लिया था कि हजारों वर्षों पूर्व इसी दिव्य भूमि में कहीं देवमाता गायत्री युगशक्ति के रूप में तपोनिरत महर्षि विश्वामित्र के अन्तःकरण में अवतरित हुई। माता गायत्री के इस अवतरण ने ही महर्षि विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि बनाया था। इस दिव्य स्थल पर उन्होंने पुञ्जीभूत आध्यात्मिक आलोक को उफनते-उमड़ते और फैलते हुए देखा था। परन्तु ध्यान की प्रगाढ़ता में अनेकानेक आध्यात्मिक अनुभूतियों को स्फुरित करने वाली यह जगह हरिद्वार में ठीक-ठीक कहाँ है? यह जानना अभी बाकी था।
इसे जानने के लिए गुरुदेव ने अपनी यात्रा की तैयारी की। माताजी के अनुरोध पर वह वह अपने बड़े पुत्र ओमप्रकाश से गुड़गाँव में मिलते हुए गाजियाबाद आए। यहाँ उनके बड़े जामाता रामेश्वर उपाध्याय रहते थे। उपाध्याय जी ने अपने देवतुल्य श्वसुर को आते हुए देखकर उनका आगे बढ़कर स्वागत किया। उस समय उनके हाथों में एक छोटा बिस्तर और लोहे की सन्दूकची थी। गुरुदेव ने अपनी सन्दूकची खोलकर उन्हें माताजी द्वारा भेजी हुई कुछ छोटी-मोटी चीजें सौंपी। और आगे के कार्यक्रम के बारे में बातें की। सारी बातों को सुनकर उपाध्याय जी उनके साथ हो लिए। शाम की ट्रेन से दोनों ने हरिद्वार के लिए प्रस्थान किया। हरिद्वार पहुँचकर ये दोनों लोग हर की पौड़ी और भीमगोड़ा के बीच गंगा के सामने वाली धर्मशाला में ठहरे। बाद में उन्होंने अनेक एजेन्टों से मिलकर कई जगहों को देखा।
इन जगहों को देख लेने के बाद गुरुदेव ने इन लोगों से सप्त सरोवर के पास कोई जमीन बताने के लिए कहा। उनकी इस बात पर पहले तो इन एजेन्टों ने हरिद्वार शहर से इतनी दूर की जमीन के बारे में काफी परेशानियाँ बतायीं। बाद में दबाव देने पर वे उन्हें लेकर सप्तसरोवर के पास पहुँचे। सप्तसरोवर से थोड़ी दूर चलने पर गुरुदेव ने उस स्थान को पहचान लिया, जिसे उन्होंने माताजी के साथ अपनी साधना की प्रगाढ़ दशा में अनुभव किया था। यद्यपि जमीन की दृष्टि से यह जगह ठीक नहीं थी। यह भूमि काफी दलदली थी। एक छोटा पहाड़ी झरना भी इसके बीच में बह रहा था। जब उन्होंने इस जमीन को पसन्द किया, तो जमीन बिकवाने वाला एजेण्ट उनका मुँह देखता रह गया। उसने काफी कुछ उन्हें समझाने की कोशिश की। पर गुरुदेव ने उसकी कोई बात ध्यान देकर नहीं सुनी। क्योंकि वह उस समय भी अपनी दिव्य दृष्टि से इस भूमि में सघनता से छाए हुए आध्यात्मिक प्रकाश को देख रहे थे। उन्होंने एजेण्ट से केवल इतना कहा- “कि हमें यही जमीन लेनी है, आप इसके लिए उपयुक्त व्यवस्था करें।”
उनके इस तरह से जोर देने पर निश्चित समय जुलाई 1968 में यहाँ की डेढ़ एकड़ जमीन 19 हजार रुपये में खरीद की गयी। यहीं पर बाद में महाशक्ति की दिव्य साधना स्थली गायत्री तीर्थ को अवतरित होना था। जमीन खरीदने के थोड़े समय बाद यहाँ पर प्रारम्भिक निर्माण कार्य शुरू हो गया। गुरुदेव बीच-बीच में आकर यहाँ की व्यवस्था देख जाते थे। साथ ही वे माताजी के साथ मथुरा की व्यवस्थाओं को भी अन्तिम रूप दे रहे थे। घर-परिवार की सभी जिम्मेदारियाँ भी इसी समय निबटायी जानी थी। इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले पुत्र सतीश (मृत्युँजय शर्मा) की शादी की। उन्हें “अखण्ड ज्योति संस्थान” का भार क्रमशः सौंपना आरम्भ कर दिया। बहू निर्मल ने आकर माताजी के गृहकार्य में सहयोग देना शुरू कर दिया। माताजी उसे घर की सारी जिम्मेदारियाँ सौंपने लगीं। समस्त व्यवस्थाओं व जिम्मेदारियों के अन्तिम चरण में पुत्री शैलो (शैलबाला) के लिए उन्होंने सुयोग्य, संस्कारवान वर की खोज कर ली। इस खोज के पीछे गुरुदेव-माताजी की गहन भविष्य दृष्टि थी। नियति के लेख में माताजी की पुत्री की शादी और उनके शान्तिकुञ्ज के प्रारम्भिक दिनों की शुरुआत लगभग एक ही समय होना लिखा था। शायद इसके पीछे महाशक्ति का स्वसंकल्प भी क्रियाशील था