माँ ने कहा था कि वे देह न रहने पर भी दूर न होंगी। उनके बेटे-बेटियाँ उन्हें पुकारते ही अपनी माँ के आँचल की छाया और छुअन को महसूस करेंगे। भावमयी जगदम्बा की पराचेतना की ही भाँति उनके आश्वासन भी शाश्वत, अमर और अमिट हैं। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक अवसरों पर अनेकों बातें कहीं थीं। जिनमें कुछ तो नितान्त, निजी और व्यक्तिगत हैं। लेकिन इनमें बहुत कुछ ऐसी है जो सार्वकालिक और सार्वभौम होने के साथ सबके लिए है। उनके प्रेम से छलकते इन स्वरों में हममें से हर एक के जीवन के लिए समाधान है। उनकी बातों को दुहराने और याद करने से पता चलता है कि हम सबको उन्होंने यूँ ही बिना किसी सहारे के नहीं छोड़ा। उनका प्यार-दुलार, ममता और सबसे बढ़कर उनकी समर्थशक्ति हम सबके साथ है। यहाँ तक कि वे स्वयं भी हमारे आस-पास ही हैं। इस सच्चाई को अनुभव करने के लिए हमें बस अपने दिल की गहराइयों से ‘माँ’ कहकर पुकारना होगा। यह एक अक्षर सृष्टि बीज है, मंत्रराज और महामंत्र है। इसे उन्होंने हम सबके लिए स्वयं जाग्रत् और चैतन्य किया है।
न जाने कितनी बार उन्होंने अपने श्रीमुख से कहा है- मैं कभी अपने बेटे-बेटियों को छोड़कर जाने वाली थोड़े ही हूँ। देह सबकी छूटती है, मेरी भी छूटेगी। देह का तो धर्म ही है पैदा होकर नष्ट होना, सो यह तो नष्ट होगी ही। पर इससे क्या मैं तो जैसी की तैसी बनी रहूँगी। तुममें से जब कभी कोई माँ! माँ!! कहकर बुलाएगा, तो मैं दौड़ी-भागी चली आऊँगी। अपनी बातों को समझाते हुए वह कहती थीं- अभी भी तुम लोग मुझे बुलाते हो तो मैं आती हूँ कि नहीं। तुम्हारे बुलाने पर मैं ही आती हूँ देह तो यहीं शान्तिकुञ्ज में पड़ी रहती है। अपनी देह की ओर इशारा करते हुए वह बताती- “यह देह है तो क्या? नहीं है तो क्या? इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। इसलिए तुममें से किसी को कभी भी इस बात की चिन्ता करने की कतई जरूरत नहीं है कि माताजी आज हैं, कल नहीं रहेंगी। अरे- माताजी आज हैं और हमेशा रहेंगी। माताजी तब भी थी जब यह देह नहीं थी, और माताजी तब भी रहेंगी जब यह देह नहीं रहेगी। जब हमारे बच्चे हमको बुलाएँगे, मैं भागकर आऊँगी।”
यह बुलाना कैसा होता है? माताजी! एक भक्त ने उनसे एक अवसर पर पूछा। इस बात को सुनकर वह हँसने लगीं और बोलीं- अपनी माँ को बुलाने के लिए कोई विधि-विधान भी होता है क्या? अरे बेटा? माँ तो अपने उस बच्चे की भी सारी बातें समझ लेती है, जो अभी बोलना भी नहीं जानता। तुमने देखा नहीं छोटे बच्चे जो बोलना भी जानते बस अपनी माँ की याद कर बिलख उठते हैं। उन्हें माँ को पुकारने का यही तरीका मालूम है। उनकी इस पुकार को कोई और समझे या न समझे पर माता समझती है। उनके इस तरह पुकारते ही, वह झटपट अपने हाथ के सारे काम छोड़कर दौड़ी आती है और बच्चे को गोद में उठा लेती है। अपने हृदय का सारा प्यार उस पर उड़ेल देती है। इन बातों को कहते हुए वह हँसकर बोलीं- ‘अरे बेटा! माता तो अपने उन बच्चों की बातों को भी समझ लेती है- जो गूँगे हैं, जो कभी बोल ही नहीं सकते। माँ को बुलाने के लिए कुछ और नहीं, बस दिल की तड़प चाहिए, भाव विह्वलता चाहिए। माँ और बच्चों का रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है बेटा!
अपनी सन्तानों पर हर पल प्राण न्यौछावर करने वाली माताजी अपने बारे में प्रायः चुप ही रहती थीं। कोई बात होने पर वह यही कहती- अच्छा बेटा! हम गुरुजी से कह देंगे। अथवा फिर यह कहा करती कि गायत्री माता से प्रार्थना करेंगे। लेकिन किन्हीं विरल क्षणों में अपने स्वरूप को खुलकर प्रकट भी कर देती थीं। ऐसा करने में सामने वाले की पात्रता कम उनकी कृपा ज्यादा होती थी। एक दिन ऐसा ही हुआ, यह बात सन् 1992 के अन्तिम दिनों की है। उस दिन दोपहर में मिलने वाले कुछ कम थे, सो वह जल्दी ही फुरसत पा गयी थीं। सबसे अन्त में एक कार्यकर्त्ता गया। कोई और था नहीं सो उसे बैठा लिया। वह भी माताजी के साथ कुछ क्षणों का संग लाभ पाकर खुश हो गया। खुशी के इन क्षणों में उसने अपने मन की बात पूछते हुए कहा- माताजी! मैंने अपनी पूजा स्थली पर कभी भी गायत्री माता की फोटो नहीं रखी। बस गुरुजी का और आपका चित्र लगा रखा है। आप दोनों में ही मैं सूर्य और गायत्री की, महाकाल और महाकाली की कल्पना करता हूँ। क्या यह ठीक है?
उत्तर में पहले तो वह चुप रही फिर बोलीं- तत्त्व की दृष्टि से समझ तो तेरी इस कल्पना में सच्चाई है। मुझे यदि केवल देह की दृष्टि से सोचो तो गायत्री माता और मुझमें फर्क है। पर यदि तत्त्व और सत्य की दृष्टि से सोचो तो कोई फर्क नहीं है। हालाँकि इस बात की अनुभूति के लिए गहरी साधना चाहिए। तू साधना करता रह- धीरे-धीरे तुझे सारी बातें समझ में आ जाएँगी। जो गुरुजी हैं- वही मैं हूँ। जो मैं हूँ वहीं गायत्री है। माताजी का यह कथन सुनकर सुनने वाला भाव विह्वल हो गया। काफी देर तो उसे सूझा ही नहीं, कि वह और क्या कहे? फिर धीरे से उसने पूछा- माताजी आपकी कृपा से अनगिनत लोगों के लौकिक कष्टों का निवारण होता है, पर क्या आपकी कृपा से जीव को मुक्ति भी मिलती है? इस सवाल को सुनकर वह जैसे आत्मलीन हो गयी और कहने लगीं- सब कुछ मेरी ही कृपा से होता है- संकट निवारण, स्वर्ग, मोक्ष सब कुछ मेरी ही कृपा से सम्भव है।
महाशक्ति के इन वचनों को ध्यान से सुनने के बाद भी पूछने वाले ने अपनी शंका के निवारण के लिए एक प्रश्न और किया- माताजी वेदान्त आदि शास्त्रों में लिखा है कि ज्ञान होने पर मोक्ष मिलता है। उत्तर में वह बोलीं- पर वह ज्ञान क्या मेरी कृपा के बगैर होता है? जब किसी जीव पर मेरी कृपा होती है- तभी ज्ञान होता है। फिर कहने लगीं- कभी तूने चण्डी पाठ नहीं किया है, पढ़ लेना उसमें लिखा है-
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाँ भवति मुक्तये। सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥ संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥ (देवी सप्तशती 1/57-58)
वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिए वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार बन्धन और मोक्ष की हेतु भूता सनातनी देवी और सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं।
देवी सप्तशती का हवाला देते हुए उस दिन माताजी ने अपने स्वरूप को अपने मुखारविंद से प्रकट कर दिया। उनके वचन सुनने वाले के कानों में अमृत घोल रहे थे। उसने बहुत हिम्मत जुटाकर एक अन्तिम प्रश्न किया- माताजी देवी सप्तशती माँ आदिशक्ति की चरित्रकथा है। इसे पढ़ने को एक उत्कट साधना माना जाता है। लाखों लोग प्रतिदिन इसका पाठ कर अपना मनोवाँछित पाते हैं। इसी तरह क्या आपके बच्चे आपकी जीवनकथा के पाठ को साधना के रूप में कर सकते हैं। हाँ बेटा! क्यों नहीं? फिर कुछ सोचते हुए वह बोलीं- “समय आने पर यह गाथा अपने आप प्रकट हो जाएगी। इसे पढ़ने वाले, इसके माध्यम से मेरा स्वरूप का चिन्तन करने वाले अपनी मानसिक चेतना को मेरी पराचेतना से बड़ी आसानी से जोड़ पाएँगे। मुझे पुकारने के लिए यह भी एक तरीका है। असली चीज मुझे पुकारना है। वह मेरी जीवन कथा के माध्यम से हो तो और ठीक है। कोई सिर्फ माँ! माँ!! कहकर बुलाए तो भी ठीक है।”
माताजी कहा करती थीं- ‘कैसे भी हो हम उन्हें पुकारना सीख जाएँ। वह कहा करती थीं- बच्चों, जीवन है तो परेशानियाँ भी आएँगी, संकट, मुसीबतें भी खड़ी होंगी। पर तुम लोग इससे घबराना नहीं। संकट कितने भी बड़े और विकराल हों, हमेशा याद रखना कि मेरी एक माँ है, जो हमेशा मेरे पीछे खड़ी है।’ माँ के इस आश्वासन के बाद भी क्या कोई हमारे लिए चिन्ता का कारण बचता है? उनका यह आश्वासन उनके लिए है जो उनसे कभी भी किन्हीं क्षणों में मिले हैं। और साथ ही उनके लिए भी है, जो उनसे कभी भी नहीं मिले। क्योंकि वह कहती थीं- मैं अपने उन बच्चों से भी परिचित हूँ, जो मेरी देह के न रहने पर यहाँ शान्तिकुञ्ज आएँगे। उनके प्रति मेरा प्यार उनसे कहीं ज्यादा होगा, जो मुझसे मिल चुके हैं। जो मेरे बाद में आएँगे, उन्हें मैं अपनी स्नेह छाया से पूरी तरह सुरक्षित-संरक्षित रखूँगी। जब वे मुझे याद करेंगे, तो मैं उन्हें उनका अभीष्ट प्रदान करूंगी। ऐसी करुणामयी माँ के प्रति भी उनकी नादान सन्तानों ने जाने-अनजाने कुछ भूलें की हैं, आज वे सब उन क्षमामयी के चरणों में क्षमा की याचना करते हैं।