विश्वमाता विश्वभर में फैले अपने बच्चों को प्यार-दुलार देने की तैयारियाँ करने लगीं। वैसे तो अकेला विश्व क्या अनन्त-अनन्त ब्रह्मांड उनके जाने-पहचाने थे। सूक्ष्म शरीर से उन्होंने अनेकों रहस्यमय यात्राएँ की थीं। बच्चों की प्रेम भरी पुकार पर दुनिया के किसी भी कोने में पहुँचना उनका स्वभाव था। कभी स्वप्नों के माध्यम से तो कभी ध्यान की भावदशा में वह अपनी सन्तानों के हृदय को अनोखी तृप्ति दिया करती थीं। हालाँकि यह सब वह सूक्ष्म शरीर से करती थीं। स्थूल देह से उन्होंने कभी कोई विदेश यात्रा न की थी। ऐसा करने की उनकी अपनी कोई चाहत भी न थी। प्रवासी परिजनों की बहुतेरी जिद के बाद उन्होंने इस विश्वयात्रा का मन बनाया था। इस यात्रा के बारे में उन्होंने हामी भरते हुए कहा- ‘मेरा मन तो नहीं है, पर बच्चे परेशान हैं, इसलिए सोचती हूँ एक बार जाकर उनसे मिल ही हूँ। उनका मन रह जाएगा।’
उनके इस तरह हाँ करने के बाद पासपोर्ट-वीज़ा आदि की विभिन्न सरकारी औपचारिकताएँ पूरी हुई। विदेशों में कार्यक्रम की तिथियाँ निश्चित हुई। इस क्रम में पहला अश्वमेध महायज्ञ इंग्लैण्ड के लेस्टर नामक स्थान में 8 से 11 जुलाई 1993 में आयोजित किया गया। 3 से 6 मई 1993 को भुवनेश्वर अश्वमेध का कार्यक्रम था। उसके बाद एक-डेढ़ महीने माताजी शान्तिकुञ्ज में रहीं। बाद में निर्धारित तिथि पर उन्होंने इंग्लैण्ड के लिए प्रस्थान किया। इंग्लैण्ड के परिजनों के लिए उनका पहुँचना स्वप्नों के सच होने जैसा था। उनकी उपासना की अनुभूति प्रत्यक्ष हो रही थी। बड़ी संख्या में वे सब उन्हें लेने के लिए हवाई अड्डे पहुँचे। वन्दनीया माताजी के जयघोष और परिजनों की श्रद्धा से भीगे नेत्रों ने हवाई अड्डे के कर्मचारियों को भी श्रद्धा से भिगो दिया।
अनेकों साधु-सन्त भारत से इंग्लैण्ड गए थे। उनका भरपूर सम्मान भी हुआ, उन पर फूल-मालाओं की बौछार और जय-जयकार की गुँजार भी बहुत देखी गयी थी। पर किसी के लिए प्यार के सघन-घन इतनी तीव्रता से नहीं उमड़े थे। किसी के लिए इतनी आँखें नहीं भीगी थी। हवाई अड्डे के कर्मचारियों ने इस फर्क को बड़ा साफ-साफ अनुभव किया। उन्होंने परिजनों से जिज्ञासा की- ये कौन हैं? उन्हें उत्तर मिला- हम सबकी माँ आयी हैं। पता नहीं इस उत्तर से उनमें से किसको क्या समझ में आया? लेकिन उनमें से अनेकों ने ‘शी इज़ डिवाइन मदर’ कहते हुए माताजी के चरण स्पर्श किए। माता जी ने भी उन्हें जी भर कर आशीष दिए। उनके लिए तो सभी उनके बच्चे थे। जो भी माँ! माँ!! कहते हुए उनके पास दौड़ा चला आए, वही उनका सबसे ज्यादा लाड़ला था।
लेस्टर का कार्यक्रम निर्धारित समय पर विशिष्ट विधि विधान से शुरू हुआ। श्री कीथवाज़, लार्ड मेयर एवं श्री जान मूडी आदि इस कार्यक्रम के विशिष्ट अभ्यागत बने। वहाँ की सरकार व समाज में उच्च प्रतिष्ठ प्राप्त ये विशिष्ट जन माताजी की ममता का स्पर्श पाकर अनुग्रहीत हुए। इंग्लैण्ड में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त श्री लक्ष्मीमल सिंघवी भी सपत्नीक इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए। अश्वमेध महायज्ञ के लिए निश्चित किए गए विधि-विधान के साथ ही माताजी ने वहाँ के लोगों को दीक्षा दीं। यह दीक्षा कार्यक्रम कई अर्थों में अनूठा था। इसमें भागीदार होने वालों के मन-प्राण अनेकों विलक्षण अनुभूतियों से भर गए। इसमें से अनेकों ने मन्त्राक्षरों को सुनहले अक्षरों में अपने भीतर अवतरित होते हुए देखा। कुछ ने गायत्री माता की एक झलक पायी। कइयों के सालों पुराने असाध्य रोग दीक्षा लेते ही जड़ से चले गए। उन्होंने इस सत्य को अनुभव किया कि विश्वमाता ने उनके समस्त पापों-तापों को हर लिया है।
शैलदीदी एवं डॉ. प्रणव पण्ड्या इस कार्यक्रम में माताजी के साथ ही थे। उन्होंने जब उनसे दीक्षा लेने वाले परिजनों की इन विलक्षण अनुभूतियों की चर्चा की तो पहले वे कुछ देर मौन रहीं। फिर कहने लगीं- ये बच्चे हमसे दूर रहते हैं। जल्दी-जल्दी भागकर ये शान्तिकुञ्ज भी नहीं पहुँच सकते। इसलिए इनका विशेष ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। अब जब मैं खुद चलकर इनके पास आयी हूँ, तो इन्हें खाली हाथ थोड़े ही रहने दूँगी। इन सबको कष्ट-कठिनाइयों से छुटकारा पाते, हँसते-खिलखिलाते देखकर मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कि मेरी यात्रा सफल हो गयी।
इंग्लैण्ड की इन अनोखी अनुभूतियों को सुनकर टोरण्टो (कनाडा) के परिजन भी उत्साहित हो उठे। उन्होंने पहले से ही 23 से 25 जुलाई 1993 की तिथियाँ अपने यहाँ के लिए निश्चित कर रखी थी। वन्दनीया माताजी शैल दीदी एवं डॉ. साहब के साथ ठीक समय पर पहुँच गयीं। इन सबके पहुँचने के कुछ दिनों पहले से यहाँ भारी वर्षा हो रही थी। आयोजकों के साथ सभी कार्यकर्त्ता घबराए हुए थे कि सब कुछ कैसे और किस तरह से सम्पन्न और सफल होगा। अपनी घबराहट में उन्होंने शान्तिकुञ्ज कई फोन भी किए थे। फोन पर हुई बातचीत में माताजी ने उन्हें आश्वस्त किया था, तुम लोग परेशान न हो, मैं आ रही हूँ, मेरे वहाँ आते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। सचमुच ऐसा ही हुआ। लगातार कई दिनों से हो रही भारी वर्षा थम गयी। इस कार्यक्रम में आण्टेरियो कनाडा की तत्कालीन प्रधानमंत्री कैम्पबेल और उनके मंत्री मण्डलीय सहयोगियों ने भारी सहयोग दिया। आयोजन में सक्रिय गायत्री परिजनों के साथ अन्य संगठनों के लोगों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। इन सभी भागीदारों ने माताजी की तपशक्ति के अनेकों चमत्कारों की अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभूति पायी।
कनाडा से वापसी के बाद वन्दनीया माताजी ने 19 से 22 अगस्त 1993 को अमेरिका के लॉसएँजेल्स शहर में होने वाले अश्वमेध महायज्ञ के लिए प्रस्थान किया। आदरणीय डॉ. प्रणव पण्ड्या एवं शैल दीदी के साथ हुई उनकी यह यात्रा पिछली विदेश यात्राओं की तुलना में और भी ज्यादा उत्साहवर्धक रही। पश्चिमी तटीय अमेरिका के परिजन माताजी को अपने बीच में देखने के लिए अति उत्साहित थे। उन्होंने जी-जान से जुटकर 1008 कुण्डीय इस महायज्ञ का आयोजन किया था। अमेरिका के किसी शहर में उन दिनों इतना बृहत् यज्ञायोजन करना सरल नहीं था। श्री कालीचरण शर्मा के नेतृत्व में गए दल ने यों तो सारा पुरुषार्थ किया, पर सभी के हृदय अपनी माँ के प्रति इतनी गहन श्रद्धा से भरे थे कि इस आयोजन के कठिन काम सभी के लिए सरल होते चले गए। माताजी के पहुँचते ही वहाँ के सम्पूर्ण वातावरण में दिव्यता छा गयी। सभी कार्यक्रम उनके दैवी संरक्षण में भली प्रकार सम्पन्न होते गए।
यज्ञस्थल में दीक्षा के लिए लगभग 30,000 लोग उपस्थित हुए। सभी ने सुन रखा था कि दीक्षा देते समय माताजी अपनी सन्तानों की अनेकों कष्ट-कठिनाइयाँ हर लेती हैं। साथ ही उन्हें अनेकों तरह की आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्रदान करती हैं। उस दिन यह सब सुनी हुई बातें प्रत्यक्ष हुई। अनेकों लोगों ने अनेकों तरह से माताजी के अनुदान-वरदान पाए। माताजी के मुख से उच्चरित गायत्री मंत्र ने सचमुच ही उनके प्राणों को त्राण देने का कार्य किया। अमेरिका के अनेकों मूलनिवासी भी इस कार्यक्रम में भागीदार हुए। हिन्दी भाषा से अनजान होते हुए भी उन्होंने अपने हृदय में माताजी के भाव भरे उद्बोधन को आत्मसात किया। इन सभी कार्यक्रमों में अनेकों अनुदान बरसाने वाली माँ सतत अपनी सन्तानों की पीड़ा का विषपान करती जा रही थीं।