मातृत्व का आँचल बढ़ता ही चला गया

September 2002

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मातृत्व के विस्तार की सजल संवेदना की छुअन से आने-जाने वाले बरबस अभिभूत हो जाते थे। अखण्ड ज्योति संस्थान में आकर उन्हें हमेशा ऐसा लगता, जैसे वे अपनी सगी माँ के पास आए हैं। इनमें से कइयों को माताजी अपनी सगी माँ से कहीं बढ़कर लगती। वे अनुभव करते कि सगी माँ तो फिर भी कभी थकान, परेशानी अथवा कार्यव्यस्तता वश अपने बच्चों को नजर अन्दाज कर देती है, लेकिन माताजी का प्यार कभी कम नहीं पड़ता। सगी माँ बच्चों के बड़े हो जाने पर उन पर उतना ध्यान नहीं देती, पर माताजी के लिए बच्चे सिर्फ बच्चे हैं, वे छोटे हों या बड़े। वे जैसे अपने बच्चों की सार-संभाल के लिए ही अवतरित हुई हैं।

घर-परिवार के दायित्व और कार्यालय के काम-काज की व्यस्तताएँ कितनी भी क्यों न होती, परन्तु माताजी के मातृत्व का आँचल कभी भी छोटा न पड़ता। दिनों-दिन उसका विस्तार व्यापक होता जा रहा था। इन्हीं दिनों उन्होंने ओमप्रकाश एवं दया के जीवन को संवारा। सतीश (मृत्युञ्जय शर्मा) एवं शैलो (शैलबाला) भी बड़े हो रहे थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई की देखभाल भी उन्हें ही करनी पड़ती थी। बच्चों में जैसा कि अक्सर होता है, उनमें चंचलता, नटखटपन की बहुलता होती है। उनके इन बच्चों में भी यही बात थी। उनकी शैलो तो खैर सीधी थी, पर सतीश की शरारतें कुछ ज्यादा ही थी। लेकिन बच्चों को मारने-पीटने पर माताजी का विश्वास बिल्कुल भी न था। उनका मानना था कि बच्चों को बिना थके प्यार से समझाते रहना चाहिए। जिस दिन उन्हें औचित्य समझ में आ जाता है, वे शरारत करना छोड़ देते हैं।

हालाँकि यह स्थिति कहने में जितनी आसान और साधारण लगती है, करने में उतनी ही जटिल और परेशानी पैदा करने वाली है। इसमें बड़े धैर्य एवं ममता की जरूरत पड़ती है। और कभी-कभी कठिन पलों से भी गुजरना पड़ता है। माताजी के मातृत्व को भी ऐसे पलों का सामना करना पड़ा। वह मार्च 1951 का समय था। ओमप्रकाश की इण्टर की परीक्षाएँ चल रही थी। अंग्रेजी का दूसरा पेपर सेकेंड मीटिंग में था। वह अपने कमरे में बैठे पढ़ रहे थे। लगभग सुबह के 7.30 बजे होंगे। अब्दुल लतीफ, ट्रेडिल मशीन चला रहा था। माताजी के सम्बन्धियों में से एक ‘चन्दा’ कम्जोज़ कर रहे थे। इतने में सतीश आए, उन्होंने मशीन का बड़ा पहिया देखा। मशीन के चमकीले दाँतों को देखकर उन्हें न जाने क्या समझ में आया, उन्होंने इन दाँतों को पकड़ने के चक्कर में अपना हाथ मशीन में डाल दिया।

भैय्या!!! चन्दा काफी जोर से चिल्लाए। ओमप्रकाश भागे-भागे आए। उन्होंने देखा- सतीश चुप हैं। उठाकर गोद में ले लिया और सिर पर हाथ फेरा। उनको ऐसा लगा कि शायद चोट सिर में लगी है। तभी चन्दा ने लगभग सुबकते हुए कहा- भैय्या! हाथ!! हाथ देखने पर पता चला कि हथेली आधी पलट गयी है, उंगलियाँ लटक रही हैं। इस हृदय विदाकर दृश्य को देखकर उन्होंने ताई जी और माताजी को आवाज दी। दोनों भागी-भागी आयीं। इतनी देर में ओमप्रकाश का नेकर और बनियान दोनों खून से तर हो चुके थे। मथुरा के सिविल सर्जन एस.के. मुखर्जी को दिखाया गया, उन्होंने सलाह दी- आगरा ले जाओ। मुखर्जी साहब ने आशंका भी व्यक्त की, कि कहीं हाथ न काटना पड़ जाए।

परम पूज्य गुरुदेव इसी बीच आ गए थे। उनके साथ रघुनाथ अग्रवाल, श्यामलाल और कंपाउंडर जगदीश के भाई लक्ष्मण भी थे। दवा-पट्टी की जा चुकी थी, इन्जेक्शन भी लग गया था। लेकिन सतीश को बेहोशी आ गयी थी। सभी सोच-विचार में थे, क्या किया जाय? तभी माताजी ने डॉ. मुखर्जी से कहा, डॉ. साहब आप भगवान् पर भरोसा रखकर यहीं जो कुछ कर सकते हों कीजिए। पूज्य गुरुदेव ने भी माताजी के इस कथन में हामी भरी। आप्रेशन किया गया। माताजी धैर्य के साथ आप्रेशन रूम के बाहर खड़ी रहीं। थोड़ी देर बाद आप्रेशन समाप्त हुआ। मरीज को वार्ड में ले जाया गया। काफी दिनों के बाद स्थिति में सुधार आया। इस घटना के चिह्न अभी भी मृत्युञ्जय शर्मा के हाथ पर हैं। इसके बाद उनकी बचपन की शरारतें कितनी कम हुई, यह तो पता नहीं, परन्तु माताजी का ममत्व बढ़ता गया। वह बड़े धीरज के साथ बच्चों के व्यक्तित्व को गढ़ती रहीं।

माताजी के ममत्व के इस दायरे में उन दिनों भी अनगिनत थे। उनके लिए जितने प्यारे सतीश और शैलो थे, उतना ही प्यारा अब्दुल लतीफ था। यह मुसलमान युवक अखण्ड ज्योति संस्थान में मशीन मैन था। पत्रिका की छपाई का काम-काज देखा करता था। अपने परिवार के सदस्यों के साथ माताजी इसके भी खाने की व्यवस्था किया करती थीं। बड़े नियम से वह बीच-बीच में चाय-नाश्ते के लिए पूछ लेतीं। उनका यह व्यवहार कभी-कभी आने वाले सम्बन्धियों को अखर जाता। उनमें से कोई-कोई कभी-कदार कह देते- अब्दुल लतीफ की भोजन की व्यवस्था करना बुरा नहीं है, पर आपको कम से कम उसके बरतन तो अलग रखना चाहिए। आखिर हम लोग ब्राह्मण हैं, कुछ तो आचार-विचार आपको मानना चाहिए। सम्बन्धियों की इस बात के उत्तर में वह कहतीं, आचार-विचार का मतलब छुआछूत नहीं होता। इसका मतलब यह है कि हम अपने विचारों और कार्यों में कितने पवित्र और निर्दोष हैं?

उनकी ये बातें किसी को समझ में नहीं आती। उनके द्वारा काफी-कुछ समझाने के बावजूद सम्बन्धियों के आग्रह यथावत बने रहे। वे अपनी रूढ़िवादी-पुरातन मान्यताओं को उन पर थोपने की कोशिश जब-तब करते रहते। सम्बन्धियों के इस बढ़ते आग्रह पर एक दिन उनके यहाँ काम करने वाली ‘ए जू’ ने भी उन्हें समझाया, आखिर आप सबकी बातें मान क्यों नहीं लेतीं। ठीक ही तो कहते हैं वे सब जो कुछ भी हो, है तो वह मुसलमान ही। उसके लिए बरतन अलग करने में बुराई ही क्या है? ‘ए जू’ की इन बातों ने माताजी को व्यथित कर दिया। वे उठकर दूसरे कमरे में गयीं, जहाँ अभी तक अब्दुल लतीफ के झूठे बर्तन रखे थे। उन्होंने उन बर्तनों को अपने हाथों से उठाया और बर्तन माँजने वाली जगह पर ले आयीं। ‘ए जू’ अभी कुछ और सोच समझ पाती, इसके पहले वह उसे सम्बोधित करते हुए बोलीं- इतने दिन तुम मेरे पास रही, पर तुम मुझे समझ नहीं पायी। अरे मैं सिर्फ माँ हूँ, हिन्दू की भी माँ, मुसलमान की भी माँ। मेरे लिए जैसे ओमप्रकाश और सतीश है, वैसे ही यह अब्दुल लतीफ है।

उनकी इन बातों को सुनकर ‘ए जू’ हतप्रभ रह गयी। उसे थोड़ी देर तक समझ ही न आया कि वह क्या बोले। जब तक वह कुछ बोलती, तब तक तो माताजी ने अब्दुल लतीफ के झूठे बरतन अपने हाथों से धो डाले। ‘ए जू’ को लगा जैसे वह कोई मानवी नहीं देवी हों। थोड़े दिनों के बाद पता नहीं किस तरह इस बात का पता अब्दुल लतीफ को भी लगा। सब कुछ सुनकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। उसने आँसुओं से छलकती आँखों के साथ उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए कहा, माँ आप सचमुच में माँ हो। आपका दरजा फरिश्तों से भी ज्यादा बुलन्द है। आप फातिमा बी की तरह मुकद्दस हो। वह हाथ जोड़े ऐसी न कितनी बातें उनके सामने भाव विह्वल स्वर में कहता रहा। जब वह वहाँ से चली गयी, तो उसने उस जगह की धूल अपने सिर माथे पर लगायी। और वहाँ लेटकर प्रणाम किया।

मातृत्व के इस अनन्त विस्तार का परिचय किन्हीं विलक्षण क्षणों में वह स्वयं भी दे देती थीं। एक बार एक प्रखर गायत्री साधक रामसजीवन अखण्ड ज्योति संस्थान आए। पिछले कुछ वर्षों से वह कई कठोर व्रतों का पालन करते हुए गायत्री अनुष्ठान कर रहे थे। अखण्ड ज्योति संस्थान आने पर उन्हें माताजी के द्वारा परोसे हुए खाने को खाने का सौभाग्य मिला। भोजन करते समय माताजी की एक झलक पाकर वह अपनी किन्हीं अनुभूतियों में डूब गए। अचानक न जाने क्यों उनके मुख से निकला- माँ तुम किस तरह माँ हो? इस प्रश्न के उत्तर में माताजी बोलीं- बेटा, माँ इस या उस तरह की नहीं होती। माँ सिर्फ माँ होती है। फिर वह धीमे से बोली- मैं सचमुच की माँ हूँ। बेटा- गुरुदेव की पत्नी के रूप में माँ नहीं। केवल सतीश और शैलो की माँ नहीं। मैं सबकी माँ हूँ, सारे मनुष्यों की माँ, प्राणियों, वनस्पतियों की माँ, इस समस्त सृष्टि की माँ। माताजी के इन वचनों को सुनकर गायत्री के प्रखर साधक रामसजीवन को लगा, जैसे कि आज वह गायत्री के तत्त्व और सत्य का साक्षात्कार कर रहा है। गायत्री माता ठीक उसके सामने खड़ी हैं। बाद में उन्हीं की सक्रिय प्रेरणा से तो गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ।


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