दिव्य ज्योति के अवतरण की बेला

September 2002

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दिव्य ज्योति के जन्म की शुभ घड़ी समीप आने लगी थी। मातृतत्त्व मानवीय रूप और आकार ले रहा था। आदिशक्ति के युगशक्ति के रूप में अवतरण का संकल्प सूक्ष्म जगत् में मुखरित हो चला था। साँवरिया बोहरे समुदाय (आगरा) के पं. जसवन्तराव शर्मा के परिवार में इसके स्पन्दन तीव्रगति से संघनित होने लगे थे। घर के वातावरण में दिव्यता की कुछ अलग सी तरंगें हर क्षण तरंगित होती रहती। एक अलौकिक महक मकान के कोने, चौबारे व आँगन में रह-रहकर सघन हो उठती। परिवार के सभी सदस्यों के मन, अन्तःकरण में उल्लास उमगता रहता। एक अनजानी खुशी हर एक को घेरे थी।

पिछले कुछ महीनों से होने वाले इन परिवर्तनों को सबसे पहले जसवन्तराव ने महसूस किया। जसवन्तराव बड़े ही सीधे-सरल स्वभाव वाले आध्यात्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। उनकी सहधर्मिणी रामप्यारी शर्मा पति के अनुरूप जीवन यापन करने वाली भक्तिमती महिला थी। उनकी कोमलता व सेवा परायणता की घर-परिवार के लोग, स्वजन-सम्बन्धी और कुटुम्बी बड़ाई करते नहीं अघाते थे। आस-पड़ोस की बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ बात-बात में उनका उदाहरण दिया करती थीं। जब-तब वे आपस की चर्चाओं में कहा करतीं- देखो, जसवन्तराव की बहू को घर-परिवार और बच्चों को कितनी अच्छी तरह से सम्हालती है। और फिर पूजा-पाठ और जप-तप भी कितना करती है। प्रशंसा के इन स्वरों में यथार्थ की सार्थकता थी।

इस ब्राह्मण दम्पत्ति के पुण्य चरित्र और तप परायणता को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो ये प्राचीन काल के ‘सुतपा और पृश्नि’ हैं। माता भगवती की उपासना-आराधना दोनों को ही परमप्रिय थी। जसवन्तराव नित्य-नियम से देवी सप्तशती का सम्पूर्ण पाठ किया करते थे। उनका घर-आँगन प्रतिदिन जगन्माता के महिमागान से मुखरित होता था। सप्तशती के सम्पूर्ण पाठ के साथ गायत्री मंत्र एवं नवार्ण मंत्र पर उनकी गहन आस्था थी। ‘ॐ ऐं ह्री क्लीं चामुण्डाय विच्चै’ का जप करते हुए वह भावलीन हो जाते थे। देवी सप्तशती के पाठ के समय प्रायः रोज ही उनकी आँखों से भावबिन्दु झरने लगते। यदा-कदा रामप्यारी अपने पति से उनके इन भावाश्रुओं के बारे में पूछ लेती। प्रश्न के उत्तर में वह गदगद हो कहते, जब मैं पाठ करता हूँ, तब मुझे लगता है कि माँ छोटी बालिका के रूप में मेरे पास बैठी है। मंत्र जप करते समय भी ऐसा ही लगता है। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि छोटी बालिका के रूप में ‘माँ’ मेरी गोद में आकर बैठ गयी है।

पति की इन बातों को सुनकर रामप्यारी भावमग्न हो जाती। उन्हें इस तरह चुप बैठा हुआ देखकर जसवन्तराव पूछ बैठते- तुम चुप क्यों हो गयी? एक-दो बार पूछने पर वह धीरे से कहती- आजकल मुझे भी बड़े विचित्र सपने आने लगे हैं। अभी एक-दो दिन पहले ही मैंने सपना देखा कि मैं हिमालय पर हूँ। श्वेत-शुभ्र हिम शिखर बड़े ही भव्य लग रहे थे। तभी उन हिम शिखरों पर एक देवी प्रकट हुई। सचमुच ही देवी थी वो। धीरे-धीरे वो छोटी सी लड़की बनकर मेरा हाथ पकड़ कर बोली- माँ मैं तुम्हारे घर आने वाली हूँ। एक सपना तो मैंने आज ही देखा- सपने में छोटी-छोटी आठ लड़कियाँ एक बड़ी प्यारी सी लड़की को अपने साथ लेकर मेरे पास आयीं हैं और मुझसे कह रही हैं, हम सब इसको तुम्हें देने आयीं हैं। आज से तुम ही इसकी माँ हो, साथ ही हमारी माँ भी हो। क्योंकि हम सब तो इसी की अंश हैं।

पत्नी की इन बातों को सुनकर जसवन्तराव कुछ पलों के लिए अन्तर्लीन हो गए। उन्हें पत्नी के गर्भवती होने की बात पता थी। परन्तु ये स्वप्न उन्हें गर्भ की दिव्यता के सूचक लग रहे थे। घर के वातावरण में भी आध्यात्मिक बदलाव के चिह्नों को वे काफी दिनों से अनुभव कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि उनके जीवन में कोई दिव्य घटना घटित होने वाली है। उन्हें इस तरह सोच में डूबा हुआ देख रामप्यारी बोली- तुम चुप क्यों हो? कुछ कहते क्यों नहीं? पत्नी के इन प्रश्नों से उनके चिन्तन की कड़ियाँ झंकार के साथ बिखर गयीं। वह अपने भावों से उबरते हुए रामप्यारी से बोले- मुझे लगता है इस बार माता भगवती जगदम्बिका स्वयं हम पर, तुम पर, अपने पूरे परिवार पर कृपा करने के लिए अवतीर्ण हो रही हैं।

जसवन्तराव की इन बातों को सुनकर रामप्यारी भाव विह्वल हो गयीं। उनकी आँखें छलक उठीं। उन्होंने मन ही मन आदि माता जगदम्बा को प्रणाम किया और उठ खड़ी हुई। अभी उन्हें घर के काफी काम करने थे। लेकिन आज वह घर के काम को करते हुए महसूस कर रही थीं कि उनके भीतर एक अद्भुत आनन्द धारा मन्दगति से बह रही है। इससे उनका रोम-रोम, अस्तित्त्व का अणु-अणु भीग रहा है। काम करते हुए बीच-बीच में उन्होंने अपने दोनों बेटों दीनदयाल एवं सुनहरी लाल और बेटी ओमवती को भरपूर प्यार किया। शायद वह अपने भीतर उमड़ती-उफनती आनन्द सरिता के प्रवाह को अपने बच्चों में भी उड़ेलना चाहती थीं।

रात को सोते समय दिव्य भावानुभूतियों ने उन्हें फिर घेर लिया। उन्हें लगा कि दिव्य लोकों के देवगण, देवियाँ, सूक्ष्म शरीरधारी ऋषि और सिद्ध जन उनके गर्भ पर पुष्पवृष्टि कर रहे हैं। अब यह किसी एक दिन की बात नहीं नित्य का क्रम हो गया था। गर्भ की अवधि ज्यों-ज्यों पूर्णता की ओर बढ़ रही थी, ये भावानुभूतियाँ भी उत्तरोत्तर सघन होती जा रही थी। उनके प्राणों में पुलक बढ़ती जा रही थी। उनकी निर्मल अन्तर्चेतना और अधिक उज्ज्वल दीप्ति से प्रकाशित होती जा रही थी।

काल चक्र की बढ़ती गति के साथ वह दिव्य मुहूर्त आ गया, जिसे देवों और ऋषियों ने निश्चित किया था, जिसकी प्रतीक्षा जसवन्तराव एवं रामप्यारी को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व मानवता को थी। आश्विन कृष्ण चतुर्थी सम्वत् 1982, 20 सितम्बर 1926 ई. की प्रातः 8 बजे के लगभग दिव्य ज्योति ने जन्म ले लिया। पं. जसवन्तराव शर्मा उस समय देवी के नवार्ण मंत्र का जप कर रहे थे। उनके ध्यान में माता की छवि प्रत्यक्ष थी। उनके हृदय की गहराइयों में उपस्थित आदिमाता उन्हें आशीष दे रही थी। तभी उनके कानों में किसी वृद्ध महिला के यह शब्द सुनायी पड़े कि लेडी लायल अस्पताल में ठीक आठ बजे कन्या जन्मी है। लेकिन आश्चर्य, अस्पताल के इस समाचार के साथ उनके हृदय में कुछ और भी गूँज उठा। उन्होंने बड़ी ही स्पष्ट रीति से अपने हृदय में श्री देव्यथर्वशीर्षम् की यह मंत्र ध्वनि सुनी- ‘अहमानन्दानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्मब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।’ अर्थात्- ‘मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत् मैं ही हूँ।’ इस स्पष्ट मंत्र ध्वनि को अपनी अन्तर्चेतना में सुनकर जसवन्तराव को यह साफ हो गया कि आदिमाता ने आगमन के साथ ही उन्हें अपना परिचय दे दिया है। वह आदिमाता को प्रणाम करके पूजा के आसन से उठे और कपड़े बदलकर लेडी लायल अस्पताल की ओर चल पड़े। उन्हें अपने ज्योतिष ज्ञान की भी सार्थकता सिद्ध करनी थी।


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