शिव और शक्ति का अद्भुत अन्तर्मिलन

September 2002

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योग साधना की परम प्रगाढ़ता में शिव ओर शक्ति परस्पर अन्तर्लीन हो गए थे। शिव और शक्ति का यह अन्तर्मिलन दो रूपों में प्रकट हुआ था। अपने पहले रूप में महायोगिनी माताजी की अन्तस्थ कुण्डलिनी महाशक्ति परिपूर्ण जागरण के पश्चात् विभिन्न चक्रों का भेदन और प्रस्फुटन करती हुई सहस्रार में स्थित महाशिव से जा मिली थी। योग साधकों के लिए इस अद्भुत एवं दुर्लभ सत्य के घटित होने से माताजी का समूचा अस्तित्त्व योगैश्वर्य का भण्डार बन गया था। योग की उच्चस्तरीय विभूतियाँ एवं सिद्धियाँ उनके व्यक्तित्व के विविध आयामों से अनायास प्रकट होने लगी थीं। शिव और शक्ति के महामिलन का एक दूसरा रूप भी माताजी के जीवन में बड़ा ही स्पष्ट रीति से उजागर हुआ था। जिसकी चर्चा प्रायः किसी योगशास्त्र में नहीं मिलती। इस दूसरे रूप में शिव स्वरूप गुरुदेव की आत्मचेतना शक्ति स्वरूपा माताजी की आत्मचेतना से घुल−मिल कर तदाकार हो गयी थी।

आने-जाने वाले, मिलने-जुलने वाले इस सच्चाई को अनुभव कर अचरज में पड़ जाते। उन्हें यह बात गहराई से महसूस होती कि गुरुदेव एवं माताजी कहने भर के लिए दो हैं, पर वास्तव में उनके भीतर एक ही प्राण प्रवाह, एक ही भाव चेतना क्रियाशील है। इस तरह की अनुभूति लोगों को लगभग रोज ही होती थी। वे आपस में इसकी चर्चा भी करते। एक दूसरे से बताते कि हमने यह बात तो गुरुजी को कही थी, लेकिन माताजी तक कैसे पहुँच गयी? जबकि गुरुजी तो अभी तपोभूमि में ही हैं। अथवा ये बातें तो अखण्ड ज्योति संस्थान में माताजी से कही गयी थीं, तपोभूमि में बैठे हुए गुरुदेव को किस तरह पता चल गयी। उन दिनों तो वहाँ कोई टेलीफोन जैसे माध्यम भी न थे। जिससे कि ये अनुमान लगाए जा सकते कि टेलीफोन द्वारा बात कह दी गयी होगी। बड़े ही तार्किक एवं बुद्धिकुशल लोगों को भी गुरुदेव एवं माताजी की आत्मचेतना के अन्तर्मिलन का सत्य स्वीकारना पड़ता।

कई बार तो कुछ लोग अपने अनुभव को दुहरा तिहरा कर इसकी बाकायदा परीक्षा भी कर डालते। महाराष्ट्र के विष्णु नारायण गोवरीकर इन्हीं में से एक थे। ये गायत्री तपोभूमि के शिविरों में प्रायः आया करते थे। इस बार जब आए तब उनका मन कई तरह की घरेलू समस्याओं से आक्रान्त था। मन को कितना भी समझाने की कोशिश करते, पर बार-बार वह समस्याओं के जाल में जकड़ जाता। शिविर के दूसरे दिन जब वह खाना खाने के लिए अखण्ड ज्योति संस्थान गए, तब उनके मन की स्थिति कुछ ऐसी ही थी। वह अपने को कितना भी सम्हालने की कोशिश करते, पर उद्विग्नता किसी भी तरह मन को छोड़ नहीं रही थी।

इसी उद्विग्न मनःस्थिति में वह खाना-खाने के लिए बैठे। माताजी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें खाना परोसा। खाना परोसते हुए अन्तर्यामी माँ ने उनकी मनोदशा पहचान ली। वह प्यार से बोली- बेटा! अब तुम मेरे पास आ गए हो, तुम्हें परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारी परेशानियों से हम लोग निबटेंगे। तुम आराम से खाना खाओ। माताजी के इस कथन का उन पर कोई खास-असर नहीं हुआ। वह वैसे ही अन्यमनस्क भाव से खाना खाते रहे। विष्णु नारायण को इस तरह उदास देखकर माताजी कहने लगीं- मैं जानती हूँ बेटा! इस समय तुम पर भारी मुसीबतें हैं। खेती का मामला-मुकदमा चल रहा है। दुकान इस समय एकदम ठप्प पड़ी है। तुम्हारी पत्नी इस समय काफी बीमार है। बेटी की शादी के लिए कुछ ढंग का बन्दोबस्त नहीं हो पा रहा है। इतनी परेशानियाँ किसी पर एक साथ आ पड़े तो किसी का भी घबरा जाना स्वाभाविक है। पर माँ के पास आकर भी उसके बच्चे चिन्तित रहे, तो माँ के होने का क्या फायदा?

माताजी की इन बातों ने उन्हें अचरज में डाल दिया। सबसे बड़ा अचरज तो उनको इस बात का था कि उन्होंने तो अपनी समस्याएँ किसी को भी नहीं बतायीं। जब से वह यहाँ आए हैं, तब से लेकर इन क्षणों तक उन्होंने किसी से भी अपनी परेशानी की कोई चर्चा नहीं की। फिर भी माताजी को सारी बातें कैसे पता चली? प्रश्न के उत्तर में वे केवल इतना सोच सके कि माताजी केवल गुरुजी की धर्मपत्नी भर नहीं, वे जरूर योगसिद्ध महायोगिनी हैं। यही सोचकर उन्होंने निश्चिंतता से खाना खाया। और हाथ मुँह धोकर माताजी को प्रणाम करके गायत्री तपोभूमि की ओर चल दिए। हाँ इतना अवश्य हुआ कि माताजी को प्रणाम करते हुए उनकी आँखें छलक आयी। पर माँ की वरदायी अभयमुद्रा देखकर उनके मन को गहरी आश्वस्ति थी।

लेकिन अभी जैसे उनके आश्चर्य की शृंखलाओं का अन्त नहीं हुआ था। वह जैसे ही तपोभूमि आए। उन्होंने देखा कि गुरुजी यज्ञशाला के पास टहल रहे हैं। वह उन्हें प्रणाम करने के लिए गए। गुरुदेव को प्रणाम करके विष्णु नारायण जैसे ही खड़े हुए, गुरुदेव ने कहा- बेटा अब परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। जब माताजी ने तुम्हारी सभी समस्याओं का भार अपने ऊपर ले लिया है, तब फिर चिन्ता जैसी कोई बात नहीं है। तुम उन पर विश्वास करना। वह परम समर्थ हैं। उन्होंने कह दिया, तो विश्वास रखना सब कुछ ठीक हो जाएगा। गुरुजी की इन बातों ने विष्णु नारायण को एक बार फिर से हैरत में डाल दिया। वे सोच ही नहीं पाए कि अखण्ड ज्योति संस्थान में माताजी द्वारा कही गयी बातें गुरुजी को कैसे पता चल गयी। उनकी इस हैरानी को दूर करते हुए गुरुजी ने कहा- “अरे बेटा! हम और माताजी कोई दो थोड़े ही हैं। बस केवल बाहर से दिखने के लिए दो हैं। बाकी भीतर से सब कुछ एक है।”

गुरुजी की बातों ने उन्हें और भी चकित कर दिया। उनकी बातों पर भरोसा करने के अलावा और कोई दूसरा उपाय न था। लेकिन मानवीय मन का सन्देह अभी भी किस कोने में छुपा हुआ था। इस सन्देह का निवारण करने के लिए वह शिविर के सारे दिनों में कोई न कोई प्रयास करते रहे। हर बार उनके सन्देह को मुँह की खानी पड़ी। जो गुरुदेव हैं, वही माताजी हैं, जो माताजी हैं, वही गुरुदेव हैं, यही सत्य प्रामाणित हुआ। अपनी इन बातों की चर्चा जब उन्होंने साथ के शिविरार्थियों से की, तो वे सब खुलकर हँस पड़े। हँसी का कारण पूछने पर उनमें से सभी ने कहा, अरे भई! यह भी कोई सोच-विचार की बात है। हम तो पहले से ही जानते हैं कि गुरुजी-माताजी को दो समझना एक बड़ा भ्रम है। वे दोनों एक ही हैं। इन सबकी बातों को सुनकर विष्णु नारायण का सन्देह दूर हुआ। घर वापस पहुँचने पर माताजी के प्रति उनकी श्रद्धा शतगुणित हो गयी। क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि अप्रत्याशित संयोगों से उनकी सभी समस्याएँ एक के बाद एक निबटती चली गयीं।

अपने इस अनुभव को उन्होंने गुरुदेव को लिखे गए पत्र में बयान किया। जिसे उन दिनों कई लोगों ने पढ़ा। विष्णु नारायण गोवरीकर जैसे अनेकों और भी हैं, जिन्होंने माताजी की कृपा को अनुभव करने के साथ इस सच्चाई को जाना कि गुरुजी और माताजी एक ही आत्मचेतना के दो रूप हैं। मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचल की एक महिला भक्त शिवरानी देवी की अनुभूति इस सम्बन्ध में बड़ी प्रगाढ़ थी। अल्प शिक्षित यह महिला भक्त कुछ खास पढ़ी-लिखी न होने पर भी बड़ी साधना परायण थी। ब्रह्म मुहूर्त से लेकर प्रातः तीन घण्टे नियमित साधना करने का उनका बड़ा पक्का नियम था। गायत्री महामंत्र के प्रत्येक अक्षर को वह बड़ी भावपूर्ण रीति से जपती थी। उनके आचार-व्यवहार में भी बड़ी असाधारण पवित्रता थी। जप काल के अलावा दिन के अन्य समय गृहकार्यों को करते हुए भी वह गायत्री मंत्र का मानसिक जप और सूर्यमण्डलस्थ माता गायत्री का ध्यान किया करती थी।

अपनी नियमित साधना में एक दिन उनका मन गहरे ध्यान में लीन हो गया। प्रगाढ़ ध्यान की इसी भावदशा में उन्होंने देखा कि सूर्यमण्डलस्थ माता गायत्री ने माताजी का रूप ले लिया है। निरभ्र अनन्त आकाश में केवल माताजी की तेजोमयी मूर्ति विराजमान है। अखिल ब्रह्मांड के सारे ग्रह-नक्षत्र उन्हीं के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे हैं। धीरे-धीरे सब कुछ उनमें विलीन हो जाता है, यहाँ तक परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य मूर्ति भी उन्हीं में समा जाती है। ध्यान से उठने पर भी उनके मन पर यही विचित्र अनुभूति छायी रही। हालाँकि इसका अर्थ उन्हें जरा भी समझ में नहीं आया। काफी दिनों बाद गायत्री तपोभूमि में एक शिविर में पहुँचने पर उन्होंने परम पूज्य गुरुदेव से इसकी चर्चा की। उत्तर में उन्होंने गम्भीरता से कहा- “बेटी! तुमने ठीक देखा। माताजी अपने सत्य स्वरूप में सृष्टि का अन्तिम रहस्य हैं। सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है। वे केवल देह दृष्टि से मेरी पत्नी हैं। आत्मदृष्टि से तो वे मेरी भी माताजी हैं। मैं उनसे बिल्कुल भी अलग नहीं हूँ। उनका ध्यान करने से अपने आप ही समस्त देव शक्तियों सहित मेरा ध्यान हो जाता है।” गुरुदेव के ये गूढ़ आध्यात्मिक वचनों का रहस्य उसे पता नहीं कितना समझ में आया। पर उसको अपने मन की गहराई में महाशक्ति की संचालन सामर्थ्य का अहसास अवश्य हुआ।


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