महाशक्ति में समाने का शिव संकल्प

September 2002

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सूक्ष्मीकरण साधना के बाद से ही परम पूज्य गुरुदेव शान्तिकुञ्ज सहित सम्पूर्ण युग निर्माण मिशन को सर्वथा नए आयाम में पहुँचाने में जुटे थे। इसके लिए उन्होंने अपने लेखन, साधना आदि नियमित कार्यों के साथ कार्यकर्त्ताओं को तरह-तरह से प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था। सारे दिन एक के बाद एक गोष्ठियाँ चलती रहती। इन गोष्ठियों में वह भविष्य में होने वाले कार्यों का खुलासा करते, नयी योजनाएँ बनाते व समझाते। यह भी बताते कि उनके न रहने पर मिशन का किस तरह से विस्तार होगा और यह कैसे व किस ढंग से चलेगा। सारे कामों को करते हुए वह इन दिनों नयी-नयी पुस्तकों के रूप में क्रान्तिधर्मी साहित्य का भी सृजन कर रहे थे। इस भाव स्पर्शी साहित्य का सृजन, उनके नियमित लेखन से अलग था। इन वर्षों में गुरुदेव की समस्त गतिविधियाँ तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो चली थीं। इस उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तीव्रता को देखकर भक्ति-संवेदना से स्पन्दित हृदयों को सहज ही अनुमान लगने लगा था कि भगवान् शिव अपनी लोक लीला का संवरण करते हुए महासमाधि में लीन होने की तैयारी कर रहे हैं।

शक्ति स्वरूपा माताजी गुरुदेव के शिव संकल्प से अवगत थीं। उन्हें भली प्रकार मालूम था कि सत्य के मूर्तिमान स्वरूप गुरुदेव के संकल्प व योजनाएँ कभी मिथ्या नहीं हो सकते। वह स्वयं भी उनकी योजनाओं के प्रति पूर्णतया समर्पित थीं। फिर भी उन्हें इतना कठिन श्रम करते हुए देखकर उनका मातृहृदय विकल हो उठता था। एक दिन इसी तरह गुरुदेव सुबह का लेखन एवं उसके बाद कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठियाँ लेने के बाद दोपहर में फिर से लिखने बैठ गए। लगातार विभिन्न कार्यों के साथ लेखन करते हुए उनकी आँखें लाल हो गयीं। शरीर के कष्ट तो सभी को होते हैं, फिर वह चाहे अवतारी सत्ता ही क्यों न हो? उस दिन अत्यधिक एवं लगातार लेखन करने के कारण गुरुदेव की आँखें एकदम लाल दिखने लगी थीं। इसके बावजूद वे देहबोध से रहित, परमहंस महायोगी की तरह शाम तक यथावत लेखन करते रहे। शाम को जब माताजी अपने दिन के सारे कामों को निबटाकर नीचे से ऊपर पहुँची तो उन्होंने गुरुदेव की इस दशा को देखा तो वह विह्वल हो गयीं।

भाव बिन्दुओं से भरी हुई आँखों के साथ उन्होंने गुरुदेव के सारे कागज समेट कर एक साथ एक जगह रखे। उन्हें अपने हाथों से एक गिलास पानी पिलाया। और उनसे पूछने लगीं- आप इतना ज्यादा श्रम क्यों करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव कुछ देर तो चुप रहे, फिर थोड़ा मुस्कराते हुए बोले- “दरअसल हम अपने जाने के पहले मिशन की गाड़ी को खूब जोर का धक्का लगा देना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि यह धक्का इतनी जोर से लगे कि मिशन सैकड़ों सालों तक आराम से चलता रहे। इसमें कोई भी बाधा-व्यतिरेक न आए। अपने लड़के केवल इसमें बैठकर स्टियरिंग सम्हाले रहें। उन्हें कुछ खास न करना पड़े। सब कुछ अपने ही आप इत्मीनान से होता चला जाय।” उस दिन की इस बात से माताजी को नहीं गुरुदेव के अन्य निकटस्थ जनों को यह स्पष्ट आभास हो गया कि उनके भावमय भगवान् अपनी लोक लीला को पूरी तरह से समेट लेने के लिए संकल्पित हैं।

इस सत्य से अवगत माताजी इन दिनों मिशन के सामान्य काम-काज के साथ अपने घर-परिवार की भी जिम्मेदारियाँ निबटाने के लिए प्रयत्नशील थीं। उनकी सुपौत्री गुड़िया (मन्दाकिनी) बड़ी हो चुकी थी। उसके लिए वह सुयोग्य वर की तलाश कर रही थीं। गुड़िया (मन्दाकिनी) एवं चीनू (चिन्मय) ये दोनों बच्चे अपने छुटपन से माताजी के साथ रहे थे। इन्होंने प्रायः अपना सारा बचपन माताजी की गोद में और गुरुदेव के आस-पास खेलकर बिताया था। गुड़िया उनके शान्तिकुञ्ज आगमन के कुछ ही समय बाद मथुरा से उनके पास आ गयी थी। और चीनू का आना शैल दीदी एवं डॉ. साहब के साथ ही हुआ था। उन्होंने स्वयं के साथ अपने शिशु को भी माताजी एवं गुरुदेव को सौंप दिया था। इन बच्चों की सारी परवरिश माताजी की वात्सल्य छाया में ही हुई। इन्हें पाल-पोस कर बड़ा करने व इन्हें संस्कारवान बनाने का दायित्व उन्होंने स्वयं निभाया। बड़े होने पर गुड़िया के लिए वर की तलाश भी उन्होंने की। डॉ. साहब ने स्नेहशील अभिभावक की भाँति इस कार्य में माताजी का हाथ बंटाया। अन्ततः वर्ष 1989 की माघ पूर्णिमा (20 फरवरी) के दिन गुड़िया (मन्दाकिनी) सादगीपूर्ण किन्तु भावप्रवण वातावरण में माताजी के गले लगकर अपनी ससुराल के लिए विदा हुई।

इसके बाद वर्ष 1989 के शेष महीनों में गुरुदेव के कार्यों की तीव्रता यथावत बनी रही। इस वर्ष के अन्त-अन्त तक प्रायः सम्पूर्ण क्रान्तिधर्मी साहित्य प्रकाश में आ गया। इन दिनों वह बात-चीत के क्रम में यह जता दिया करते थे कि वह सूक्ष्म जगत् के परिशोधन के लिए अब पूरी तरह से सूक्ष्म लोक में डेरा जमाएँगे। ऐसे ही वर्ष 1989 के अन्तिम महीनों में एक दिन वह अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे। लेटे हुए बात-चीत के क्रम में उन्होंने कहा- “जैसे लोग अपना कुर्ता उतारते हैं, वैसे ही मैं यह स्थूल शरीर उतार कर फेंक दूँगा।” यह जिज्ञासा करने पर कि इसके बाद फिर वह कहाँ रहेंगे? उत्तर में उन्होंने कहा- “और कहाँ? सारा काम करते हुए मैं एक अंश से माताजी के भीतर रहूँगा।” उनकी इन रहस्यमयी बातों में एक रहस्यपूर्ण सत्य था।

सन् 1990 की बसन्त पंचमी के अवसर पर परम पूज्य गुरुदेव ने एक पत्रक लिखा ‘बसन्त पंचमी के अवसर पर महाकाल का सन्देश’। इस पत्रक में उन्होंने अपनी भावी क्रियाकलापों को स्पष्ट किया था। अपनी इसी योजना के अनुरूप वह बसन्त पंचमी के दिन ही प्रणाम के बाद से पुनः परिपूर्ण एकान्त में चले गए। अब वह अधिक दिन स्थूल देह में नहीं रहेंगे, यह अहसास प्रायः सभी संवेदनशील हृदयों को हो चला था। सभी विकल किन्तु विवश थे। भावमयी माताजी का समर्पण अडिग था। गुरुदेव के भौतिक जीवन के प्रति भी अविरल एवं असीम अनुराग के होते हुए भी वह उनके संकल्प के प्रति समर्पित थीं। अपने आराध्य की इच्छा ही उनकी अपनी इच्छा थी। अपनी असह्य आन्तरिक विकलता को किसी तरह दबाए हुए वह दैनिक काम-काज में संलग्न रहती थीं।

अप्रैल महीने के अन्तिम दिनों में उन्होंने शान्तिकुञ्ज की गोष्ठी के बाद ब्रह्मवर्चस के कार्यकर्त्ताओं की गोष्ठी ली। इस गोष्ठी में उन्होंने गुरुदेव द्वारा किए गए स्थूल देह त्याग के शिव संकल्प को संकेतों में पर स्पष्ट रीति से समझाया। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि गुरुदेव ने उनसे यह भी कहा है-”कि मेरे देह त्याग देने के बाद तुम सौभाग्य-सिन्दूर का त्याग न करना।” माताजी ने यह बताते हुए स्पष्ट किया कि गुरुदेव ने मुझसे यह कहा है कि तुम ठीक उसी तरह से अपने सौभाग्य-सिन्दूर को धारण किए रहना जैसा कि पिछली बार तुमने शारदामणि के रूप में किया था। उसी तरह लड़कों की देख-भाल करती रहना। कुछ ही सालों में ये लड़के सक्षम हो जाएँगे, तब तुम भी देह का झंझट उतार फेंकना। माताजी की इन बातों को सुनकर सुनने वालों के दिल बिलख उठे। बैठे हुए लोगों में से कोई कुछ बोला नहीं। बस एक गहरी चुप्पी छायी रही।

वह दिन बीता और उसके बात कई दिन बीते। अपने द्वारा निश्चित की गयी तिथि एवं निर्धारित किए गए समय के अनुसार गायत्री जयन्ती 2 जून, 1990 को प्रातः 8 बजे के लगभग गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया। उनकी अन्तर्चेतना महाशक्ति में समा गयी। माताजी उस समय उन्हीं के द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार प्रवचन मंच पर थीं। सम्पूर्ण सत्य से अवगत होते हुए भी उन्होंने दिन के सभी कार्य पूर्णतः संतुलित रहकर निर्धारित क्रम के अनुसार पूरे किए। शाम को सूर्य अस्त होने से पहले महायोगी गुरुदेव की तपःपूत देह उनके जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में अग्नि को समर्पित हुई। देह के भस्म होने के साथ अग्नि का तेज और ताप, पूज्य गुरुदेव के परम तेज के साथ वन्दनीया माताजी में समा गया। वह अविचल भाव वे अपने प्रभु से हुए बाह्य वियोग को सहते हुए महातप के लिए प्रवृत्त हुई।


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