माँ

September 2002

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‘माँ’ के स्नेहिल स्मरण से हम सबके मन-प्राण अनोखी पुलक से भर जाते हैं। अनेकों अहसास, अगणित अनुभूतियाँ और असंख्य भावनाएँ अन्तःकरण के आँगन में बरबस बरस पड़ती हैं। यादों के सघन घन बार-बार अर्न्तगगन में उमड़ते हैं और माँ के प्यार का जीवन-जल मुरझाए प्यासे प्राणों पर उड़ेल देते हैं। ऐसा लगता है कि अपनी माँ सुदूर किसी लोक में नहीं, अपने पास है, एकदम पास। उसके आँचल का छोर हमें छू रहा है। उसके आशीषों की छाँव में अपना जीवन सुरक्षित है।

‘माँ’ तुम्हारे सिवा हम बच्चों का और है भी कौन? जब-तब, समय-कुसमय हम सब सिर्फ तुम्हें ही पुकारते हैं। जीवन की हर चोट, हर दुःख-दर्द में हे माँ! हमें केवल तुम्हारी याद आती है। आँसू भरी आँखों और पीड़ा से विकल हमारे जीवन के लिए तुम्हारी याद ही एकमात्र औषधि है। हमें अच्छी तरह से मालूम है कि हमारी कमियों-कमजोरियों, बेवकूफियों, नादानियों को एक तुम्हीं अनदेखा करके हमको अपना सकती हो।

‘माँ’ तुम्हारी क्षमा अपार है। इसकी न तो कोई सीमा है और न ही शर्तबन्दी। क्षमा ही तुम्हारा स्वभाव है। क्षमा तुमसे ऐसे बहती है जैसे फूल से गन्ध बहती है, दीए से रोशनी बहती है। जैसे पहाड़ों से जल उतरता है, मेघों से वर्षा होती है। हे क्षमास्वरूपिणी माँ! सृष्टि के हर स्थूल-सूक्ष्म विधान में प्रत्येक छोटी-बड़ी गलती या अपराध के लिए कोई न कोई सजा निश्चित है। सृजेता के कठोर कर्मफल विधान से सभी बँधे हैं। यहाँ तक कि स्वयं सृजेता भी कर्मफल की हस्तरेखाओं को स्वीकार करता है। परन्तु हे क्षमामयी! तुम्हारी क्षमा शक्ति से जीवन के महापातक भी पल में विनष्ट होते हैं। यह सृष्टि के समस्त विधानों से अनन्त गुना समर्थ है।

‘माँ’ यह एकाक्षरी महामंत्र ही हमारा प्राण है। माँ! माँ!! जपते हुए ही हमारे ऊपर तुम्हारी कृपा किरणों की वृष्टि हुई है। जीवन में अलौकिक अनुभूतियों के अनेकों सुअवसर आए हैं। तुम्हारी लीला-कथा का पुण्य स्मरण भी इन्हीं में से एक है। हे माँ! अब ऐसी कृपा करो कि यह पुण्य कथा तुम्हारे ही अमित प्रभाव से हम सब बच्चों को तुम्हारी अविरल भक्ति का वरदान देते हुए मातृ तत्त्व का बोध करा सके।


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