गुरुदेव की वापसी एवं प्राण-प्रत्यावर्तन का क्रम

September 2002

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प्रत्यावर्तित हो रहे प्राणों से माताजी और गुरुदेव के बीच भाव सन्देशों का आदान-प्रदान होता रहता था। शुभ्र-धवल हिमशिखरों वाले हिमालय की गहनताओं में तपोलीन गुरुदेव और हरिद्वार की दिव्य साधना स्थली- शान्तिकुञ्ज में साधनालीन माताजी एक दूसरे की परिस्थिति एवं भावदशा को अपने हृदय की गहराइयों में सतत अनुभव करते थे। दोनों के कर्त्तव्य कठोर थे, दोनों की साधना दुर्धर्ष थी। माताजी, गायत्री परिवार के अपने बच्चों को प्यार-दुलार देने, उनकी कष्ट-कठिनाइयों में भागीदार होने के साथ शान्तिकुञ्ज के भविष्यत् के लिए आध्यात्मिक-ऊर्जा का अक्षय कोष जुटाने में जुटी थीं। गुरुदेव इन दिनों उन आसुरी शक्तियों को प्रचण्ड टक्कर देने में जुटे थे, जो पड़ोसी देश की कुटिल गतिविधियों का बाना पहनकर अपने देश पर चढ़ आयीं थीं।

सन् 1971 की सर्दियों की शुरुआत देश पर काफी भारी पड़ रही थी। फौजें सरहदों पर अलग-अलग मोर्चों में दुश्मन से जूझ रही थीं। पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे अमानवीय अत्याचारों के कारण पलायन कर भारत भागे आ रहे शरणार्थियों की समुचित सहायता करने के लिए देश के बहादुर सिपाही प्रतिबद्ध थे। समूचे राष्ट्र के लिए यह बड़ा कठिन दौर था। समस्याओं के इस जटिल चक्रव्यूह के अनेक चक्र थे। राष्ट्र के कर्णधारों को कूटनीतिक मोर्चे पर घेरने की कोशिश हो रही थी। आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली कहा जाने वाला देश उन दिनों दुश्मन को हर तरह से सहायता पहुँचाने में जुटा था। यहाँ तक कि उसका सर्वशक्तिमान समझा जाने वाला सातवाँ बेड़ा भी बढ़ा चला आ रहा था। छोटे-बड़े जो भी उस समय युद्ध की खबरों को सुनते थे, आपस में यही पूछते और सोचते थे, अब क्या होगा?

लेकिन अचानक घटनाचक्रों में कुछ ऐसे चमत्कारी परिवर्तन हुए कि बाजी एकदम पलट गयी। नया इतिहास ही नहीं नया भूगोल भी रचा गया। दुनिया के इतिहास में शायद पहली बार तिरानवे हजार हथियारबन्द सेना ने अपने जनरल के साथ घुटने टेक कर आत्मसमर्पण किया। विश्व के नक्शे में नयी लकीरें खिंची, भूगोल में एक नए देश के मानचित्र ने आकार लिया। भारत ने विजय दिवस मनाया और बाँग्लादेश ने अपना जन्म दिवस मनाया। देश के कर्णधारों से लेकर सामान्य नागरिक तक ने अनुभव किया कि यह तो सब कुछ चमत्कार जैसा हो गया। कैसे लौटा सातवाँ बेड़ा? कैसे किया दुश्मन की इतनी बड़ी फौज ने आत्म समर्पण? इन सवालों का जवाब सामान्य बुद्धि खोजने में असमर्थ थी। बस सभी ने यही कहा कि यह तो भारत की आध्यात्मिक-दिव्य शक्तियों का चमत्कार है।

जिन दिनों यह सब हुआ, उन्हीं दिनों एक परिजन डॉ. अमल कुमार दत्ता जो अब शान्तिकुञ्ज के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं और अब ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में रहते हैं, माताजी से मिलने आए। मिलने पर उन्होंने माताजी से कहा- माताजी आपने सुना- भारत ने युद्ध जीत लिया। उत्तर में माताजी बड़े धीरे से बोलीं- हाँ बेटा! सुन भी लिया और देख भी लिया। परिजन को थोड़ा अचरज हुआ कि यह सुनना तो ठीक है, पर देखने का क्या मतलब है? उन्होंने माताजी से सारी बात का खुलासा करने की जिद की। उनकी इस जिद पर वह कहने लगीं, “अभी जो यह लड़ाई हुई, वह दो तरह से लड़ी गयी। एक तो अपनी फौजों ने मोर्चे पर जाँबाजी दिखाई। फौजों की इस बहादुरी की जितनी सराहना की जाय कम है। लेकिन इस लड़ाई में हिमालय की ऋषि सत्ताओं ने भी जबरदस्त और प्रचण्ड रूप से हिस्सा लिया। इसमें गुरुदेव की मुख्य भूमिका रही। उन्होंने अपनी तप शक्ति से दुश्मन की षड्यंत्रकारी योजनाओं को तार-तार करके रख दिया। मैंने यह सब प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखा।”

उन दिनों के अनेक संस्मरणों में एक संस्मरण और है, जिसे बाद में माताजी ने स्वयं अपने मुख से बताया। इस संस्मरण से ममतामयी माँ का वात्सल्य प्रकट होता है। उन्होंने बातचीत के क्रम में अपनी यादों को कुरेदते हुए कहा- “जब गुरुजी 1971 में हिमालय गये थे, तब उम्मीद यही थी कि अब वे शायद न लौटें। बाँग्लादेश वाली लड़ाई के बाद उनकी योजना भी कुछ ऐसी ही थी। पर इधर सारे लोग परेशान थे, गुरुजी कब लौटेंगे? जो भी चिट्ठी लिखता वह यही सवाल करता, गुरुजी कब वापस आएँगे, हम सब से कब मिलेंगे। बच्चों की इस विकलता ने मुझे बड़ा बेचैन और विकल कर दिया। अपने कष्ट की तो मुझे कभी चिंता नहीं होती है, फिर वह चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो। पर अपने बालकों के कष्ट मुझसे सहे नहीं जाते। उन्हें दुःखी-परेशान होते मैं नहीं देख सकती। आखिर माँ हूँ न। बच्चों की इस परेशानी के कारण मेरी बेचैनी इतनी बढ़ गयी कि गुरुजी से प्रार्थना करते हुए मेरी चीख निकल गयी। इस चीख के कारण कुछ लोगों ने समझ लिया- कि माताजी बीमार हैं। हालाँकि गुरुजी ने सही बात समझी और वे वापस आ गए। उन्होंने मेरी प्रार्थना को स्वीकार करके अपनी योजना परिवर्तित कर ली।”

वापस आने के बाद गुरुदेव सबसे पहले सुदूर वास करने वाले प्रवासी परिजनों की पुकार का उत्तर देने के लिए अफ्रीका गए। सन् 1972 में गुरुदेव ने अपनी यह यात्रा पानी वाले जहाज से सम्पन्न की। उनका यह प्रवास ऊपरी तौर पर साधारण रहने पर भी आन्तरिक रूप से कई असाधारण अनुभूतियों से भरा रहा। वहाँ से लौटने पर उन्होंने सन् 1973 में पाँच दिवसीय प्राण प्रत्यावर्तन सत्र आयोजित किए। शान्तिकुञ्ज में आयोजित होने वाले ये सबसे पहले साधना सत्र थे। इनमें देश भर के परिजनों ने भाग लिया। और अपने प्राणों के प्रत्यावर्तन की अनुभूति प्राप्त की। इन परिजनों में से अनेक आज शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस में वरिष्ठ कार्यकर्त्ता हैं। जो शान्तिकुञ्ज आकर नहीं भी रह सके, वे भी अपने-अपने क्षेत्र में जी-जान से मिशन की गतिविधियों में जुटे हैं।

प्राणों का यह प्रत्यावर्तन सब तरह से अनूठा था। इसमें पाँच दिनों के एकान्तवास में साधकगण गुरुदेव द्वारा बतायी गयी कई तरह की सरल किन्तु प्रभावकारी साधनाओं को करते थे। इन साधनाओं का उद्देश्य साधकों के प्राणों को उच्चस्तरीय आध्यात्मिक तत्त्वों के लिए ग्रहणशील बनाना था, ताकि वे गुरुदेव के महाप्राणों के किसी लघु अंश को ग्रहण व धारण करने में समर्थ हो सकें। साधना की इस अवधि में प्रत्येक साधक को गुरुदेव के संग-सुपास व चर्चा-परामर्श का भरपूर मौका मिलता था। इस साधना में साधकों को भोजन व औषधि कल्क के माध्यम से माताजी की प्राण-सुधा पीने को मिलती थी। वे अपने बच्चों को इन्हीं माध्यमों से अपने तप का महत्त्वपूर्ण अंश देकर अनुग्रहीत करती थीं।

इन प्रत्यावर्तन शिविरों से लेकर लगभग एक दशक की अवधि तक शान्तिकुञ्ज में अनेक तरह के साधना सत्रों का आयोजन-संचालन हुआ। इनमें भागीदारी करने वाले देश भर के हजारों साधकों ने परम पूज्य गुरुदेव के साथ माताजी की तपशक्ति और योग विभूतियों का साक्षात्कार किया। ये सभी सर्वसिद्धिदात्री माँ द्वारा दिए गए विविध विधि अनुदानों से लाभान्वित हुए। यह अवधि शान्तिकुञ्ज के स्वर्णिम कालों में से एक थी। इसी अवधि में 1978 में माताजी को सहयोग देने के लिए शैल दीदी एवं डॉ. प्रणव पण्ड्या का आगमन हुआ। अध्यात्म के वैज्ञानिक आयाम को प्रतिष्ठित करने के लिए ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना हुई। इसी के साथ आदिशक्ति जगदम्बा को युगशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए परम पूज्य गुरुदेव ने एक नया अभियान छेड़ा। यह इस सत्य का उद्घोष था कि युग निर्माण मिशन की सूत्र संचालिका आदिशक्ति स्वयं हैं। इस अभियान को गति देने के लिए गुरुदेव ने स्वयं देश भर की यात्राएँ कीं। पहले चरण में सम्पूर्ण देश के चुने हुए पवित्र तीर्थ स्थानों पर चौबीस शक्तिपीठ स्थापित हुए। बाद में इनकी संख्या बढ़ती गयी। गुरुदेव के इस प्रवास काल में माताजी ने मिशन और शान्तिकुञ्ज की सूत्र संचालिका होने का दायित्व सम्भाला।


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