भविष्य की दुनिया महिलाओं की होगी

December 1997

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लम्बी गहन अन्धकार भरी रात्रि के बाद दिवस का आगमन नियति का शाश्वत क्रम है। दूर क्षितिज में उभरती सूर्य की लालिमा के साथ बढ़ती प्रकृति की सक्रियता एवं हलचल नये दिन को लेकर आती है। इसी तरह दीर्घकालीन दासता के अंधेरे युग में अपनी गौरव गरिमा से हाथ धो बैठी नारी चेतना अब जाग उठी है। उसे अपने अस्तित्व का भान हो चला है। घर की चारदीवारी की कैद से बाहर जगत में भी झाँक कर देख रही है, देख ही नहीं रही, बल्कि उसमें सक्रियता से भागीदारी भी लेने लगी है। युगों से बन्धन- बेड़ियों को तोड़ती हुई पुरुष बहुल क्षेत्र में प्रवेश करने का साहस कर रही है। कई क्षेत्रों में तो वह पुरुषों को भी पीछे छोड़ गयी है।

देश की लोकतांत्रिक इकाइयों- लोकसभा एवं विधानसभा में भले ही अभी नारी की भागीदारी को सुनिश्चित करने का महिला- आरक्षण-प्रयास पूर्ण सफल न हो सका हो, पर देश के कई प्रदेशों में पंचायतीराज के तहत महिलाएँ बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं। हिमाचल प्रदेश में तो 1985 में ही पंचायतीराज में महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी निश्चित हो चुकी है। पंचायतों के कुल 20,176 निर्वाचित पदाधिकारियों में से 7653 पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं और इनमें से 970 पद महिला प्रधानों के लिए आरक्षित हो चुके हैं। वर्ष 1995 में पंचायती चुनावों में आरक्षित स्थानों पर महिलाओं ने भाग लेकर अपनी जागरूकता का परिचय दिया है। इस समय प्रदेश में अनुमानतः पाँच लाख महिलायें विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। जिनमें बीस हजार से अधिक सरकारी नौकरियों में तथा 9000 के लगभग उद्योग व अन्य क्षेत्रों में सक्रिय हैं। पहले केवल अध्यापन व नर्सिंग ही महिलाओं के उपयुक्त माने जाते थे। अब विज्ञान, उद्योग, व्यवसाय, वकालत, डाक्टरी, प्रशासन, पर्वतारोहण इत्यादि सभी क्षेत्रों में वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं।

देश के अन्य प्रान्तों में भी महिलायें लोकतंत्र की आधारभूत इकाई पंचायतों में भाग ले रही हैं। हरियाणा व मध्यप्रदेश में क्रमशः 33.33 व 35.74 प्रतिशत महिलाओं सरपंच पद को सुशोभित किया हैं। गतवर्ष दिसम्बर माह में हुए पंचायती चुनावों में हरियाणा में 1978 महिलाएँ सरपंच चुनी गयीं, जिनमें 397 अनुसूचित जाति की थीं। पंचायत समितियों में 37 महिलायें अध्यक्ष पद पर चुनकर आ गयीं। इनमें सात अनुसूचित जाति की थीं। समिति के सदस्यों में 805 महिलायें चुनी गयीं, जिनमें 161 अनुसूचित जाति की थीं।

गतवर्ष अप्रैल में हुए निर्वाचन में उत्तरप्रदेश की पंचायती व्यवस्था में लगभग 15,000 महिलाओं को भागीदारी का अवसर मिला। उड़ीसा में 526 ग्राम पंचायतों में 25,000 से भी अधिक महिला प्रतिनिधि चुनाव जीतीं व 84 नगर निगम में 480 महिला प्रतिनिधि चुनी गयीं। अंडमान में अक्टूबर, 95 के चुनावों में 230 महिला पंचों की सीटों के चुनाव में 526 महिलायें उम्मीदवार बनीं। पंचायत समिति की 25 सीटों के लिए 67 प्रत्याशी खड़ी हुईं। जिला परिषद की 10 सीटों के लिए 34 महिला प्रत्याशी खड़ी हुईं। कर्नाटक एवं पश्चिम बंगाल में लगभग 43 प्रतिशत एवं 35 प्रतिशत स्थान महिलाओं को पंचायती व्यवस्था में प्राप्त हुआ है। त्रिपुरा में महिलाओं के लिए 33.37 प्रतिशत स्थान ग्राम पंचायतों में मिला है। यहाँ एक पंचायत में सभी पदों पर महिला प्रतिनिधि कार्यरत हैं। महाराष्ट्र और अगड़ी जाति की लगभग 60 प्रतिशत महिलाओं ने पंचायत में अपना कब्जा बनाये रखा है। लगभग यही स्थिति उड़ीसा में है, जहाँ कायस्थ जाति की 66 प्रतिशत महिलाओं ने पंचायत में अपना स्थान सुरक्षित किया है। इसी के साथ मध्यप्रदेश सरकार ने सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 30 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है।

यही नहीं महिलायें सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों से मोर्चा लेने के क्षेत्र में भी साहस का परिचय दे रही हैं। गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र में महिलाओं की पहल पर शराबबन्दी का आन्दोलन छिड़ा है। उसमें महिलाओं न संगठित होकर निर्णय लिया कि जो पुरुष शराब पीकर गाँव में आएगा, उसे 500 रुपये जुर्माना देना पड़ेगा। पहाड़ी क्षेत्रों में शराब बरबादी का एक प्रमुख कारण है। यह जहाँ घर में आर्थिक दरिद्रता व लड़ाई -झगड़े का कारण है वहीं सड़कों में दुर्घटनाओं को भी न्योता देती हैं।

देश ही नहीं विश्वपटल पर भी महिलाएँ प्रगतिपथ पर अग्रसर हैं। विश्व-संस्था अन्तर संसदीय संघ के सर्वेक्षण के अनुसार, विश्वभर में गत 50 वर्षों चार प्रतिशत वृद्धि हुई है। विश्व की कुल 38493 संसद सीटों में 4512 सीटों पर महिलायें प्रतिष्ठित हैं। इनमें स्वीडन की संसद में सर्वाधिक 40.4 प्रतिशत महिलाओं का प्रतिनिधित्व है। ब्रिटेन और फ्राँस की स्थिति भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। ब्रिटेन के निचले सदन ‘हाउस ऑफ कामन्स’ की 651 में से 62 सीटें महिलाओं के पास है। फ्राँस की संसद में भी 577 सीटों में से 37 सीटें महिलाओं के पास हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, 1964 में संसदीय लोकतंत्र अपनाने वाले देशों की संसदों के निचले सदन में मात्र 3 प्रतिशत महिलायें थीं, जो 1994 तक बढ़कर 11.7 प्रतिशत हो गयी हैं। संसदीय प्रणाली के पिछले 50 वर्षों के इतिहास में 147 में से 38 देशों की संसद ने संचालन का काम कभी न कभी महिलाओं को सौंपा है। महिलाओं की संसद में न्यूनतम भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अर्जेन्टीना, बेल्जियम, उत्तर कोरिया, नेपाल, ब्राजील और फिलीपीन के कानून बनाए हैं। आँकलन के अनुसार सेंटकीट्स, लिथुआनिया, अजरबेजान, स्पेन, न्यूजीलैण्ड की संसदों में महिला भागीदारी लगातार बढ़ रही है।

चीन में सरकारी पदों पर कार्य करने वाली महिलाओं में अद्भुत प्रगति हुई है। आज चीन में 38.8 प्रतिशत सरकारी पदों पर अर्थात् 1 करोड़ 32 लाख 80 हजार महिलाएँ आसीन हैं। 1949 में चीन जनवादी गणराज्य की स्थापना के दौरान जितनी महिलाएँ सरकारी पदों पर कार्यरत थीं, आज यह संख्या उससे 200 गुना अधिक है।

ईरान जैसे कट्टर इस्लामी देश में भी मोहम्मद खातमी के राष्ट्रपति बनने के बाद जो उदार हवा बही है, उससे वहाँ की महिलाओं के लिए एक मार्ग खुला है। पहली बार एक महिला श्रीमती मसामा इब्तेकार को उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पद पर नियुक्ति किया गया है, जो ईरान के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना रही। इससे विभिन्न दिशाओं में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा है। उधर दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला के आने से पूर्व तक महिलाओं की स्थिति दयनीय थी। सत्ता में आने के बाद उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप आज 454 सदस्यीय संसद 118 सदस्य महिलायें हैं। गत 3 फरवरी को स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकारों की घोषणा हुई। महिला साँसदों में लिड़िया कोम्पे जैसी ग्रामीण मूल की महिलायें भी हैं, जिनका जन्म गरीब घर के टूटे-फूटे मकान में हुआ था। इसके परिणाम- स्वरूप वहाँ की ग्रामीण, सिलाई-कढ़ाई जैसे छोटे-मोटे कार्यों द्वारा स्वावलम्बन एवं परिवार पोषण का शिक्षण ले रही हैं।

अबला समझी जाने वाली नारी आज उन क्षेत्रों में कुशलतापूर्वक पदार्पण कर चुकी हैं, जिसे कभी पुरुषों के लिए विशिष्ट रूप से आरक्षित माना जाता था। अभी तक देश में रेल, टैक्सी, बस, ऑटो रिक्शा जैसे वाहनों को चलाने का काम जोखिम भरा होने के कारण पुरुषों का माना जाता था, किन्तु इधर के एक-डेढ़ दशक में महिलाओं ने इस मिथक को तोड़ दिया है। दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा आदि विभिन्न प्रान्तों में महिलायें बस, टैक्सी, ऑटो रिक्शा ही नहीं, बल्कि रेल इंजन ड्राइवर का कार्यभार कुशलतापूर्वक संभाल रही हैं। केरल के कोझीकोड़ जिले में 28 महिलायें ऑटोरिक्शा चलाती हैं। इनमें से एक मुस्लिम महिला सईदा अल्बया जिकायाँ भी है, जो परम्परागत मुस्लिम परिधान पहनकर ऑटोरिक्शा चलाती है। कोझीकोड़ में ही वी.टी. थेरोसियम्मा 15 वर्षों से प्रतिदिन 16 किलोमीटर पैदल चलकर डाक बाँटती हैं।

पहले कभी महिलायें ऑफिस नौकरी तक ही सीमित रहती थीं, आज व्यवसाय के क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। ‘फेडरेशन ऑफ इंडियन चैर्म्बस ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री’ की महिला शाखा की सेक्रेटरी शिप्रा चटर्जी के अनुसार, महिलायें जन्मजात व्यवसायी होती हैं। घर चलाना, बढ़ती महँगाई के युग में आर्थिक सन्तुलन बनाये रखना, बच्चों की पढ़ाई को संभालना, परिवार के सभी सदस्यों से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना, ये सभी बातें व्यावहारिक ज्ञान, संवाद कुशलता, मानसिक सन्तुलन व बुद्धि-विवेक की माँग करती है, जो कि किसी भी व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक गुण हैं। उपरोक्त संगठन की शुरुआत 1983 में 25 महिला सदस्यों के साथ हुई थी, जो आज 750 महिलाओं को प्रतिशत अपने में भर्ती कराता है।

‘विश्व श्रम संगठन’ एवं स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट कोआरेशन एजेन्सी की सामूहिक रिपोर्ट के अनुसार महिला व्यवसायियों की संख्या में उत्साह जनक वृद्धि हुई है। 1980 व 90 के बीच इनमें 8.25 प्रतिशत से 9.85 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में कुल 1518 में से 354 अर्थात् 23.3 प्रतिशत महिला व्यवसायी हैं।

अपने घर की चारदीवारी के बाहर पुरुष प्रधान क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाओं में एक नाम है- प्रोमिला मदान, जो गत 30 वर्षों से अपने पति के साथ साझेदारी में एक निजी जासूस की हैसियत से अपनी ही कम्पनी ‘गोलियस डिअक्टिव एजेंसी’ में कार्य कर रही हैं। अनिश्चितता एवं खतरे से भरे इस व्यवसाय को अन्य महिलाएँ भी अपना रही हैं। प्रोमिला की जासूसी कम्पनी में इस समय 130 महिला कर्मचारी कार्यरत हैं और उनका कहना है कि महिलायें पुरुषों की अपेक्षा अधिक बेहतर जासूस साहिब होती हैं।

शिवाजी शर्मा इन दिनों गिनी-चुनी महिला प्रेस फोटोग्राफरों में से एक हैं, जो दंगों, प्रदर्शनों, चुनावों व कभी-कभी तो आतंकवादियों को भी अपने कैमरे में कैद करने का साहस करती हैं। वागेश्वरी देवी भारत की एकमात्र शहनाई वादक महिला हैं, जिन्होंने पुरुष व्यवसाय माने जाने वाले शहनाई वादक को चुना है। वह भारत के बाहर विदेशों में भी अपनी कला का जौहर दिखा चुकी हैं। ऐसे ही सुषमा टकयार दिल्ली शेयर बाज़ार की एक दक्ष दलाल हैं। मनीषा बावर्ची हैं, जो अपने पेशे को कुशलतापूर्वक अंजाम दे रही हैं।

महिलाओं को शारीरिक दृष्टि से अबला, कोमलाँगी व दुर्बल समझे जाने का प्रचलन है, इसलिये पौरुष प्रधान सैन्य क्षेत्र में महिलाओं के प्रवेश को विशेष प्रोत्साहन नहीं मिला करता था, लेकिन पिछले कुछ सालों से महिलाओं की इस स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। सेनाध्यक्ष जनरल रोड्रिग्स के कार्यकाल में महिलाओं की सेना में भागीदारी की बात चली थी। आज सैन्य सुरक्षा के हर क्षेत्र में महिलाएँ अपनी सुरक्षा के हर क्षेत्र में महिलाएँ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।

थल सेना में महिलाओं का प्रथम बैंच 1993 में शुरू हुआ। इसमें केवल 25 महिलाओं का चयन हुआ था। सेना के प्रति महिलाओं के रुझान को देखते हुए दो साल के अन्दर भरती संख्या को दुगुना कर दिया गया, अर्थात् हर छह माह के बाद लगभग 50 महिलाओं को लिया जाता है। सेना की ओर महिलाओं का बढ़ता रुझान एक आश्चर्यजनक एवं महत्वपूर्ण बात है, विशेषकर जबकि आज के युवा वर्ग में यह रुझान कम हो रहा है। इसी तरह महिलाओं ने वायुसेना में भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। 1993 में भारतीय वायुसेना में पहली बार चुनी गयी नौ महिलाओं ने प्रशिक्षण प्राप्त कर उड़ान भरी व विमान चालक के रूप से अपनी योग्यता सिद्ध की। अब तक वायुसेना में 14 महिला पायलटों की भर्ती हो चुकी है। भारतीय नौ सेना में भी युद्ध पोतों में दो महिला अफसरों की नियुक्ति की गयी है। अब तक नौ सेना में ऑफिस कार्यों तक ही महिलाओं की सक्रियता सीमित थी। करनाल में जन्मी कल्पना चावला इस माह अंतरिक्ष में जाने वाली ‘नासा’ अभियान की पहली भारतीय महिला बन गयी हैं।

विश्व के दूसरे देशों में भी महिलाएँ सेना में प्रवेश पा रही हैं। इनमें डेनमार्क, नीदरलैंड, नार्वे प्रमुख हैं। रूस में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से महिलाओं को शस्त्र चलाना सिखाया जा रहा है। बेरुल, लेबनान व सउदी अरब जैसे देशों में महिलाओं को रक्षा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। स्विट्जरलैंड में महिलायें गत 50 वर्षों से सेनाओं में काम का रही हैं। इजराइल में महिलाओं को वास्तविक युद्ध का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। खाड़ी के युद्ध में महिलाओं की भागीदारी इस सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है, जिसमें उन्होंने इतिहास का यह मिथक तोड़ दिया कि महिलायें युद्ध क्षेत्र में भाग नहीं ले सकतीं।

खेल के क्षेत्र में भी महिलाओं ने पुरुष प्रधान खेलों में प्रवेश किया है व अपनी कीर्ति को चार चाँद लगा रही हैं। भारोत्तोलन जैसे शारीरिक शक्ति प्रधान खेल में कुँजुरानी, मल्लेश्वरी, सुमिता सिंह व भारती सिंह आदि नाम उल्लेखनीय हैं, जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर रही हैं। कुँजुरानी ने तो अपना नाम विश्व के सौ श्रेष्ठ भारोत्तोलकों की सूची में जिसमें सात महिलायें हैं, दर्ज करवाया है, जो सारे देश के लिए गौरव की बात है। मल्लेश्वरी इसमें विश्व रिकार्ड स्तर की उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं। गोल्फ एक ऐसा खेल है, जिसमें पुरुष भी कम ही खेलते हैं, लेकिन भारतीय गोल्फ संगठन की स्थापना कर गोल्फ की महिला खिलाड़ियों ने इस क्षेत्र में भी अपना दखल जमा दिया है। वंदना अग्रवाल, सिमि मेहरा, शालिनी मलिक आदि आज भारतीय गोल्फ के कुछ चर्चित नाम हैं।

इसी तरह पर्वतारोहण एक ऐसा रोमांचक, साहस भरा एवं कठिन कार्य है, जिसमें सामान्यतया पुरुष भी जाने से कतराते हैं, लेकिन भारतीय नारी इस क्षेत्र में भी अपना सिक्का जमा चुकी है। बछेन्द्री पाल, विश्व की सबसे ऊँची चोटी माउण्ट एवरेस्ट पर झंडा गाड़ने वाली पहली भारतीय महिला हैं। संतोष यादव, डिकी डोलमा ने भी एवरेस्ट के शिखर पर पताका फहराकर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। दीपू शर्मा, राधा देवीख् सुमन कौटयाल, सविता मतोलिया आदि अपने दृढ़ निश्चय, साहस एवं आत्मविश्वास के आधार पर इस दिशा में आगे बढ़ने में संलग्न हैं। इस वर्ष स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर बछेन्द्रीपाल के नेतृत्व में आठ महिलाओं के दल ने अपने साहस एवं जीवट के बूते हिमालय पर्वत की 4200 किलोमीटर लम्बाई को साढ़े सात माह के अन्तराल में मथ डालने का दुस्साहस भरा कार्य किया। इस यात्रा में उन्होंने इस हजार फीट से अधिक ऊँचाई पर स्थित 40 दरों को पार किया व कई हिमालय की चोटियों पर भारतीय झण्डे फहराएँ । यात्रा के अन्तिम पड़ाव में यह दल शून्य से भी 20 डिग्री सेंटीग्रेड कम तापमान पर, ग्लेशियर पर तेज बर्फीली हवाओं और पाकिस्तानी गोलीबारी के बीच देश के सर्वाधिक उत्तरी बिन्दु इंदिरा कर्नल पर पहुँचा और राष्ट्रीय ध्वज फहराया।

अंटार्टिक अभियान भी एक अत्यन्त जोखिम एवं रोमांच भरा अभियान है। वर्ष में केवल एक बार ही गिनती के विशिष्ट वैज्ञानिक वहाँ शोध के लिए जाते हैं। बर्फ से ढके इस क्षेत्र में जीवन अत्यन्त विषम है। जन-जीवन नहीं के बराबर है। फिर भी अपने देश की महिलाओं ने इस अभियान में हिस्सा लेकर अपने साहस का परिचय दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी महिलाओं ने आश्चर्यजनक रूप से प्रगति की है। उन्होंने पुरुषों को काफी पीछे छोड़ दिया है। दिल्ली महिला आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 1951 में शिक्षित महिलाओं की संख्या कुल 6 प्रतिशत थी, जो 1981 में बढ़कर 61 प्रतिशत हो गयी। इससे पता चलता है कि दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में कितनी तेजी से विकास हुआ है। दिल्ली के शहरी क्षेत्रों में 69 प्रतिशत व ग्रामीण क्षेत्रों में 52 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में लड़कियों के पास होने का प्रतिशत 79 रहा, जबकि छात्रों का प्रतिशत 69.1 रहा। दिल्ली में छात्राओं की उत्तीर्ण दर 76.5 प्रतिशत रही, जबकि छात्रों का प्रतिशत 63.1 रहा। उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा परिषद की इंटरमीडिएट एवं हाईस्कूल परीक्षा परिणामों में लड़के क्रमशः 62,41 एवं 40.32 प्रतिशत उत्तीर्ण हुए, जबकि लड़कियों का उत्तीर्ण प्रतिशत क्रमशः 82.39 प्रतिशत एवं 69.57 प्रतिशत रहा। पिछले वर्ष भी छात्राओं की उत्तीर्ण दर छात्रों से बेहतर थी।

भारत ही नहीं विदेशों में भी लड़कियाँ प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूली परीक्षाओं में लड़कों को पीछे छोड़ रही हैं। इंग्लैण्ड एवं वेल्स की इकुअल ऑपरचुनिटी रिपोर्ट के अनुसार वहाँ की जी.सी.एस.ई. परीक्षाओं में 48.1 प्रतिशत लड़कियों के ए.बी.सी.डी. ग्रेड पाँच या पाँच से अधिक विषयों में थे, जबकि लड़कों का यह प्रतिशत 39 ही था। रिपोर्ट के अनुसार, 1995 में जहाँ 124 लड़कियाँ स्कूल से बाहर निकलीं, वहाँ लड़कों की संख्या उससे पीछे 100 की थी।

श्रम शक्ति के आधार पर भी महिलाएँ पुरुषों से बहुत आगे निकल रही हैं। यू.एस. ब्यूरो ऑफ लेबर स्टेटिस्टिक्स के अनुसार, अमेरिका में श्रमशक्ति के क्षेत्र में पुरुषों की भागीदारी 1950 की 90 प्रतिशत, 1995 की 75 प्रतिशत तक कमी आयी है, जबकि महिलाओं की भागीदारी 30 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक बढ़ी है।

विश्वभर में साहित्यिक क्षेत्र में भी लेखन एवं पठन दोनों क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। पुस्तक व्यापार में यह एक व्यापक विश्वास है कि महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक पुस्तकें खरीदती हैं। उपन्यास व कहानियों में प्रकाशकों की धारणा है कि महिलायें महिला लेखक की पुस्तक पसन्द करती हैं। टाइम की सूची में गत पाँच वर्षों में प्रकाशित कल्पित साहित्य के महिलाकरण के सन्दर्भ में कहते हुए टाइम वार्नर ट्रेड पब्लिशिंग के चेयरमैन लारेंस कृषबाम का कहना है कि ऐसा लगता है कि नारी जाग्रति की एक तरह की लहर-सी उठी है। अमेरिकन बुकसेलर एसोसिएशन के अनुसार, फिक्शन साहित्य के खरीददारों में महिलायें 59 प्रतिशत होती हैं व पुरुष 41 प्रतिशत। गैर फिक्शन साहित्य में महिलायें 53 प्रतिशत थीं व पुरुष 47 प्रतिशत। सक्राइबनर के सहसम्पादक जेनरोमन-मन का कहना है कि गत 20 वर्षों में प्रथम श्रेणी की लेखिकाओं की एक बाढ़-सी आ गयी है। अभी हाल में ही अपने देश की महान लेखिका अरुन्धती राय की कृति ‘द गॉड स्माल थिंग्स’ ने पूरे विश्व में धूम मचा रखी है। इसी के लिए उन्हें साहित्य के विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित ‘बुकर’ पुरस्कार से नवाजा गया है। इस आधार पर ‘द इकॉनामिस्ट’ पत्रिका ने चौंकाने वाला तथ्य प्रकट किया है कि आगामी दुनिया में भविष्य महिलाओं का होगा।

महिलाओं में तनाव सहने की क्षमता भी पुरुषों की अपेक्षा अधिक पायी गयी है। ‘डिफैन्स इन्स्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च’ नई दिल्ली की शोध के अनुसार, पुरुष एक्जीक्यूटिव, महिला एक्जीक्यूटिव की अपेक्षा तनाव के अधिक शिकार होते हैं। यह अध्ययन 80 स्त्री एवं 80 पुरुषों पर किया गया था, तो पब्लिक सेक्टर में एक जैसी शैक्षणिक योग्यता, आयु, प्रबन्धन स्तर, अनुभव व वैवाहिक जीवन से जुड़े थे। इसी आधार पर दीर्घकालीन कर्मी के रूप में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ माना जा रहा है। लगता है भविष्य के अनुरूप प्रकृति भी उन्हें अपेक्षाकृत अधिक क्षमतावान् एवं प्रतिभावान के रूप गढ़ रही है।

यह सत्य है कि महिलाएँ अब लम्बी अंधेरी रात्रि के बाद जाग उठी हैं। उन्हें अपनी गरिमा का बोध हो रहा है कि वह किसी भी तरह पुरुष से कम नहीं। नारी चेतना में जाग्रति की यह आँधी अब अपने गौरवपद से वंचित करने वाली सारी प्रतिकूलताओं व बाधाओं को उखाड़ फेंकेगी व अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही दम लेगी। इसके प्रगतिशील चरणों को अब कोई रोक नहीं सकता। आखिर युगपरिवर्तन के अधिष्ठाता महाकाल का भी तो यही संकल्प है, जिसने स्पष्टतः 21वीं सदी को नारी सदी के रूप में उद्घोषित किया है। बेहतर होगा कि अपने पौरुष एवं श्रेष्ठता का दम्भ भरने वाला पुरुष अब चेत जाए व नारी शक्ति के सर्वांगीण उत्कर्ष में बाधक बनने की बजाय उसको हर तरह से सहयोग दे।


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