संकल्प-शक्ति में है असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य

December 1997

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मनुष्य में संकल्प और इच्छा की शक्ति सर्वोपरि है। वह जैसी इच्छा करता है, वैसा ही बनने लगता है, उसकी श्रद्धा जैसी होती है, वह उसी के अनुरूप ढलने लगता है। आप्तवचन भी इसी की पुष्टि करते और कहते हैं कि इसमें इतनी अपार क्षमता है कि व्यक्ति कहीं-से कहीं पहुँच सकता और कुछ-से-कुछ बन सकता है। यहाँ तक कि गम्भीर रोगों से छुटकारा पाकर आरोग्यता उपलब्ध करना और स्वस्थ-सानन्द जीवन गुजार सकना इसके द्वारा सहज सम्भव है। समय-समय पर प्रकाश में आने वाले उदाहरण इसकी पुष्टि करते हैं।

ऐसा ही एक प्रसंग एरिक फ्यूच्स का है। न्यूयार्क निवासी इस प्रबन्ध सलाहकार ने इन दिनों विज्ञान जगत में धूम मचा रखी है। उसके बारे में कहा जाता है कि उस पर एड्स जैसे जानलेवा रोग के विषाणुओं का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वैज्ञानिक उसकी इस विलक्षणता से आश्चर्यचकित हैं और उसके रक्त-नमूनों का अध्ययन-विश्लेषण कर रहे हैं एवं उसमें एड्स वायरस प्रविष्ट कराने की कोशिश में लगे हैं। अब तक के इस प्रयास में उन्हें असफलता ही हाथ लगी है। इस सम्बन्ध में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के शरीर शास्त्री बी. मैकगर्थ का कहना है कि उसके रक्त में निश्चय ही ऐसा कोई तत्व है, जिसके कारण गम्भीर-से गम्भीर रोग के जीवाणु वहाँ निष्क्रिय एवं निष्प्राण हो जाते हैं। यह भी सम्भव है कि वह असाधारण तत्त्व किसी विषाणु के शरीर में प्रवेश करते ही सबल-सशक्त एण्टीबाडीज प्रहरियों की विशाल सभा सेना खड़ी करने की प्रेरणा देता हो। यह तो रुधिर के अध्ययन से ही ज्ञात हो सकेगा कि वह तत्त्व आखिर है क्या?

दूसरी ओर एरिक का इस बारे में कहना है कि विज्ञानवेत्ताओं को उसके रक्त में किसी प्रकार की विशेषता तलाश करने की अपेक्षा इसे उसकी विशिष्ट मानसिक संरचना का परिणाम मानना चाहिये। उनका विश्वास है कि व्यक्ति में यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो, तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को किसी अभेद्य दुर्ग की तरह इतना मजबूत बनाया जा सकता है कि उसमें किसी विषाणु का प्रवेश पाना और जीवित रह जाना सरल नहीं।

यों इन दिनों उनके रक्त की जाँच अमेरिका की विभिन्न प्रयोगशालाओं में चल रही है, पर वैज्ञानिकों को उसमें किसी ऐसे तत्व को ढूँढ़ निकालने में आज तक किसी प्रकार की कोई सफलता नहीं मिली, जिसके आधार पर वे यह दावा कर सकें कि उक्त विशेषता अमुक कारण से है। कई दवा कंपनियां उनके खान-पान और दिनचर्या का अध्ययन कर रही हैं। अनेक मनोवैज्ञानिक और मनःचिकित्सक उनकी मानसिक बनावट को समझने का प्रयास कर रहे हैं एवं घण्टों तक उनसे तरह-तरह के प्रश्न करते हैं।

आजकल एरिक अमेरिका की एक एड्स अनुसंधान परियोजना के लिए उदारतापूर्वक रक्तदान कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि उनके इस कार्य से एड्स-उन्मूलन में सहायता मिलती है, तो वे स्वयं को धन्य मानेंगे।

40 वर्षीय एरिक से जब यह सवाल किया गया कि एड्स की समाप्ति के लिए वे समाज की किस प्रकार की सेवा-सहायता करना चाहेंगे, तो उनका उत्तर था कि वैसे तो चिकित्साशास्त्री उनके रक्त को ही सब कुछ मान बैठे हैं और उसे चमत्कारी कर रहे हैं, पर मेरा विचार इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि यदि लोगों की मानसिक दृढ़ता प्रखर हो, तो कोई कारण नहीं कि वे इस प्रकार के चमत्कार बीमारियों के सन्दर्भ में न उत्पन्न कर सकें।

इसके विपरीत विज्ञानवेत्ता इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं कि एरिक के रक्त के नमूनों से क्या कोई सफल तथा कारगर औषधि बना पाना सम्भव है क्या? यों तो इस सम्भावना से अनुसंधानकर्ता सर्वथा इनकार नहीं करते, किन्तु यहाँ एक नैतिक प्रश्न आड़े आ जाता है। वे कहते हैं कि उक्त रक्त से कोई टीका अथवा इंजेक्शन जैसी औषधि बनायी तो जा सकती है, पर कठिनाई यह है कि इतना खून कहाँ से आये, जो विश्वभर में फैल करोड़ों रोगियों की औषधि की आवश्यकता पूरी कर सके? यदि एरिक को अधिकाधिक रक्त उत्पन्न करने वाली दवाइयाँ खिलाकर उनसे नियमित रूप से जल्दी-जल्दी रक्तदान कराया जाये, तो क्या यह वर्तमान के उन गाय-भैंसों जैसा उदाहरण नहीं होगा, जिन्हें ऑक्सीटोसीन एवं सोमेटोट्रोफिन (बी.एस.टी.) जैसे हारमोन-इंजेक्शन लगाकर अधिकाधिक दूध प्राप्त करने के नाम पर उनका रस-रक्त निचोड़ लिया जाता है? इसे नैतिक कैसे कहा जाए? दाता की सहमति और स्वीकृति होने पर भी यह मानवीयता के अंतर्गत नहीं आता। इसे अमानवीय स्तर का आसुरी व्यवहार ही कहना पड़ेगा। कोई उच्च आदर्शवादी मानवी संस्कृति इसकी अनुमति कभी नहीं देगी।

एरिक का यह मानना अभी अनसुलझा ही था कि इस क्षेत्र में एक अन्य धमाका हुआ। जूड़ी अपने दो वर्षीय बेटे के साथ सीटल, अमेरिका में रहती है। सन् 1989 में जब उसके पहली संतान हुई, तब वह 20 वर्ष की थी और गर्भधारण से पूर्व ही एड्स ग्रस्त हो चुकी थी। इसे वह भली-भाँति जानती थी, किन्तु मृत्यु का तनिक भी भय उसे नहीं था। चिन्ता और आशंका जैसे उसकी प्रकृति में थी ही नहीं। जिन बातों से सर्वसाधारण की रातों की नींद और दिन का चैन छिन जाता है, वैसी परिस्थितियाँ भी इसकी शान्ति भंग नहीं कर पाती थीं। वह एकदम स्वच्छन्द विचारों की थी। मस्ती में आने पर कहा करती कि ईश्वर ने हमें यह जीवन चिन्तित रहने के लिए नहीं, सुख भोगने के लिए दिया है। हम अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करें और आनन्दपूर्वक रहें, जीवन का यही आदर्श होना चाहिए।

जूड़ी के जब पहला बच्चा हुआ, तो वह भी एच.आई.वी. पाजेटिव (रोगग्रस्त) पाया गया। कारण स्पष्ट था- माता के पाजेटिव रहते बच्चा कदाचित् ही निगेटिव (नीरोग) देखा गया है। सन् 1992 में जूड़ी दूसरी बार फिर गर्भवती हुई। गर्भावस्था के आरंभिक दिनों में वह एड्स ग्रस्त (एच.आई.वी. पॉजिटिव) थी, किन्तु उसने जिस बच्चे को जन्म दिया, वह एच.आई.वी. निगेटिव था अर्थात् पूर्णरूपेण स्वस्थ। डाक्टर चौंके। कहीं परीक्षण में गलती तो नहीं हुई। इसके निराकरण के लिए उन्होंने सावधानीपूर्वक अनेक बार बच्चे का परीक्षण किया। हर बार एक ही परिणाम प्राप्त हुआ कि शिशु नीरोग है। चिकित्सक हैरान थे कि एक रोगग्रस्त माँ पूर्ण स्वस्थ शिशु को कैसे जन सकती है? उन्होंने जूड़ी की दोबारा जाँच की। इससे विदित हुआ कि वह तो पूरी तरह स्वस्थ है। उसके शरीर में एच.आई.वी. वायरस तो है ही नहीं। यह आश्चर्य की बात थी, कारण कि इससे पूर्व अलग-अलग समयों की जाँच, रिपोर्ट्स जूड़ी और उसकी प्रथम संतान को एड्स ग्रस्त बता रही थीं। चार बार के परीक्षणों में हर बार दोनों रोगग्रस्त पाये गये। फिर अचानक जूड़ी इस रोग से स्वतः मुक्त कैसे हो गई? जबकि उसने कोई उपचार कराया नहीं। चिकित्सकों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है। एड्स रोग के इतिहास में यह अपने प्रकार की पहली घटना है, जिसमें रोगग्रस्त होने के बाद रोगी उससे मुक्त हो गया हो। जूड़ी की पारिवारिक चिकित्सक लीसा फ्रैंकेल स्वयं इस घटना से हतप्रभ हैं। वह इस बात से इनकार करती हैं कि जाँच प्रक्रिया में कहीं कोई गड़बड़ी हुई है। वे कहती हैं कि यदि ऐसा होता, तो अलग-अलग समयों और अस्पतालों कराये गये परीक्षणों के नतीजे एक-से नहीं होते। इसका कोई समुचित कारण बता पाने में वह भी असमर्थ है। पिछले एक दशक के शोध-अनुसंधान यह बताते हैं कि एक बार जो इस व्याधि से आक्रान्त हो गया, उसकी अन्तिम परिणति मौत है। ऐसी स्थिति में जूड़ी का एकदम स्वस्थ हो जाना विस्मयकारी ही कहलायेगा, जबकि उसका प्रथम बालक अब भी एड्स पीड़ित है।

इस घटना के बाद शोधकर्ता अब उसके भी रक्त के नमूने इकट्ठे कर रहे हैं। अनेक शोधशालाओं में उनका अध्ययन चल रहा है, पर यहाँ भी अध्ययनकर्ता अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं, क्योंकि जाँच में रुधिर बिलकुल साधारण पाया गया है। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में शोधरत स्काँटिश वैज्ञानिक डॉ. बिल पैक्सटन ने अपने अनुसंधान से यह तो सिद्ध कर दिया कि कुछ लोगों पर एड्स के विषाणु एकदम निष्प्रभावी होते हैं, पर वे निमित्त क्या हैं? जिस कारण वायरस निष्प्राण हो जाते हैं- यह बता पाने में वे असमर्थ रहे; लिवरपूल विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्री जे.सी.कूपर विभिन्न लोगों की प्रतिरक्षा प्रणालियों का अध्ययन कर इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि कुछेक व्यक्तियों में यह तंत्र इतना मजबूत होता है कि घातक-से-घातक रोगों के जीवाणुओं को भी लड़ाई में वे परास्त कर देते हैं, पर कुछ लोगों के शरीर रक्षातंत्र में ऐसी कौन सी-विशिष्टता होती है, जिसके कारण वे इतने सामर्थ्यवान बन जाते हैं? इसे स्पष्ट करने में वे भी असफल रहे।

इसी मध्य एक और घटना प्रकाश में आई। यह सत्तर के दशक के अन्तिम चरण की बात है। कैलीफोर्निया की एक महिला फ्रान पीवे का आपरेशन होना था। उसके लिए खून की आवश्यकता हुई, रक्त देकर उसका सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया गया। इस समय तक एड्स-वायरस का पता नहीं चला था। सन् 1988 के मध्य वह बीमार पड़ गयी और एक के बाद एक कई रोगों से आक्रान्त होती चली गई। इस दौरान एच.आई.वी. वायरस का पता चल गया था। चिकित्सकों को सन्देह हुआ कि कहीं उसको एड्स मरीज का खून तो नहीं दे दिया गया? कारण कि अच्छी-से-अच्छी से दवाएँ उस पर एक प्रकार के बेअसर साबित हो रही थीं। शंका-निवारण के लिए जब उसका रक्त-परीक्षण किया गया, तो आशंका सही साबित हुई। वह एड्स ग्रस्त निकली। पीवे को जब इसकी जानकारी हुई, तब अपने भाग्य को कोसने लगी और डाक्टरों की लापरवाही पर क्षुब्ध भी हुई, पर अब क्या हो सकता था। स्वयं को वह इसके लिए तैयार करने लगी, साथ-साथ योगाभ्यास करने लगी। प्रतिदिन लगभग आधे घण्टे तक वह नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करती। इतने पर भी उसका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। उसके मुँह में छाले पड़ गये, उसे निमोनिया हो गया, पाँव अकड़ने लगे, बीच-बीच में बुखार चढ़ आता, सर्दी-जुकाम भी बना रहता, इसके बावजूद उसके मनोबल को नहीं टूटने दिया। वह स्वयं से संघर्ष कर रही थी।

चिकित्सकों ने उसका गहन अध्ययन प्रारम्भ किया, तो उन्हें एक विलक्षणता नजर आयी। आमतौर पर एच.आई.वी. वायरस शरीर की सी.डी.,टी. कोशिकाओं को मार देता है, परन्तु यहाँ वैसा नहीं हुआ। आरम्भ में उसकी ‘टी’ कोशिकाएँ तो घटीं, किन्तु फिर अकस्मात् उनकी संख्या बढ़ने लगी। यही एक शुभ लक्षण था। इसी बीच सन् 1992 में उसे ब्रिसबेन यूनिवर्सिटी, आस्ट्रेलिया में विजिटिंग फैलोशिप मिली। आस्ट्रेलियाई विजा पाने के लिए एच.आई.वी. परीक्षण जरूरी था। उसे यह भली-भाँति विदित था कि परीक्षण का परिणाम रोग के पक्ष में देने पर उसका सम्पूर्ण शैक्षणिक जीवन ही निरर्थक बन जायेगा। तब वह कहीं बाहर आगे के अध्ययन-अनुसंधान के लिए न जा सकेगी। वह असमंजस में थी कि क्या करें, क्या न करें। इसी समय मन में विचार आया कि राष्ट्र निर्माताओं को गढ़ने वाले अध्यापकों को असत्य का सहारा नहीं लेना चाहिये। अस्तु, स्वास्थ्य के सम्बन्ध में आश्वस्त होने के लिए एक बार फिर वह एच.आई.वी. परीक्षण के लिए गई। आश्चर्य कि इस बार उसे एच.आई.वी. निगेटिव घोषित किया गया अर्थात् पीवे एड्स मरीज नहीं थी। इस पर उसे अचम्भा तो हुआ, पर उसने उसे एक बार फिर वह जाँच करवाने की सलाह दी। एक सप्ताह के उपरान्त पुनः वही परिणाम आया, तो वह चौंकी। चिकित्सकों ने उसकी कोशिकाओं का एक बार फिर अध्ययन किया। इस बार ‘टी’ कोशिकाएँ ही नहीं , ‘डी’ और ‘सी’ कोशिकाएँ भी सामान्य संख्या में पायी गईं। स्पष्ट था, पीवे रोगमुक्त हो चुकी थी, किन्तु कैसे? इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था।

संकल्प की शक्ति अजेय है। उसको जिस भी दिशा में लगा दिया जायेगा, वहीं चमत्कार उत्पन्न होने लगेंगे। विज्ञानवेत्ता इस बात से अनभिज्ञ हैं। वे अंगों की कटाई-छँटाई और रसायन प्रयोग द्वारा ही केवल स्वस्थ बनाने की विधा जानते हैं। यह शरीर-विज्ञान का एक पहलू हुआ और उसे सुधारने-संवारने की पदार्थपरक प्रक्रिया। इसका दूसरा सूक्ष्म पक्ष इतना सबल और सशक्त है कि उसके सहारे शरीर के कण-कण को इतना समर्थ, सशक्त और ऊर्जावान बनाया जा सकता है कि उसके आगे रोग और रोगाणु तो क्या, अन्तः के कल्याण भी जलकर भस्म हो जायें। इसे चेतना की शक्ति कह लें, संकल्प की शक्ति कह लें अथवा इच्छाशक्ति कह लें बात एक ही है।


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