या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थता

December 1997

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आधी रात का चाँद ऊपर आकर ठहर चुका था और मोयस के स्वरों की तड़प बढ़ती जा रही थी। उसकी बाँसुरी विराम नहीं ले रही थी। तोयसल सुने या न सुने, उसे तो गाना है, वह गाएगा और गाता ही जायेगा। उसकी बाँसुरी से निकलने वाली रागिनी उसके दिल का दर्द दूर-दूर तक फैले, इस वन प्रान्त में बिखेरती ही चली जायेगी। मोयस का कम्पित स्वर तड़प कर तेज और तेज हो गया, ‘ऐ खूबसूरत चाँद-सितारों की दुनिया की मलिका ! तेरा दीदार हमें हर रोज होता है, लेकिन ठीक तेरे तख्त के नजदीक मेरी जिन्दगी का कारवाँ नहीं पहुँच पा रहा और साल के साल के गुजरते जा रहे हैं।’

ऐ नीले आसमाँ की राजदाँ! वस्ल का वह हसीन लम्हा कब आएगा, जब मैं तेरे करीब, बहुत करीब हो जाऊँगा दिलकश मंजरों की ऐ मुजस्सिम बहार! खिजाँ ने मेरी उजाड़ जिन्दगी को हर रोज कुरेदा है कि उम्र के रास्ते पर तमन्नाओं के पीले मुरझाये पत्ते अपनी बदनसीबी की दास्ताँ बियाबाँ को बेताबी से सुनाते हैं और पूछते हैं कि ऐ बूढ़े बियाबाँ! तू अपने पुराने तजुर्बे से बता कि बहार आने में अभी कितनी मंजिल बाकी है।

इसी आशय का एक गीत मोयस की बाँसुरी से प्रस्फुटित हो रहा था। सहसा बिजली की तरह तेज और खीझ भरा स्वर गूँज उठा- मोयस! हमारे सोने का वक्त हो गया, लेकिन तुम्हारा यह तराना बन्द होने नहीं आया। अब रहम भी करो इस बियाबान पर......। मोयस गाते-गाते ठहर-सा गया। तोयसल एक-एक कदम मरदाने ढंग से मजबूती से रखती आयी- बढ़ती आयी और ठीक मोयस के सामने आ खड़ी हुई।

दोनों हाथों कमर पर टिक। बड़ी-बड़ी नरगिसी आँखें रौब से स्थिर। पिंगल केश गुलाबी रूमाल में बंधे। जिसमें से एक दो लटें ढिठाई से हवा में लहरा रही थीं। कमर में तेज धार का पेशकब्ज। हाथ में लम्बा-सा खौफनाक चाकू, जिसके दोनों तरफ की तेज धार रात की चाँदनी में विद्युत की तरह चमक रही थी। दूसरे हाथ में अंगूरों से लदी एक लता, जी चाँदनी की छठा में इतराए जा रही थी।

मोयस को मालूम है कि तोयसल कई-कई शकवीरों को मुल्केअदम की राह दिखा चुकी है, फिर भी वह उसे मासूम समझा है, कुछ ऐसा ही तोयसल का मासूम रूप मोयस की मोहाँध आँखों में बसा है, लेकिन इस वक्त न जाने तोयसल के इस रूप को देखकर वह एक अजीब से ख्याल से चौंक उठा। तोयसल की आँखों में उसे खूनी प्यास उफान लेती दिखाई दे गयी।

मोयस! इस तरह बदहवास होकर मेरा मुँह क्या ताकते हो? जानते हो मेरा काफिला हमेशा इन बियाबानों में अपना पड़ाव क्यों डालता है?

हाँ! शायद आबादी से ऊब पैदा हो गयी है तुम्हें।

तुम्हारा ख्याल गलत है मोयस! ध्यान से देखो इन्हीं बियाबनों में हमारी तुम्हारी कौम के बेशुमार लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, उनके कातिलों के सरदार का भी तुम्हें जरूर पता होगा?

ओह! सेनापति विक्रम की बात करती हो तुम! देखता हूँ तुम्हारा गुस्सा अभी तक गया नहीं तोयसल! विक्रम को तुम भूल नहीं सकीं।

हँ, हँ! यह आवाज एक मर्द बेटे की नहीं हो सकती। मोयस! अच्छा होता कि तुम किसी की दुख्तर बनकर पैदा होते। अरे बेवकूफ! इस जवाँ मर्द की वजह से हम अब सदियों तक सिर उठा कर चलने की ताख खो बैठे। हमारी गर्दनें हमेशा के लिए सिपहसालार विक्रम ने झुका दी है या कि कहो उतार दी है और तुम हो कि उसी को भूलने की बात कहते हो।

क्या बात है तोयसल! तुम मुझ पर नाराज हो या फिर विक्रम पर मेहरबान हो गयी हो? मोयस का संगीत हिरन हो गया।

स्वाल सुनकर तोयसल ने लम्बी-गहरी साँस खींची और धवल चाँदनी की चादर ओढ़े जंगल को देखते हुए कुछ सोचने लगी। फिर धीर-धीरे बोली- काश! वह सिपहसालार मुझे कहीं मिल सकता, सिर्फ चन्द लमहों के लिए। तो फिर मैं उससे सिर्फ एक सवाल करती।

उसके बाद?

मैं उसे काल कर दूँगी, क्योंकि आम शक युवकों की ही तरह शायद वह भी एक औरत के नजदीक कमजोर साबित होगा जिस्मानी प्यास से तड़पता एक बुज़दिल कीड़ा..... अपनी बात को अधूरी छोड़कर वह एक ओर तेजी से मुड़ी। वह कुछ और आगे बढ़ती, तभी उसके सामने मोयस अपनी दयावनी सूरत लिए कहने लगा- काश! तुम मुझे समझ पाती तोयसल!

तोयसल की उजली सपाट पेशानी पर कई सलवटें उभर आयीं। तेज आवाज में बोली- मोयस! बको मत। खामोशी से खेमे में जाओ और सो जाओ। उसे एक ओर छोड़कर अपनी तलाश में आगे बढ़ गयी।

वह जिसकी तलाश में थी, वह महावीर विक्रम अभी जाग रहा था। उसकी आँखों में न आलस्य था, न नींद। यों भी वह रात्रि में नहीं के बराबर ही सोता था। सैनिकों की थकान का विचार करके ही वह पड़ाव डालता था, अन्यथा वह तो चाहता है कि उसकी सैन्यवाहिनी कभी रुके नहीं, कहीं विराम न लें। रात के हाथ भी न रोक सकें उसको।

विक्रम के नाम से समूचे भारतवर्ष को आश्वस्त कर दिया था। शकों के हिंस्र और बर्बर कृत्यों ने अवन्ती ही नहीं, समूचे देश की जनता को आक्रान्त कर रखा था। किसी शान्तिप्रिय गृहस्थ की सुकुमारी कन्या को उठा ले जाना, उसका सर्वस्व हरण कर लेना, मनचाही लूट-पाट मार-पीट उनके सर्वमान्य दैनिक कृत्य थे। शक होना ही आतंक का पर्याय बन गया था। महाराज भतृहरि के संरक्षण एवं वीर विक्रम के सैन्य-संचालन में देश की जनता ने शकों से मुक्ति पायी थी। महाराज भर्तृहरि ने विक्रम को उज्जयिनी राज्य का युवराज सर्वोच्च कर्ता-धर्त्ता महासन्धि विग्रहक, परम भट्टारक, सेनापति समिति का प्रधान नियुक्त किया था। देश की जनता उन्हें शकारि एवं वीर विक्रम के नाम से जानती थी। शत्रु उनके नाम से काँपते थे।

शकों की बर्बरता को समाप्त करने वाले विक्रम अभी नवयुवक ही थे। उनका सुगठित प्रचण्ड पौरुषवान देव-दुर्लभ शरीर देखने वालों के मन को बरबस आकर्षित कर लेता था। उनके चेहरे पर महासंयम का ज्योतिसागर लहराता था। आँखों में एक अनोखी तेजस्विता की दीप्ति थी, जो शत्रुओं एवं अपराधियों में भय का संचार करती थी।

शकों को युद्ध में परास्त करने के पश्चात् अभी वह अपने सैनिक शिविर में ही थे। वहीं सौंदर्यवान ज्योतिकलश-सा अपूर्व मुखमण्डल। पतली नोंकदार मूँछें, तनिक ऊपर को चढ़ी हुई। आँखों में वीर दर्प। दृढ़वद्ध ओष्ट पुटों पर अजेयता की, अडिग निश्चय की रेखा। निरन्तर इन्द्रिय निग्रह का महातेज, अस्वाभाविक गौर स्वर्णिम शरीर। फौलादी लम्बी भुजाएँ । शिरस्राण विहीन मस्तक के पृष्ठ भाग में लम्बे काले बाल लहरा रहे थे। बगल में प्रलम्ब प्रखर नग्न कृपाण दमक रही थी- सुदीर्घ मल्ल वहीं पास में आड़ खड़ा था। विक्रम का यह रूप ही सच है। युद्ध और युद्ध, विजय और विजय। एक पर एक नित नये अभियान। शत्रु-सेनाओं के पीठ दिखाकर भागते सैनिक, उनके हाँफते फेन उगलते भयकातर घोड़े और उन सेनाओं का सतत् पीछा करती उनकी विजयवाहिनी। महावीर विक्रमादित्य को यह दृश्य प्रत्यक्ष देखने का व्यसन था- जीवन व्यसन।

एक भी सशस्त्र शक सैनिक जिन्दा वापस न लौटे, विजयोपरान्त उनका अन्तिम आदेश होता और शकों के पैर भारत की धरती से उखड़ते चले गये। वीर विक्रम को युद्ध अच्छा लगता, विजय अच्छी लगती और शत्रु-सेनाओं को पलायन रुचता। शत्रुओं के समूह में अपना गौरव-ध्वज फहराते वह दिन को भी देखते और रात को भी और वह केसरिया विजय-ध्वज भारतीय गौरव-मान का प्रदीप दिव्य लोक-सा वह अल्प-सा वस्त्र खण्ड उनकी आँखों में रम गया था। वह उन्हें प्रेरणा देता- विजय के लिए नये अभियान का संदेश देता। शत्रु मर्दन और देश-सीमा को निर्भय बनाने को उद्यमिता प्रदान करना। इस भाव के सिवा उसका कोई साथी न था।

उसकी चिर संगिनी तलवार थी, सदा की साथी। सुनील वायुवेगी अश्व था बस। वह राष्ट्रप्रेमी था, कभी कोई प्रमाद, विलम्ब अथवा थोड़ा भी अनिश्चय का प्रसंग प्रस्तुत होने पर वे खुद को ही दण्ड दे डालते थे, अत्यन्त कठोर हो उठते थे वे उस क्षण। उनकी सेना को उस दिन काफी परेशानी उठानी पड़ती। अपने आप पर क्रुद्ध होने पर वीर विक्रम रातों-रात कूँच कर जाते। बरसाती नदी में भी घोड़े डाल देते और बिना पुल के ही सैनिक सामग्री, शिविर आदि पर ले जाने का आदेश दे देते। कभी दुर्गम पहाड़ों पर भी शत्रु सैनिकों का पीछा करने व सत्वर संहार करने की आज्ञा दे डालते और उस क्षण वह स्वयं सेना के आगे होते।

विक्रम के जीवन में स्त्री के लिए न तो कोई मोह था और न ही वितृष्णा। सच तो यह है कि उन्हें स्त्री के रूप में और उसके सौंदर्य आदि गुणों पर सोचने का कभी मौका ही नहीं मिला था। स्त्री के रूप में वह घनिष्ठ रूप में माता सौम्यदर्शना से ही परिचित थे। दूसरे किसी रूप-विरूप की गति उनके जीवन में न थी।

अलबत्ता वह विजयोपरान्त स्त्रियों पर कभी हाथ न उठाते थे। यही नहीं, उन्होंने इसके लिए अपनी सेना को भी सख्त ताकीद कर रखी थी। अनेक अवसरों पर उन्हें शक स्त्रियों ने घर लिया, वे कृतज्ञ थीं उनकी, क्योंकि उन्होंने एक विजयी सेनानायक होते हुए भी उनके बच्चों को कत्ल नहीं किया था और उनके सैनिकों ने उनमें से किसी की अस्मत का सौदा नहीं किया था और उनके सैनिकों ने उनमें से किसी की अस्मत का सौदा नहीं किया था। हालाँकि तोयसल का अपना निजी विश्वास था कि विक्रम के खौफ की वजह से कोई शक औरत उनके करीब जाती ही न होगी, उस मलाव सेनापति के जज्बात की जानकारी किसी को होती तो कैसे? ये शब्द सिर्फ तायेसल के ही थे।

विक्रम अपने किसी अगले अभियान पर एकाग्र मन से सोच रहे थे। प्रहरी दल के तेज खरखराते स्वर गूँजे जा रहे थे। सहसा उन्होंने देखा कि एक प्रहरी उनके शिविर के द्वार के पास आ खड़ा हुआ है, लेकिन वह शीघ्र अन्दर आने का साहस नहीं कर पा रहा है। विक्रमादित्य ने पूछा-क्यों

एक लड़की आपसे मिलना चाहती है। मैंने भरसक उसे मना किया और सुबह आने को कहा, लेकिन वह अभी मिलने की जिद पकड़े हैं।

विक्रमादित्य को इसमें कोई अन्तर नजर नहीं आया कि प्रहरी ने उसे रोका क्यूँ ? लड़की-लड़के द्वैत पर उन्हें केन्द्रित होने का मौका ही कब मिला था? अतः उन्होंने स्वाभाविक तौर पर कहा- जाओ उसे भेज दो........।

प्रहरी गया और शीघ्र ही एक ऊँचे कद की गौरवर्ण की सुनहले बालों वाली अतिशय रूपवती लड़की अन्दर आ खड़ी हुई। उज्ज्वल संगमरमर की सप्राण प्रतिमा ही हो मानो। विक्रम ने प्रश्नसूचक दृष्टि उस पर उठाई। वह लड़की और कोई नहीं तोयसल ही थी। बोली- बहुत मुश्किल से आपका पड़ाव तलाश कर सकी हूँ....।

विक्रम की कम बोलने की आदत थी। उनकी दृष्टि में सिर्फ प्रश्न ही मूर्त था और तोयसल ने देखा कि यह नवयुवक तो मड़ने वाला नहीं दिखता, मानों मुजस्सिम फौलाद हो- कुछ ऐसी सख्ती चेहरे पर, होठों पर नुमाया है। जिस्म भी ऐसा है कि दस से अकेले निपट सके और सुन्दर इतना है कि उसके सम्मोहक रूप पर स्वर्ग की अप्सराएँ भी स्वयं को न्यौछावर कर दें। अपने को सम्भालते हुए थोड़ा ढिठाई से देखते हुए बोली- वीर विक्रम। मैं एक सवाल करना चाहती हूँ।

पूछो। और ये दो अक्षर तोयसल के मन पर मानो सतह खुरच कर दृढ़ता से लिख गये। तुमने शकों के साम्राज्य को झुका दिया, फतह कर लिया, जिसे मैं अभी तक किसी इनसान के लिए नामुमकिन मानती थी। मेरा अपना अकीदा था कि हमारे शक वीरों से बेहतर... पर तोयसल को टोका गया।

अपना काम कहो। विक्रम को अपनी प्रशंसा अच्छी नहीं लग रही थी। जलते लोहे से वजनी और तप्त अक्षर पुनः तोयसल के कलेजे पर अंकित हो रहे। उसे लगा कि वह इस आदमी का मन जरा भी अपनी तरफ नहीं खींच पाई है। आखिर क्यों? क्या यह मुमकिन हो सकता है आज? उसे अपना सवाल याद आया बोली मैं जानना चाहती थी कि फतह के पीछे कौन-सा राज छिपा है? मैं जानना चाहती थी कि तुम्हारे देश की माताएँ कैसी हैं, जिन्होंने तुम्हारे जैसे वीर को जन्म दिया।

विक्रमादित्य एकबारगी खुलकर हंस पड़े। लगा कि उनकी हँसी से ऊपर का नीला आकाश प्रतिध्वनित हो उठा हो। वह भौंचक्की होकर उनका मुँह ताकने लगी। विक्रम उसकी ओर देखते हुए बोले- बहुत खूब, तुमने तो कविता शुरू कर दी....

सेनापति! मेरा सवाल क्या हँसी में उड़ा दिया गया?

पर उनका जवाब भी क्या हो सकता है? मैंने कभी इस पर सोचा नहीं। कहना चाहूँगा कि दुनिया की हर माँ शायद एक नेक इनसान को जन्म देती हैं, लेकिन वह बड़ा होते- होते काफी बदल जाता है या कह लो कि दुनिया के घेरे उसे मनचाहा बदल डालते हैं। तोयसल को उनकी बातें काफी अच्छी लगीं। उसने महसूस किया शकों का विजेता यह महान सेनापति अन्दर से एक भोले बच्चे की तरह मासूम है, भोला है। लेकिन मेरे सवाल का जवाब? फिर पूछा उसने।

बातूनी लड़की! यह भी कोई सवाल है और इसी एक बात के लिए तुम इतनी रात को यहाँ दौड़ी चली आयीं।

मानिनी तोयसल, शकों की राजकुमारी वह अनन्य सुन्दरी युवती अपने मन की समग्र पीड़ा आँखों में भरकर विक्रम को अपलक निहार रही थी। कितनी व्याकुलता प्राणों के आह्लादकारी प्रबल प्रणय की कितनी उत्कट प्रतीक्षा उसकी पुतलियों में उभर आयी थी।

उधर विक्रम अपनी लम्बी खड्ग की चमक को गौर से देखते हुए सोच रहे थे कि यह लड़की भी अजीब है। अगर उसे बाहर निकालते का आदेश देता हूँ, तो नारी का अपमान होता है। शील विवश विक्रम बड़ी नम्रता से बोले- अभी मुझे बहुत काम है, परना कहता कि तुम्हें अपने यहाँ की माताओं के दर्शन करा दूँ।

सच? क्या तुम मुझे अपने साथ ले चल सकते हो। किन्तु वासना को मार्ग खोजने की जल्दी थी। तोयसल ने दुस्साहस की सीमा पार कर ली। वह बेशर्मी से बोली- वीर विक्रम! अगर साथ चलना मुमकिन नहीं, तो तुम मेरी एक आरजू पूरी कर दो....., यकायक वह आगे कुछ कह न सकी।

कहो, क्या चाहती हो.....? विक्रमादित्य के उत्तर में कोई भी लोच नहीं थी। मानो किसी दीवार से कह रहा हो। उनकी नजर पीत चन्द्रमा पर टिकी थी।

यह कि तुम मुझे अपना- सा बेटा दे दो.... तोयसल की आवाज बुरी तरह काँप रही थी। माथे पर पसीने की बूँदें छलक आयीं थीं।

विक्रम हँसे, हँसते रहे दो पल- फिर सरलता से बोले- शक कन्या! तुम गलती पर हो। मेरा किसी से कोई लगाव नहीं। मैं तो बस राष्ट्र का प्रहरी हूँ।

और तायेसल लज्जा व आत्मग्लानि से गली जा रही थी कि देवकुमार से सम्मोहक व्यक्तित्व वाले विक्रम ने उसकी बातों का अर्थ नहीं समझा।

उसने धीरे से लरजती आवाज में फिर कहा- सेनापति विक्रम। मैं तुमसे, खास तुमसे एक बेटा चाहती हूँ, जो बड़ा होकर तुम्हारे तैसा नामवर होगा, तुम्हारे जैसा बहादुर...... और उसने अपना जलता माथा, जलते होंठ विक्रमादित्य के पाँवों पर टिका दिये। दोनों हाथों से उसने उनकी टाँगें जकड़ लीं। विक्रम ऐसे चौंके मानो उन पर बिजली गिरी हो। जो कुछ इस क्षण उनके सामने था, वह उनके संस्कारों के नितान्त विरुद्ध था। ऐसी विषमता उनके सामने कभी समस्या या सवाल बनकर नहीं आयी थी। आखिर उनके संचित संयम व संस्कारों ने सहायता की। उन्होंने एक रास्ता निकाला। बड़े शान्त स्वर में उसे सान्त्वना देते हुए बोले- उठो! भरोसा करो। मैं तुमको बेटा दूँगा- बिलकुल अपने जैसा..... ओह! मेरे वीर सेनापति.... खुशी से उसकी सुन्दर आँखों में आँसू आ गये।

विक्रम उठ खड़े हुए और भुजाओं से पकड़कर उन्होंने तोयसल को भी नितान्त निर्लिप्त भाव से उठाया, फिर उसको थपथपाते हुए बोले-

देखो तुम्हारी आरजू भटक गयी है। मान लो तुम्हारे बेटा हुआ भी, लेकिन क्या यकीन कि वह जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। वह तुम्हारे ख्वाबों के खिलाफ भी हो सकता है। इसलिये अगर तुम मेरी बात मानो तो एक रास्ता हो सकता है।

वह कौन-सा सेनापति! तोयसल ने असीम व्याकुलता से पूछा।

यह कि तुम मुझे ही अपना बेटा मान लो। आज से विक्रमादित्य तुम्हारा बेटा है। बोलो माता! क्या तुम मुझे माँ कहने का पवित्र हे देती हो? वीर विक्रम के हिम शीतल स्वर से तोयसल विपुल आत्मग्लानि से गलने लगी। लज्जा से उसका मस्तक नत हो गया और विवेक को मानो प्रत्यावर्तन का पथ, खोज मिल गया।

उफ! यह तुमने क्या कहा? तोयसल की चिन्तनशीलता लौटने को हुई। नारी का सम्मान जागता प्रतीत हुआ आर वह सही रास्ते पर लौटी ही आखिर। वह स्थिर हो उठी। अब उसके माथे पर पसीना न था। आँखों में वासनाजनित उत्तेजना या व्याकुलता न थी।

उससे महावीर विक्रमादित्य की तरफ देखा नहीं जा रहा था। एकाएक उसे उजाला मिल गया। उज्जयिनी के इस वीर शिरोमणि को वह श्रद्धा से, स्नेह से और सम्मान से देखते हुए बोली- मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया। उस राज को मैंने जाल लिया, जो तुम्हें फतह पर फतह हासिल करने को बायस है, जिस मुल्क में बेटे ऐसे हों वहाँ की माताएँ कैसी होंगी। दरअसल वे माताएँ ही तुम्हारे जैसे रत्न पैदा कर सकती हैं।

विक्रम खामोश था, शायद निश्चिन्त भी। तोयसल ने विदा लेते हुए कहा-

वीर विक्रम! तुमने मुझे माँ कहा है। मेरे लिए यह बेशकीमती लज्जा एक पाकीजा अमानत है, जिसकी हिफाजत ताजिन्दगी करूँगी, लेकिन तुम......, तुम इस बदकार लड़की को कभी याद करोगे, वह लड़की जो तुम्हें गलत रास्ते पर खींचने आयी थी आज.....? और तोयसल ने दुर्निवार दुःख से अपनी आँखें छिपा ली। कण्ठावरोध हो आया। इससे पहले कि विक्रम उससे कुछ कहे, वह सवेग शिविर से निकल गयी। बाहर रेतीले रास्ते पर स्निग्ध चाँदनी फैली थी। तोयसल उस पर तेजी से बढ़ती जा रही थी। मन शान्त था। शरीर संयत था कि पचास कदम चलने पर मोयस ने उसे रोका।

ठहरो तोयसल! तुम दुश्मन के सिपहसालार के साथ मुँह काला कर आयीं, अब जरा एक बार मेरे साथ भी उसके खेमे तक चलो और देखो कि मर्द का गुस्सा कैसा होता है, मैं पहले उसे मुल्केअदम रवाना कर दूँ, फिर तुम्हें सबक दूँगा.....।

मोयस ने तोयसल को खींचते हुए कहा और उसकी बाँह पकड़ कर वापस घसीटता हुआ उधर

चला, जिधर विक्रम का शिविर था।

आखिर तुम चाहते क्या हो मोयस? तोयसल ने उससे अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा-

क्या चाहता हूँ? यह तुम वहीं देख लोगी । उस मरदूद को मलकुन मौत के हवाले करता हूँ, जिसे तुम अपना सब कुछ लुटा आयी हो। तोयसल तुम इस कदर फाहिशा होगी- मैं क्या जानता था.... उसके हाथ में तेज खौफनाक खंजर चमक उठा।

खबरदार मोयस! अगर आगे तुमने कुछ कहा.....। लगाम लगा ला जबान पर। तू उस बहादुर को कत्ल करेगा और वह भी मेरे साथ जाकर यानि दगा करके? तोयसल ने एक झटक के साथ उसे परे धकेल दिया।

ओह! बदकार लड़की। मैं कमीना हूँ और वह जो गैर मुल्क का, गैर कौम का आदमी है, वह आज तेरा सब कुछ है ? अपनी बात को पूरा करते

हुए गुस्से में वह तोयसल की ओर झपटा, परन्तु तोयसल के फुर्ती से हटने के कारण वह न संभल पाने की वजह से गिर पड़ा और इस हड़बड़ी में उसका चमचमाता खंजर उसी के पेट में धँस गया। अपने ही अप्रत्याशित वार के कुछ ही पलों में वह जमीन पर ढेर हो गया।

तोयसल ने उसकी ओर बड़ी करुण दृष्टि से देखा और अपने आप में बुदबुदायी- यही अंतर है तुममें और वीर विक्रम में। तुम सब नारी को भोग और वासना की दृष्टि से देखते रहे और पराजित हुए और विक्रम ने हमेशा- हमेशा विजय हासिल की। आज मुझे समझ में आया, दृढ़ चरित्रबल और नारी मात्र की प्रति पवित्र भावना में ही विजय का रहस्य समाया है। अपनी इसी सोच में डूबी वह एक ओर चल दी।


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