विशिष्ट समय को समझे, अपनी रीति-नीति बदलें - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

December 1997

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों! यह समय बहुत ही संकटमय है। हर जगह असुरता छाई हुई है। इस समय ताड़का, कुम्भकरण, सुबाहु-सभी अपना ताण्डव नृत्य दिखा रहे हैं। इस समय महान व्यक्तियों को महान कार्य करना है। हर युग में ऐसे व्यक्तियों ने विशेष काम किया है। बड़े आदमी ही बड़े काम कर सकते हैं। छोटे आदमी छोटे काम कर सकते हैं। बड़े काम करने के लिए आत्मा को जगाना पड़ता है, उसे गरम करना पड़ता है। छोटे आदमी बड़े काम नहीं कर सकते। हाथी जो काम कर सकता है, छोटे जीव-जन्तु उसे नहीं कर सकते। सामान्य जीव का केवल उद्देश्य होता है- पेट एवं प्रजनन परन्तु असामान्य व्यक्ति का उद्देश्य यह नहीं होता है। यह मनुष्य, जो देवता बन सकता था, उसकी महत्त्वाकाँक्षाओं ने उसे बर्बाद कर दिया। वह मकड़ी के जाल में फँस गया, मिट्टी में मिल गया। वह सारे जीवन भर केवल दो ही काम करता रहता है- एक पेट तथा दूसरा प्रजनन। परन्तु असामान्य व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता है। उसके अन्दर एक हलचल होती है, एक हूक उठती है। समय की पुकार को वह अनसुनी नहीं कर सकता, संकटों से जूझने के लिए उठ खड़ा होता है।

महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुँचे। उन्होंने कहा यह असामान्य समय है। इन बच्चों का यदि भविष्य बनाना चाहते हैं, इन्हें देवता बनाना चाहते हैं, तो इन्हें हमें सौंप दीजिये। दशरथ ने कहा- “जैसा आपका आदेश।” विश्वामित्र उन बच्चों को ले गये तथा शुरू से अन्त तक उन बच्चों ने असामान्य काम किया। असामान्य समय में, असामान्य व्यक्ति असामान्य काम करता है। राम तथा लक्ष्मण ने असामान्य जीवन जिया । वे सिद्धान्तवादी तथा आदर्शवादी थे। ऐसे ही व्यक्ति समाज को नयी दिशा देते हैं तथा लोग उनके बनाये रास्ते पर चलते हैं। जब आवश्यकता पड़ी, तो हनुमान् जी आ गये, सुग्रीव आ गये तथा अन्य हजारों रीछ-बन्दर आ गये। अगर रामचन्द्रजी अयोध्या में रहकर अन्य राजा-महाराजाओं जैसे मौज-मस्ती में डूब रहते, तो कोई भी उनकी बात नहीं मानता। परन्तु उनके असामान्य व्यक्तित्व को देखकर हनुमान् जी भी प्रभावित हो गये तथा असामान्य समय में असामान्य काम- जैसे समुद्र का लाँघना, सीता की खोज करना, पर्वत उठा लाना, राम-लक्ष्मण को कंधे पर बिठा कर ले जाना, आदि न जाने कितने महान कार्य कर दिखाये।

अगली पंक्ति में बैठने तथा काम करने के लिए मौका केवल असामान्य व्यक्तियों को मिलता है। वे ही असामान्य समय को पहचान पाते हैं। सामान्य आदमी को तो विशेष समय दिखायी नहीं पड़ता। गुरुगोविन्द सिंह जी को विशेष समय दिखायी पड़ा। वे असामान्य आदमी थे। उन्होंने देखा कि यह देश गुलामी की जंजीरों से कैसे छुटकारा पा सकता है। उन्होंने सोचा कि हर व्यक्ति अपने-अपने बच्चों को बहादुर सैनिकों की तरह बनाता और उनसे साहस का काम कराता तो समाज में एक आदर्श उपस्थित होता। उन्होंने इस आवश्यकता को समझा और सोचा कि उनकी शुरुआत अपने-आप से करनी चाहिये। पराये बच्चों को माँगने से पहले अपने बच्चों को इस काम में लगा देना उचित होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने एक, दो, तीन, चार- इस तरह सभी बच्चों को बारी-बारी से उस आन्दोलन के लिए अर्पित कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चार लाख आदमियों ने गुलामी की जंजीरों से मुक्ति के लिये उस आन्दोलन में अपने-आप को झोंक दिया। उन्होंने दम तब लिया जब आन्दोलन में गर्मी आ गयी।

असामान्य बनें, अवसर को पहचानें

मित्रों, आजादी का आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? पंजाब से शुरू हुआ था। पंजाब के राजा रणजीत सिंह सबसे पहले राजा थे, जिन्होंने इस आजादी के आन्दोलन में अपना सहयोग सबसे पहले दिया था तथा आजादी की लड़ाई को गति प्रदान की थी। इसके बाद अन्य लोग आते गये। गुरुगोविन्द सिंह, रणजीत सिंह जैसे योद्धा धर्मतंत्र व राजतंत्र दोनों ओर से पहली पंक्ति में आगे आये। इसके बाद काम बढ़ता गया तथा उसमें लोग सहभागी बनते चले गये। इतिहास को देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि असामान्य समय में लोगों को कुर्बानी देनी पड़ती है। यह काम जबर्दस्ती से नहीं होता है, वरन् लोगों के भीतर एक हूक पैदा होती है और लोग स्वेच्छा से अपनी कुर्बानी देते हैं। गाँधी जी ने अपने आपको अर्पित किया उसके बाद लाखों आदमी उनके साथ आ गये। 79 आदमियों को लेकर गाँधी जी जब साबरमती आश्रम से चल पड़े और ‘नमक आन्दोलन’ शुरू कर दिया, तो पीछे लाखों लोग आ गये। अगर गाँधीजी स्वयं बैठे रहते तथा दूसरों को कहते, तो शायद यह काम नहीं हो पाता। गाँधीजी सभी आन्दोलनों में आगे रहे। गाँधीजी के जेल जाने के बाद सारे देश में आग लग गयी। स्वराज आन्दोलन कहाँ से शुरू हुआ? अपने-आप से शुरू हुआ। आपत्तिकाल की समस्या का हल केवल अपने-आप से ही सम्भव है। ऐसा साहस भरा कार्य वे असामान्य व्यक्ति ही कर सकते हैं जो असामान्य समय को पहचानते हैं।

मित्रों, असामान्य आदमी स्वयं आगे चलकर समाज को यह बतलाता है कि महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके लिये कुर्बानी देनी चाहिये, तो लोग आगे आकर कार्य करते हैं। ऐसा साहस असामान्य आदमी ही कर सकता है। व्यक्ति पहले आदमी को परखते हैं कि यह मजबूत आदमी है, सिद्धान्त का आदमी है और कसौटी पर खरा सिद्ध होने के पश्चात् उसके कहने पर आगे आते हैं। भगवान बुद्ध के जो सबसे प्यारे शिष्य थे, सबसे पहले उनको अपना घर-बार छोड़ने के लिये निवेदन किया गया था। अगर भगवान बुद्ध ने केवल लोगों को आशीर्वाद से धन व बच्चे दे दिये होते, तो शायद सारे विश्व में जो धर्मचक्र प्रवर्तन की क्रान्ति हुई, शायद वह नहीं हुई होती।

ऋषि क्या करते थे? क्या वे माला घुमाते थे? नहीं बेटे, वे माला नहीं घुमाते थे, वरन् वे सारे दिन समाज की सेवा किया करते थे। आज तो जो सबसे घटिया काम है, उसके लिये लोग आगे आते हैं। महान कार्य करने की किसी की भावना ही नहीं है। तपस्वी, सन्त, ऋषि जो सबसे छोटा काम करते थे सेवा का, अगर आप भी यह करने लगें, तो आपके जीवन में भी चमत्कार आ जायेगा। उन्होंने व्यक्ति की, समाज की, देश और धर्म की, संस्कृति की सेवा की थी। लोगों के दुख, तकलीफों को दूर किया था। भगवान बुद्ध ने एशिया को ही नहीं बल्कि, सारी दुनिया को बदल दिया था। वे त्याग तपस्या की मूर्ति थे आप नाटक का मुखौटा पहनकर हनुमानजी नहीं बन सकते हैं। उसके लिये त्याग करना पड़ता है। ऋषियों के अन्दर सबसे महत्वपूर्ण एक बात होती है कि वे समय को पहचानते हैं। वे समय का परिचय का प्राप्त कर अग्रिम पंक्ति में आ खड़े होते हैं तथा दूसरों को नसीहत देने से पहले अपने आपको इस योग्य बनाने का प्रयास करते हैं कि इसका प्रभाव समाज पर पड़ सके। इसके बाद ढेरों आदमी उस रास्ते पर चलना शुरू कर देते हैं।

मित्रों, इंजन जब पटरी पर चलना शुरू कर देता है, तो डिब्बे अपने-आप चलना शुरू कर देते हैं। बड़े आदमी, जिनका कि व्यक्तित्व होता है, जब वे आगे चलते हैं, तो उनके सहयोगी, अनुयायी स्वयं पीछे चलने लगते हैं। रामचन्द्रजी के सबसे प्यारे हनुमान् तथा लक्ष्मण थे। उनसे उन्होंने कहा कि आपको आगे चलना चाहिये। वे चले। बुद्ध ने भी जो सबसे प्रिय शिष्य थे, जब उनसे उन्होंने कहा कि आपको सबसे आगे चलना चाहिये, तो वे चले। युग-निर्माण योजना की भी वही कहानी है। हमारे गुरु ने हमसे कहा कि चलना होगा और हम चले। इसके बाद लाखों लोग चलने लगे। लक्ष्मण का अनुकरण भरत ने किया। भरत का अनुकरण शत्रुघ्न ने किया। इस प्रकार रामचन्द्रजी के अनुकरण का सिलसिला चल पड़ा। सारे के सारे लोग उनके अनुयायी हो गये। इसका परिणाम ये हुआ कि सारी प्रजा चल पड़ी। इसके फलस्वरूप रामराज्य की स्थापना हो गयी।

मित्रों, दुनिया में एक ही तरीका है, जब असामान्य लोग असामान्य काम के लिये चलते हैं, तभी काम बनता है। इस दुनिया के अंतर्गत जो छोटे-छोटे व्यक्ति थे, जिनके अन्दर प्राण था, जो जीवन्त थे, उन्होंने ही आगे कदम बढ़ाया तथा उनके पीछे लोग चले। हमें महाराणा प्रताप का जीवन दिखाई पड़ता है। महाराजा राणाप्रताप को क्या कमी थी? उनके पास सभी चीजें थीं। वे अच्छे खाते-पीते व्यक्ति थे, पर उनके भीतर स्वराज की भावना जागृति हुई, उन्होंने राज-पाट छोड़कर जंगल का रास्ता पकड़ लिया। वे अपने बीबी बच्चों को कहीं भी रख देते थे। थे तो राजा ही, चाहते तो उनके खाने पीने की व्यवस्था कहीं भी हो जाती, परन्तु वे तबाह हुए, जंगलों में भटकते रहे, घास की रोटी खाते रहे, लेकिन अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा। बन्दा वैरागी जैसे लोग किस तरह तबाह हुए, आप नहीं जानते हैं। उन दिनों कुछ लोगों ने अपनी लड़कियों की शादी मुगल राजाओं के साथ कर दी थी। वे अपने को राजपूत कहते थे और अपने को बड़ा राजा कहते थे। उसी जमाने में बहुत से ऐसे लोग थे, जो उन आक्रान्ताओं से लोहा ले लिया करते थे तथा अपने को कुर्बान तक कर देने में कोई कमी नहीं रखते थे। उन्होंने अपने सारे परिवार के लोगों को इस आग में झोंक दिया, परन्तु अपनी शान को नहीं जाने दिया। वे असामान्य लोग थे, जिन्होंने परिस्थिति को समझा तथा मुकाबला किया।

कहीं आप ‘समझदार’ तो नहीं?

आप बहुत समझदार आदमी हैं? आप अगर समझदार नहीं होते, तो इस जमाने में जब सारी दुनिया मरने को बैठी है, उस समय आप लोभ, मोह, वासना, तृष्णा का जीवन जी रहे हैं। इसके साथ ही यह सोच रहे हैं कि हमें यह फायदा कैसे हो जाय, वह फायदा हो जाय? हमारे बच्चे कैसे ऑफिसर बन जायें ताकि अधिक पैसा कमा सकें। इस मामले में आप बहुत समझदार आदमी हैं, परन्तु सिद्धान्तों से, आदर्शों से, अक्ल से समझदार नहीं हैं। आप कैसे समझदार हैं? कौवे की तरह से समझदार हैं। वह हर मामले में चौकस होता है, चालाक होता है, उस्ताद होता है। उस्ताद होते हुए भी उसके हिस्से में खाने-पीने की जो चीजें होती हैं, उसको वह अपने लिये रखता है, परन्तु अन्य जीव उसे छिन कर खा लेते हैं, इसलिये वह नासमझ माना जाता है। सारे पक्षियों में बेकार माना जाता है। मित्रों, मैं ये कहना चाहता हूँ कि यह विशेष समय है, इसे पहचानने की कोशिश करें। अगर आपकी आँखें हैं तो देखें, अगर नहीं हैं तो मैं क्या कह सकता हूँ? मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ। आप अध्यात्मवादी हैं, तो आपको कुछ करना चाहिये। आपको सिद्धि मिली है, मुक्ति मिली है, तो आपको समाज की सेवा करनी चाहिये।

आदमी को अध्यात्मवादी तब माना जा सकता है जब वह दूसरों के दुख दर्द को बाँटकर उसे सुख, प्रसन्न बनाने का प्रयत्न करे। ऐसे व्यक्ति को दूसरों के दुख-दर्द को दूर करने के लिये बलिदान होना पड़ता है। भजन करने से कोई कुछ मिलता है? भजन करने वाले की नियति क्या है? यह भगवान जानना चाहता है। आप पैसा कमाने के लिये अवलाद प्राप्त करने के लिये भजन करते हैं, तो आपके इस उद्देश्य को भी वह जानता है। आप भजनानन्दी हो सकते हैं, लेकिन व्यक्तिगत लाभ के लिये भजन करने वाले अध्यात्मवादी नहीं होते हैं। ऐसे व्यक्ति से अध्यात्मवादी की उपाधि हम छीन लेते हैं, जो व्यक्तिगत लाभ के लिये भजन करते हैं। उनको जो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये, सिद्धि के लिये भजन करते हैं, उनको मैं अध्यात्मवादी नहीं कह सकता हूँ। उनको मैं भौतिकवादी ही कहूँगा। ऐसे लोगों को ब्रह्मवर्चस का वह ब्रह्मतेज प्राप्त नहीं हो सकता है, जो लोकसेवी, संत, ऋषियों को मिलता रहता है। अतः आपको भी अपने-आपको तपाना चाहिये। जप करना चाहिये, परन्तु उस शक्ति को, उस ऊर्जा को समाज के कष्ट के, दुख दर्द के निवारण के लिये बाँट देना चाहिये, तभी आप सन्त, ऋषि कहला सकते हैं।

मित्रों, ऐसा कौन है जो कन्या के सयानी हो जाने पर उसके योग्य लड़का अर्थात् वर की तलाश न करे तथा उसकी शादी अपनी सामर्थ्य के अनुसार न करे। कोई भी व्यक्ति ऐसा निष्ठुर नहीं होता, जो अपने बच्चों के लिये कुछ न करे। हम आप लोगों को प्यार करते हैं तथा आपको हमेशा देने को तैयार रहते हैं। हर सामर्थ्यवान का यह कर्तव्य होना चाहिये कि वह अपने से कम सामर्थ्यवान व्यक्ति को प्यार दे। अगर हम एक दूसरे को प्यार नहीं करते हैं, तो हमारा गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार बनाना बेकार है। हमने हमेशा प्यार ही बाँटा है और चाहते हैं कि आप भी प्यार बाँटे । हम एक सन्त हैं तथा सन्त परम्परा के अनुसार हमारा नैतिक दायित्व है कि हम दूसरों की सहायता करें, उन्हें ऊँचा उठाये, उनके प्रगति के रास्ते खोल दें। हमें अपने समीपवर्ती लोगों, पड़ोसियों का ध्यान रखना चाहिये अगर किसी को बुखार हो, तो हमें उसकी मदद करनी चाहिये और चिकित्सक के पास ले जाना चाहिये। मित्रों, इसी तरह हमें उस समय का भी ख्याल रखना चाहिये, जिसमें हम जी रहे हैं। उस समय में हमें आगे बढ़कर युग -समस्याओं का हल करना चाहिये।

हमें दिखाई देता है भविष्य

मित्रों, यह आपत्तिकालीन समय है। मानव जाति आदि संकट के एक कगार पर खड़ी है ऐसे कगार पर खड़ी है कि उनके किनारे अगर ढह गये तो वह औंधे मुँह सीधे खाई में चली जायेगी तथा मनुष्य का बहुत बड़ा अहित होगा। इस प्रकार मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय है। ऐसी विषम परिस्थिति में असामान्य मनुष्यों को शान्त नहीं बैठना है। यह आपत्तिकाल है। आपको तो दिखाई नहीं पड़ रहा है, परन्तु हमें दिखाई पड़ रहा है। ऐसे व्यक्ति जिनकी आँखों में माइक्रोस्कोप फीट होता है, सूक्ष्म चीजें भी देख लेते हैं। हमें भी दिखाई पड़ रहा है कि भविष्य में अगले दिनों क्या होने वाला है। बहुत भयानक स्थिति है। मनुष्य एक ऐसे कगार पर खड़ा है, जहाँ से गिरने पर वह खाई में जा सकता है तथा विनाश की स्थिति आ सकती है। दूसरी ओर अच्छा भी हो सकता है, परन्तु इसकी सम्भावना कम है।

यह आपत्तिकालीन समय है। इस समय वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी तथा अर्थशास्त्री- तीनों मिलकर यानि अर्थ, विज्ञान और बुद्धि तीनों ने मिलकर ऐसी रचना की है जिसे रावण, कुम्भकरण एवं मेघनाद की संज्ञा दी जा सकती है। बुद्धिवाद में ऐसी जकड़न आ गयी है कि सिद्धान्तवाद, आदर्शवाद पूर्णतः समाप्त हो गया है। आज आदमी का हृदय समाप्त हो गया है। आदमी आज जानवर हो गया है। जानवर तो भी मर्यादा में रहता है, परन्तु आदमी आज नर-पिशाच होता चला जा रहा हैं। उसे मर्यादा का भी ध्यान नहीं है। उसकी नीयत ईमान को खोलकर देखें तो आपको मालूम पड़ेगा कि मनुष्य ने न जाने किसका कलेवर पहन रखा है। उसके भीतर न जाने साँप बैठा है, न जाने राक्षस बैठा है, यह पता ही नहीं चलता है। आदमी के भीतर अगर आप झाँके, तो अन्दर बैठे राक्षस को देख कर आपको नफरत हो जायेगी। आज चारों तरफ नफरत की दुनिया दिखायी पड़ रही है। विज्ञान, बुद्धि और अर्थ तीनों ने मिल कर शालीनता की सीता का अपहरण कर लिया है। राम-लक्ष्मण रूपी धर्म अध्यात्म दोनों बिलखते हुए मारे-मारे फिर रहे हैं। इन तीनों ने न जाने कैसे षड्यंत्र रच दिया है। आदमी प्यार को, आदर्श को, शालीनता को भुला बैठा है। और मनुष्य कलेवर में पिशाच बन बैठा है।

साथियों भूत-पलीत का नाम आपने सुना है, वह भी इतनी हानि नहीं पहुँचा रहा है, क्योंकि उसके हाथ पैर नहीं हैं। जिसके हाथ पैर न हों भला वह क्या कर सकता है? वह चल फिर नहीं सकता, दौड़ नहीं सकता। अतः उससे डर नहीं है, लेकिन जिन्दा आदमी का भूत इंसान को परेशान कर रहा है, क्योंकि उसके पास हाथ-पैर भी है, और हाथ भी है, पैर भी है और अक्ल भी है। उसके पास दूसरी चीजें भी हैं। उसके पास ताकत भी है। आदमी का भूत अगर किसी पर हावी होगा, तो जिन, भूत, पिशाच, राक्षस सभी एक कोने पर रखे रह जायेंगे, तो वह मुर्दा भूतों से ज्यादा खतरनाक साबित होगा। हो भी यही रहा है। वास्तव में आज आदमी के भीतर की शालीनता समाप्त हो गयी है। वह राक्षस एवं पिशाच बन गया है।

आज परिस्थितियाँ इस तरह बनती जा रही हैं कि आदमी मरेगा, तबाह हो जायेगा। आज जनसंख्या इस कदर बढ़ रही है कि उसका क्या कहना? अगर यह इसी हिसाब से बढ़ती रही, तो एटम बम की कोई आवश्यकता नहीं होगी। आदमी भूख से, प्यास से तड़प-तड़प कर मर जायेगा। जिस तरह बंगाल में अकाल पड़ा था उस समय भूख से तड़प-तड़प कर हजारों लोग मर गये थे। जापान के नागासाकी शहर पर डाले गये बम से लोग तबाह हो गये थे। इसी तरह जनसंख्या बढ़ाने के फेर में आदमी लगा रहा तो उसका विनाश सुनिश्चित है। कितने ही लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते हैं और यह कहते हैं कि देखना हमारे हाथ में बेटा है या नहीं? अरे तेरे हाथ में तो सत्यानाश लिखा है। कई लोग आकर कहते हैं कि गुरुजी मेरे औलाद नहीं है। उनसे में यही कहता हूँ बेटा अभी तो भी तू शान्ति से रह रहा है अन्यथा बेटा-बेटी तेरी चमड़ी नोंच डालेंगे। अरे तू समझता नहीं। अगर इसी तरह से आबादी बढ़ती रही तो पानी की एक-एक बूँद के लिये लोग तरस जायेंगे। सड़क पर चलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा। आदमी परेशान हो जायेगा। आप समझते नहीं तबाही की दुनिया आ रही है। आपत्तिकाल का समय आ रहा हैं। अगर किसी वैज्ञानिक के मन में खुराफात आ जाये और वह एटमी हथियारों के भण्डार में माचिस की एक तिल्ली सुलगा दे, तो सारा विश्व जलकर तहस-नहस हो जायेगा।

मित्रों, परिवार में, खानदान में जितने अधिक सदस्य बढ़ेंगे, उतनी ही मनुष्यों को परेशानियाँ आयेंगी, वह परेशान होगा। किसी आदमी के परिवार में 28 सदस्य हैं अर्थात् 28 आदमी एक परिवार में है उनमें आपस में प्रेम, सहकार है नहीं, चूहे-बिल्ली की तरह से रह रहे हैं। चूहे-बिल्ली से डरते हैं, बिल्ली चूहे से डरती है। ऐसे परिवार में आदमी की स्थिति ठीक उसी प्रकार हैं। आज जमाने में जिसका जितना बड़ा परिवार है वह उतना ही अधिक अशान्त है। विदेशों में बच्चों के बड़े होते ही माँ-बाप उन्हें अलग कर देते हैं और कहते हैं कि जाओ अपनी अलग व्यवस्था बनाओ। योरोप इस मामले में सही है, जो इस डाकू को पहले से ही अलग कर देता है। उसे गले लगाने से क्या फायदा? वहाँ लोग औलाद को घर से निकाल देते हैं और कहते हैं चल यहाँ तेरा कोई काम नहीं है। कारण वहाँ परिवार में प्रेम, मुहब्बत, सहकार नहीं है। बेटे के भीतर यह भावना नहीं है कि जब हमारा बाप बूढ़ा होगा, तो हमें उसकी सेवा करनी है, व्यवस्था बनानी है। बहिन भाई में प्रेम नहीं है। बहिन की शादी से पहले भाई की जो बहू आती है वह नर-पिशाचिनी यह कहती है कि हमें 650 रुपये मिलते हैं। इसे घर से निकाल दीजिये, फिर हम दोनों होटल में खाना खायेंगे, क्लबों में डाँस करेंगे और सिनेमा देखेंगे।

यह तो यूरोप की स्थिति है। अपने यहाँ भी अगर आपके पास 15 हजार रुपये हैं तथा बच्चे हैं पाँच, तो हर के हिस्से में 3 हजार रुपये आते हैं इसके लिये भी मारकाट है। उसे आप अगर एक को पढ़ाने में, गजटेड ऑफिसर बनाने में खर्च कर देते हैं तो बाकी बच्चों के गले में फाँसी लगा देंगे या मार देंगे? या फिर उसे मैट्रिक तक पढ़ाने के बाद उसे घर से निकालिये तथा यह कहिये कि निकल घर से, अपने-आप पढ़ तथा अपने पैरों पर खड़े हो। बेटे, आज की परिस्थितियों में आपको दुश्मन से भी होशियार रहना चाहिये तथा बड़े बेटे से भी होशियार रहना चाहिये। दुश्मनी के मामले में बड़ा बेटा, जिसके लिये आपने सबकुछ दाँव पर लगा दिया है, उसमें तथा साँप-बिच्छू में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज इस बारे में हर आदमी को यह विचार करना चाहिये कि कुटुम्ब बढ़ाने हमें कोई फायदा नहीं है, वरन् इसके द्वारा केवल बर्बादी ही बर्बादी है। जापान इस मामले में काफी होशियार है। यदि वहाँ मियाँ बीबी मिलकर 9 सौ रुपये भी कमाते हैं तो कहते हैं हम सिनेमा देखेंगे, होटल में खाना खायेंगे, मस्ती में रहेंगे। बच्चों से क्या फायदा? उन्हें पढ़ाने में, योग्य बनाने में, शादी-ब्याह करने में काफी खर्च होगा। इसके अलावा हमारी मौज-मस्ती में भी वे विघ्न डालेंगे। जापानी इस मामले में विचार करते हैं वे चाहते हैं कि बच्चे न हों।

बेटे! यह क्या होने जा रहा है? यह संयुक्त प्रणाली का सत्यानाश होने जा रहा है। आज सामाजिक सहयोग-सहकार का वातावरण समाप्त होता जा रहा है। आदमी इतना स्वार्थी, लोभी होता जा रहा है, जिसे देखकर लगता है कि मानव जाति की सारी की सारी श्रेष्ठ परम्परायें नष्ट होने वाली हैं। आदमी को दुश्मनों से डर लगे या न लगे, परन्तु अपने कुटुम्बियों से काफी भयभीत रहता है कि न जाने वे कब किस चक्कर में डाल सकते हैं। बरबाद कर सकते हैं आज ऐसी ही स्थिति बन रही है। बुढ़ापे में व्यक्ति फूट-फूट कर रोएगा, कलपेंगा कि हाय रे ! औलाद ने, सम्बन्धियों ने हमें लूट लिया, बरबाद कर दिया। मित्रों, यह जमाना आता हुआ चला जा रहा है। आदमी मरे या जिये, यह मैं नहीं कहता परन्तु आदमी के भीतर जो आत्मीयता थी, मनुष्यता थी, वह नष्ट हो जायेगी, बढ़ती हुई जनसंख्या की वजह से, बढ़ते हुए विज्ञान की वजह से, बढ़ती हुई अक्ल की भरमार की वजह से, आदमी की स्वार्थपरता की वजह से। हम और आप ऐसे ही बुरे समय में रह रहे हैं।

अगर इसी तरह की स्थिति बढ़ती चली गयी, तो हमारा और आपका भविष्य बहुत अन्धकारमय होता चला जायेगा। राजनीतिज्ञ जिस रास्ते पर आपको ले जा रहा हैं, वह हमें अन्धकारमय लग रहा हैं। हमारे विद्वान आपको जिस रास्ते पर ले जा रहे हैं। वह हमें अंधकारमय लग रहा है। संत-महात्माओं की प्रवृत्ति और विचारों को देखकर तो हमें रोना आता है। उनके क्रिया-कलापों को देखकर मैं काँप जाता हूँ और सोचता हूँ, हे-भगवान ये क्या कर रहे हैं? हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान! अगर इस संसार से कोई वर्ग नष्ट होना हो, तो सबसे पहले बाबाजियों का वर्ग नष्ट होना चाहिये। आप कहेंगे कि गुरुजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? बेटे, यह इसलिये कह रहा हूँ कि कतिपय संत-महात्मा अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों से भटक गये हैं। मनुष्य में जो मानवता का शिक्षण भरा पड़ा रहा था, वह मरती चली जा रही है। आदमी अपनी महानता के जिस बलबूते पर इस सृष्टि का मुकुटमणि बना, वह गिरते-गिरते समाप्त होता चला जा रहा है।

गुरुजी! फिर क्या होगा? मित्रों, इस दुनिया में मक्खी-मच्छर रहते हैं, तो इस दुनिया की कोई शान नहीं है। कीड़े- मकोड़े, टिड्डी, खटमल भी दुनिया में रहते हैं, पर उनसे कुछ लाभ है क्या? मैं नहीं जानता कि क्या लाभ है, लेकिन अगर आदमी भी इस प्रकार से ज्यादा पैदा होंगे, तो निश्चय ही दुनिया में तबाही आयेगी। लोग परेशान होंगे। आज जो दुनिया में मनुष्यता समाप्त हो रही है, आदमी के अन्दर जो श्रेष्ठ माद्दा था, जो महानता थी, आदमी के भीतर जो देवत्व था, आज वह समाप्त होता चला जा रहा है। आदमी के भीतर जो भगवान बैठा था, वह धूमिल होता चला जा रहा है। भगवान माने आदर्श, आदर्श माने श्रेष्ठ विचार। मित्रों, हमें जिस भगवान की आवश्यकता है, जो हमें ऊँचा उठाता है, उसका नाम है सिद्धान्त, आदर्श। उसका नाम है- मानवीय गरिमा, जो समाप्त होती चली जा रही है। ऐसे अन्धकार को देखकर हमें दुख होता है कि इसी प्रकार की यदि स्थिति रही, तो आगे आदमी, आदमी की जान का ग्राहक बन जायेगा। उसके जीवन में तबाही आयेगी।

अब अगले दिनों यह होगा

मित्रों उस समय आदमी-आदमी का खून पियेगा। आदमी, आदमी का माँस खायेगा। आदमी-आदमी को गिरायेगा। आदमी, आदमी को दुख देगा, परेशान करेगा। आदमी, आदमी का प्राण पियेगा। मर्द औरत का प्राण पियेगा और औरत, मर्द का। भाई, भाई का प्राण पियेगा। भाई, बहिन का प्राण पियेगा। बेटा, बाप का और बाप, बेटे का प्राण पियेगा। साथ रहकर भी लोग एक-दूसरे का प्राण पियेंगे। यह आपत्तिकाल का सपना जो हमने आपको दिखाया है, वह गलत नहीं है। इस समय पैसा, अक्ल, रोटी बढ़ेगी, परन्तु यही अक्ल, पैसा और रोटी अपने को खायेगी। इनसान परेशान हो जायेगा। अगले दिनों विश्वविद्यालय बहुत बनने वाले हैं, कारखाने बहुत बनने वाले हैं, परन्तु हम आपको सावधान कर रहे हैं कि आने वाले समय में हर चीज की कीमत बढ़ने वाली है। हर चीज हमें मुश्किल से प्राप्त होगी। लोहे जैसी चीज का भी मूल्य बढ़ने वाला है। लोहे का मूल्य सोने के बराबर होगा। मुसीबत ही मुसीबत आने वाली है, यदि अभी से हम सचेत नहीं हुए तो।

इस आपत्तिकालीन समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है- आदमी का आध्यात्मिकता से जुड़ना। आध्यात्मिक पारस से जो जुड़े हैं, वे पारस बन गये। विवेकानन्द, दयानन्द पारस बन गये। लोहे को पारस से छुआने पर वह सोना बनता है, कहा नहीं जा सकता, परन्तु यह एक सच्चाई है कि आध्यात्मिक पारस से जुड़ने पर ही लोहे जैसा व्यक्ति सोना यानी प्राणवान, तेजवान, गुणवान्, समृद्धिवान बन जाता है। उनकी अक्ल, आदर्श, सिद्धान्त महान होते हैं। वे श्रेष्ठ व महान बन जाते हैं

मित्रों, अमृत के बारे में हमें यह पता नहीं कि कोई मरने के समय पी ले तो वह बच सकता है। ऐसा तो हमने सुना नहीं है। यदि ऐसा अमृत हुआ होता, तो रामचन्द्रजी को मरने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बहुत सारे भगवान हुये थे, उनकी भी मरने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये मैं सोचता हूँ कि ऐसा अमृत कोई नहीं है। नहीं महाराज जी, शास्त्रों में पुराणों में अमृत के बारे में बहुत लिखा है। बेटे, उसी के बारे में मैं कह रहा हूँ, जिसे पीकर लोग अजर-अमर हो जाते हैं- जैसे राजा हरिश्चन्द्र। गाँधी जी ने एक ड्रामा देखा और वे हरिश्चन्द्र हो गये। गाँधी जी मर गये? नहीं बेटे, गाँधी जी कैसे मर सकते हैं। ईसामसीह मर गये? नहीं बेटे, वे कैसे मर सकते हैं। भगवान बुद्ध मर गये? नहीं, वे नहीं मरे। वे अमर हो गये। कैसे व्यक्ति अमर होते हैं? ऐसे व्यक्ति जिनके अन्दर शालीनता पैदा हो जाती है। आदर्श और सिद्धान्त जिनके रोम-रोम में समा जाता है, वही व्यक्ति अमर हो जाते हैं।

आदमी के अन्दर अगर शालीनता न हो, तो वह नर-पिशाच बन जाता है। जिस आदमी के मुँह से पिशाच अट्टहास करता हुआ चला ता है, अगर उसे उसी तरह बढ़ने दिया जाये, जो वह बहुत खतरनाक हो सकता है। आज मनुष्य ने न जाने क्या-क्या बना लिया है। पहले हवाई जहाज 600 कि.मी. प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ता था। आदमी ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है। चन्द्रमा पर जो राकेट भेजा गया था, उसकी गति छह हजार से 7 हजार मील थी। वह सारी पृथ्वी पर ढाई घण्टे में घूम जाता है। आज तो हर चीज की चाल तेज हो रही है। विनाश की भी चाल तेज हो रही है।

पहचानिए तो कि आप कौन हैं?

यह समय आपत्तिकाल का है, जो एक ओर सुन्दर सपने संजोये हुए है, तो दूसरी तरफ विनाश की लीला भी मुँह बायें खड़ी दिखाई पड़ रही है। आप दोनों के बीच में खड़े हैं। आपको यह दिखाई नहीं पड़ता है। आप कौन हैं? आप जाग्रत आत्मा हैं। हमने जो हार युगदेवता के लिये बनाया है, वह भगवान के इस बगीचे में अच्छे से अच्छे फूलों को लेकर बनाया है, ताकि अच्छी से अच्छी माला युगदेवता के चरणों में चढ़ाई जा सके। आपको हमने बड़ी मुश्किल से ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा है हमें? नहीं बेटे, हमने आपको ढूँढ़ा है। हमने अच्छे-अच्छे रत्नों को ढूँढ़ा है। हमने अखण्ड ज्योति आपके पास भेजी थी। आपने मंगाई थी? नहीं, हमने भेजी थी। बेटे, जिस तरह राम लक्ष्मण को लेने विश्वामित्र दशरथ के पास गये थे, वैसे ही हमने आपके बाप के पास जाकर आपको ढूँढ़ा है। आप समझते नहीं हैं कि हमने कैसे आपको ढूँढ़ा हैं। रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द के पास गये थे? वे कहते थे कि तू क्या करेगा- नौकरी करेगा? हरे हमारा काम हर्ज हो रहा है और तू नौकरी के फेर में पड़ा हैं हम लोगों को मुक्त करने आये हैं। हमारा काम अलग है। हमारा ‘जॉब’ अलग है। हम देश, समाज, राष्ट्र को दिशा देने आये हैं। तू नौकरी करने के लिये नहीं पैदा हुआ है। उनको रामकृष्ण परमहंस ने मजबूर किया और वे चल पड़े।

बेटे तू भी नहीं समझ रहा है। हम भी तुझे मजबूर कर रहे हैं। हमारे पास तू आता रहता है, परन्तु मनोकामनाएँ लेकर आता है। अगर ऊँची तमन्ना लेकर आया होता, तो तू धन्य हो जाता। हम जब अपने गुरुजी के पास जाते हैं, तो हमारी तमन्नाएँ ऊँची रहती हैं तथा हम महान बन जाते हैं। वहाँ से हम महान बनकर आते हैं। हम उनसे कहते रहते हैं कि गुरुदेव हमारा जीवन कुछ और होना चाहिये। हमारे ब्राह्मण तथा संत जीवन में कुछ कमी रह गयी है। उसमें कुछ और प्रखरता, तेजस्विता आनी चाहिये तलवार पर धार दी जाती है तो वह ज्यादा मूल्यवान बन जाती है। हम चाहते हैं कि हमारे ब्राह्मण तथा संत के जीवन में भी कुछ धार आवे ताकि हम और काम कर सकें। जब कभी हिमालय जाता हूँ, तो हमारे और हमारे गुरु के बीच बातचीत होती है, लड़ाई-झगड़ा होता है। हम केवल एक ही बात कहते हैं कि हमारे भीतर कसक है, जान है, दम है। गुरुवर हमसे आप और अधिक काम कराइए, काम लीजिये। हमारी धार को तेज कर दीजिये, ताकि हम अधिक काम कर सकें समाज की सेवा कर सकें। यही हम दोनों में लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। वे कहते हैं कि तू तो बच्चा है और हम कहते हैं कि हम बच्चे नहीं बड़े हैं, आप हमें लड़ाई में भेजिये, फिर देखिये कि हम अपनी पैनी तलवार से क्या करके आते हैं।

परन्तु हमें दुख है कि आपकी और हमारी लड़ाई कुछ घटिया किस्म की होती है। मैं आपको यह बतलाना नहीं चाहता, किन्तु हम जब आपके ख्यालों को, ख्वाबों को पढ़ते हैं तथा देखते हैं, तो हमारा अन्तःकरण रो पड़ता है तब हम यह चाहते हैं कि आपकी सहायता करनी चाहिये। मित्रों, मुझे आदमी की सहायता करनी चाहिये, परन्तु आप जब सहायता माँगते हैं, तो हमें दुख होता है। अब आप बड़े हो गये हैं, तो आपको यह कहना चाहिये कि पिताजी! हम आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आप कहते हैं कि पिताजी हम बच्चे हैं, आप हमारी सहायता कीजिये। अभी आप दो सौ मन लेकर चल रहे थे, अब हमारा भी ढाई सौ मन वजन ले लीजिये। ठीक है बेटे, हम तो लेकर चल देंगे। हम तो देश, समाज, राष्ट्र, धर्म, संस्कृति का वजन लेकर चल रहे हैं, तेरा भी लेकर चलेंगे। हमारे अन्दर क्षमता है कि इतना वजन लेकर चल सकें, परन्तु बेटे, इससे बनता क्या है? क्या आपको संतोष हो जायेगा?

मित्रों, इस शिविर में आपको बुलाने के पीछे हमारा विशेष उद्देश्य सन्निहित था। आप कहते हैं कि हमें कुण्डलिनी जागरण सिखा दीजिये, ब्रह्मवर्चस साधना सिखा दीजिये। बेटे यह मत कह, बल्कि यह कह कि हमें बाजीगरी सिखा दीजिये। मित्रों, बाजीगरी में व्यक्तित्व-निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल बाहरी क्रियाकलापों से, आडम्बरों से वह पूरी हो जाती है। किसान को मेहनत करनी पड़ती है, पसीना बहाना पड़ता है, न फसल मिलती है, लेकिन बाजीगर बिना किसी मेहनत के केवल जमीन पर से मिट्टी उठाना है तथा हाथों की हेरा-फेरी करके पैसा कमा लेता है। इससे क्या मतलब है? हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूजा से, भजन से, सिद्धियों तेरा मकसद है। साधना से क्या मकसद है। यह मैं सब अच्छी तरह जानता हूँ। तू जो देखना चाहता है, वह तो मैं इसी तरह दिखा सकता हूँ। आपको पाने की लालसा कम है, सो दिखाने से काम चल सकता है। आप लोग सिद्ध


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