क्या जीवन वस्तुतः ऐसा ही है- जिसे रोते- खीजते किसी प्रकार पूरा किया जाये? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि अनाड़ी हाथों में पड़कर हीरा भी उपेक्षित होता है, तो बहुमूल्य मानव जीवन क्यों न भार बनकर लदा रहेगा।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य