पतन के कगार पर खड़ी पश्चिम की तथाकथित सभ्यता

December 1997

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भारत का ‘बहुसंस्कृतिवाद’ ही नूतन विश्व का आधार बनेगा

पतन के पश्चात् उत्थान एवं ध्वंस के बाद ही सृजन की असीम सम्भावनायें साकार होती हैं। पुराने खण्डहर के ढहने पर ही भव्य भवन का खड़ा होना सम्भव हो पाता है। दुनिया आज संक्रमण-काल की इन्हीं कष्टकारी परिस्थितियों से गुजर रही है। संसार की सारी व्यवस्थायें टूटकर चरमराने लगी हैं। अपनी सभ्यता को सर्वप्रभुता सम्पन्न घोषित करने वाला पश्चिमी जगत भी आज पतन के कगार पर खड़ा है। रोम, ग्रीस की ही तरह यूरोप की सभ्यता और अमेरिका का बहु-संस्कृतिवाद भी अपनी टूटन और दरकन के भय से आशंकित है। अमेरिका इसके समाधान के लिए आर्थिक व तकनीकी पुरुषार्थ की बात उठा रहा है, जो नदी के तीव्र उफान के सामने बालू-सा बहता नजर आ रहा है। ऐसी विषम स्थिति में सारे विश्व की नजर पुनः भारतीय-संस्कृति एवं सभ्यता की ओर उठ रही है। समस्त पाश्चात्य मनीषी एकमत से स्वीकार कर रहे हैं कि भारत से ही एक नई विश्व-सभ्यता जन्म लेगी।

सभ्यता तथा संस्कृति दोनों मनुष्य की सृजनात्मक क्रिया का परिणाम है। जब यह क्रिया उपयोगी लक्ष्य की ओर गतिमान होती है, तब सभ्यता का जन्म होता है और जब यह मूल्य चेतना को प्रबुद्ध करने की ओर अग्रसर होती है तब संस्कृति का उदय होता है। अतः सभ्यता-साँस्कृतिक क्रिया की ही अनुसंगिक उपज या परिणाम है। राधाकमल मुखर्जी ने ‘द डस्टिनी आफ सिलाइजेशन’ में सभ्यता की परिभाषा- मानव मूल्यों और दुनिया के बीच उनके तरह-तरह के प्रयोगों एवं श्रेणियों में खुले तथा आत्म स्थायित्व प्रदान करने वाले विनियम के रूप में की है। इतिहासवेत्ता डा. मुखर्जी के अनुसार, सभ्यता की उच्चतम स्थिति तब होती है, जब वह मानव की आत्मा को विकास और इतिहास के परे, यहाँ तक कि स्वयं अपने परे जाने के लिए प्रेरित करती है, जार्ज मैकाल्ये ट्रेवेल्यन के मत से निष्काम बौद्धिक जिज्ञासा यथार्थ सभ्यता का जीवन-रस है। महान मनीषी नार्ल्ड टायनबी ने इसका और भी खूबसूरत ढंग से उल्लेख किया है। वह कहते हैं- सभ्यता गति है, स्थिति नहीं, यात्रा है, बन्दरगाह नहीं। सभ्यता किसी संस्कृति की चरम कृत्रिम अवस्था का नाम है। सभ्यताएँ नैसर्गिक धरती के स्थान पर आने वाले कृत्रिम प्रस्तर निर्मित नगर है।

आज विश्व -सभ्यता चारों ओर से टूट दरक रही है। इसमें सब ओर से दरारें ही दरारें दिखाई दे रही हैं। रोमन, ओयभन, ग्रीस आदि सभ्यताओं की अब स्मृति ही शेष रह गयी है। अर्नाल्ड टायनबी के मतानुसार, सभ्यता का अवसान जरूरी है, ताकि मानवीय पुरुषार्थ नूतन सभ्यता की खोज एवं विकास कर सके। इतिहास की यह अश्रुतपूर्व पुनरावृत्ति वर्तमान संक्रमण काल में स्पष्ट दिखाई दे रही है। सुविख्यात चिन्तक मैथ्यू मेल्को अपनी कृति ‘द नेचर आफ सिविलाइजेशन’ में पश्चिमी सभ्यता के विखण्डन के लिए दो मुख्य बिन्दुओं की ओर संकेत करते हैं। पहली बात यह है कि पश्चिमी दुनिया अपनी सभ्यता को सर्वश्रेष्ठ मानती है और दूसरी बात यह है कि इसी के माध्यम से विश्व-सभ्यता की कल्पना की गई है। इसके प्रसार के लिए हर सम्भव उपाय करने में वे मशगूल हैं। अन्य सभ्यता की अच्छाइयाँ उन्हें स्वीकार नहीं। मैथ्यू मेल्को के अनुसार, सम्भवतः इसी संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण उन्हें विकास के नाम पर पतन ही हाथ लगा है।

पश्चिमी दुनिया के नाम पर आज अमेरिका ही सामने दिखाई देता है। यूरोप ने भी इसे आत्म स्वीकृति दे दी है। वैसे पाश्चात्य सभ्यता का मूल स्रोत यूनानी सभ्यता है। यूनानी सभ्यता का प्रधान भाव है- आत्मप्रदर्शन। इस तरह पश्चिमी सभ्यता है। यूनानी सभ्यता का प्रधान भाव है- आत्मप्रदर्शन। इस तरह पश्चिमी सभ्यता का मेरुदण्ड शुरुआत से ही विस्तार और आत्मप्रदर्शन रहा है। आर्थर एम. होसिंगर के अनुसार, पश्चिमी सभ्यता होने वाली विशेषताएं- व्यक्ति उदारता, प्रजातन्त्र, साँस्कृतिक स्वतंत्रता व मानवाधिकार हैं। हालाँकि ये विशेषताएँ यथार्थ में वहाँ कितनी जीवंत हैं- इसे अब धीर-धीरे सारी दुनिया जान चुकी है। वैसे भी ये विशेषताएँ तो तब बरकरार रहतीं- जब यूरोप और अमेरिका अपने मूल अस्तित्व को बनाये रख पाते। 1500 साल पुरानी पश्चिमी सभ्यता ने अब अपनी दिशा बदल दी है। आर्थिक रूप से सम्पन्न वहाँ का समाज आज बेहद आधुनिकता के दौर से गुजर रहा है।

इसी के साथ वहाँ की सभ्यता भी किसी न किसी नये संकट से रोज घिरती जा रही है। यों इसका अनुभव काफी समय अधिकाँश चिन्तक करते रहे हैं, मगर यह कोई नहीं बता पाया कि इसका क्या कारण है और इससे बचने का उपाय क्या है? पहले-पहल इस संकट की अनुभूति ओसवाल्ड स्पैंगलर को को हुई थी, जिसने ‘डिक्लाइन आफ द वेस्ट’ लिखकर सारे संसार को चौंका दिया था। इस संकट की अनुभूति के प्रमाण टी.एस. इनियट और अल्हुअस हक्सले में भी पाते हैं। इसका कुछ अहसास और आभास महात्मा गाँधी को भी हुआ था। सम्भवतः इसी वजह से वे पश्चिमी आधुनिकता को शंका की नजर से देखते थे। श्री अरविन्द भी पश्चिमी सभ्यता से सहमत नहीं थे। प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायबी सभ्यता और संस्कृति में तो अन्तर करते ही हैं, साथ में यह भी कहते हैं कि यांत्रिक उन्नति न तो साँस्कृतिक विकास के लिए जरूरी है और न ही उसका सहायक है। उनका विचार है कि कभी-कभी यांत्रिक उन्नति सभ्यता के लिए अवरोध तथा अवनति में सहायक होने लगती है। इतिहास में ऐसे अवसर भी आयें है जब यांत्रिक प्रगति के कारण सभ्यताओं का पतन हुआ, सभ्यताओं की प्रगति तो परिस्थितियों द्वारा दिये जाने वाले नैतिक प्रत्युत्तर के द्वारा होती है।

केरोल क्वीगले ने आर्थिक व व्यापारिक दौड़ में भागती पश्चिमी दुनिया को अवसाद और अवनति का प्रतीक माना है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि पश्चिमी सभ्यता सन् 370 और 750 के बीच विकसित हुई। जिसमें सेमेटिक, सारासेन और बारबेरियन संस्कृति का सम्मिश्रण हुआ। इसकी विकासावधि तकरीबन आठवीं से दसवीं शताब्दी के अन्त तक रही। इस दौरान इसमें गति, प्रसार व संकुचन के अनेकों दौर आए। वर्तमान परिवेश में यह सिक्युरिटी जोन के रूप में अनेक आन्तरिक युद्धों, गृह युद्धों तथा अन्य कई तरह की समस्याओं से उलझा हुआ है।

आज आश्चर्यजनक रूप से पश्चिमी सभ्यता के सारे रंगीन अरमान और उपभोक्तावादी संस्कृति के मनसूबे पतन-पराभव के गर्त में ढहते नजर आ रहे हैं। उत्थान की कोशिशें तो बहुत हुईं, पर सबकी सब बाहरी तौर पर व्यक्तित्व-निर्माण चरित्र निर्माण एवं साँस्कृतिक मूल्यों के अभाव में सैनिक, राजनैतिक तथा आर्थिक संगठनों के प्रयास भी बालू के महल की तरह ढह गये। पतन के कारणों में आधुनिक व्यय की दर में कमी एवं बड़े और आर्थिक सम्पन्न देशों की तुष्टिकरण की नीति को भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इससे भौतिक स्वरूप को भी बरकरार नहीं रखा जा सका एवं सभ्यता के सारे कारक टूटकर बिखरने लगे। दूसरी ओर अर्थाभाव, जीवन-मूल्यों का ह्रास, साँस्कृतिक संवेदना की कमी समाज को खोखला करती चली गयी। इन समस्त समस्याओं से घिर कर पाश्चात्य सभ्यता पतनोन्मुखी हो गयी है। केरोल क्वीगले ने ‘इवोल्यूशन ऑफ सिविलाइजेशन’ में इस पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा है कि जब कोई सभ्यता या समाज स्वयं की सुरक्षा एवं सामर्थ्य की दृढ़ इच्छाशक्ति को खो देता है, तो उसे कोई नहीं बचा सकता। राष्ट्र की इसी कमजोरी पर चारों ओर से षड्यंत्रकारी, अनैतिक व अलगाववादी तत्वों का प्रहार शुरू होता है। प्रकृति इसी विपन्न परिस्थिति में अपने गर्भ से एक नयी और शक्तिशाली सभ्यता का जन्म हो, किन्तु उनका मानना है कि यह नयी सभ्यता अपना आत्मगौरव भारत के अतीत से पाएगी, क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता में तो आत्मा जैसा कोई तत्व है ही नहीं वह तो सिर्फ एक चमकता खोल भर है।

पश्चिमी दुनिया की सम्पूर्ण विशेषता उसकी आर्थिक सम्पन्नता पर टिकी है। बाह्याडंबर ही यहाँ का पारम्परिक मूल्य एवं मानदण्ड है। हाँ, जनसंख्या में कमी, इसकी खासियत जरूर है- विशेषकर मुस्लिम देशों की अपेक्षा। इसी वजह से यह समृद्धि के शिखर पर पहुँच पाया है। इसके बावजूद पूर्वी एशिया की तुलना में यहाँ प्राकृतिक संसाधनों की कमी, बचत व आर्थिक विकास दर में न्यूनता स्पष्ट दिखाई देती है। इसका सबसे अहम् मुद्दा है विज्ञान व टेक्नालॉजी, जिसमें इसने तेजी से विकास किया है। हालाँकि इसके लिए इसने संसार भर से उच्च शिक्षित प्रतिभावानों का हरण किया है। यहाँ से प्रारम्भ होता है ‘अमेरिका का बहुसंस्कृतिवाद’। तमाम देशों के लोगों एवं उनके परिवारों का आ बसने के कारण अमेरिका की अपनी मूल संस्कृति और सभ्यता समाप्त-सी हो गयी है। यूरोप की स्थिति इससे और भी जटिल है।

बहुसंस्कृतिवाद मुख्यतः इन्हीं प्रवासियों के कारण पैदा हुआ है। सर्वप्रथम प्रतिभाओं का आमंत्रण यूरोप में हुआ, फिर अमेरिका में। आज इनकी संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि दोनों जगह के लिए यह घातक सिद्ध हो रहा है। इन दोनों संस्कृतियों के पास भारतीय संस्कृति की तरह ऐसा कोई रसायन नहीं है, जो सबके साथ समरसता स्थापित कर उसे आत्मसात् कर ले। आज के समय में पाश्चात्य संस्कृति के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है। यूरोप में यह समस्या अल्पसंख्यक मुस्लिमों द्वारा खड़ी की गई है, जिन्होंने यूरोप के जीवन-मूल्यों आचार-संहिताओं ?, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं को नकार दिया है। अमेरिका के लिए यह परेशानी बहुसंख्यक हिस्पेनिक्स द्वारा लायी गयी है। हिस्पेनिक्स प्रवासियों को अपने देश में प्रवास दिये जाने के खिलाफ है, जिससे वहाँ संघर्ष की विस्फोटक स्थिति होने की सम्भावना है।

अमेरिका का अरमान है, समस्त विश्व का नियंत्रण अपने हाथों में थामना। इसकी सभ्यता आर्थिक एवं तकनीकी सम्पन्नता है। इसी के बलबूते वह अपना मनसूबा बाँधता है। बेंजामिन फ्रेंकलिन, थामस जेफरमेन, जान एडमस सरीखे नेताओं ने इसकी पुष्टि भी की है। पूर्व राष्ट्रपति थियोडोर रुश्जवेल्ट ने भी इसी को प्रतिपादित किया था। इसके परिणामस्वरूप आज अमेरिकी सभ्यता लगभग उस मुकाम पर पहुँच गयी है, परन्तु अपने साँस्कृतिक अस्तित्व को मिटाकर। आज हर अमेरिकन विचारक यह सोच रहा है कि साँस्कृतिक विविधता अच्छी बात है, परन्तु एक निश्चित मापदण्डों पर। साथ ही वहाँ के विख्यात मनीषी इस बात पर भी हैरान हैं कि भारतीय संस्कृति में आखिर वे मौलिक तत्व कौन से हैं, जिसकी वजह से इसने अपनी तरफ आने वाली हर सभ्यता एवं संस्कृति को अपनाकर भी स्वयं का मौलिक रूप बरकरार रखा है। सेम्युअल पी. हटिंगटन तो यहाँ तक कहते हैं कि अमेरिका को बहुसंस्कृतिवाद का सही एवं मौलिक रूप भारतीय संस्कृति के तत्वों को लेकर गढ़ना चाहिये। उनके अनुसार आज की दशा में तो अमेरिका यूनाइटेड स्टेट्स न होकर यूनाइटेड नेशन्स बनकर रह गया है।

बहुसंस्कृतिवाद पर अपना मन्तव्य व्यक्त करते हुए आर्थर एम. शेरिंनगर ने अपने शोध ग्रन्थ ‘द डिसयूनिटिंग आफ अमेरिका- रिफ्लेक्शन आन ए मल्टीकल्चरल सोसाइटी’ में लिखा- अमेरिका ने कभी भी विकास के लिए संस्कृति एवं आध्यात्मिक मापदण्ड नहीं अपनाये। इसी कारण यहाँ भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ आयीं और अपने ढंग से फैलती गयीं। कुछ ने तो स्वयं की भी पहचान खो दी। इन्हीं सब कारणों से अमेरिका अपनी मूलभूत सभ्यता का अस्तित्व खो बैठा तथा नई जातीय, साम्प्रदायिक, सामुदायिक एवं सामाजिक टुकड़ों में बँट गया।

अमेरिका के विपरीत यूरोप में सभ्यता का आधार धर्म है, किन्तु इस धर्म का मतलब कुछ कर्मकाण्डों एवं कृत्यों की कट्टरता भर है। आध्यात्मिक संवेदना का विस्तार नहीं। परिस्थितियों के अनुरूप यहाँ समस्या भी धार्मिक है। मैशी डोगन ने यूरोपीय सभ्यता की धार्मिक मान्यताओं के पतन को रेखांकित किया है; इनके अनुसार, यूरोप का केन्द्रीय बिन्दु क्रिश्चियेनिटी है, जिसका सतत् ह्रास होता जा रहा है। यहाँ पर सभ्यता के सारे मापदण्ड धर्म पर आधारित हैं। यूरोप में स्वीडिश सबसे अधार्मिक जातियों में गिने जाते हैं ये प्रचलित मान्यताओं को नकार कर लुथेरियन विरासत की माँग करते हैं। इस प्रकार की धार्मिक कट्टरता ने यूरोपीय सभ्यता को खण्ड-खण्ड कर दिया है। राबर्ट बुधनोव के मतानुसार, पश्चिमी सभ्यता किसी एक मत पर आधारित नहीं दीखती। यूरोप ने तो स्वयं को बचाने के लिए ईसाई, रूढ़िवादी और मुस्लिम सभ्यता के बीच एक रेखा खींचने की कोशिश की है ताकि सबका अपना अलग अस्तित्व बना रहे। अमेरिका भी इसे करना चाहता है, लेकिन उसे आशंका है कहीं इससे उसके यहाँ की प्रतिभाएँ पलायन कर जाए, क्योंकि इन्हीं के बलबूते तो वह नयी विश्व-सभ्यता का सपना देख रहा है।

पश्चिमी दुनिया में आर्थिक सम्पन्नता जितनी बढ़ी है, सहूलियत में जितनी बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है, नैतिक पतन उससे भी ज्यादा हुआ है। हर तरफ साँस्कृतिक पराभव, राजनैतिक अस्थिरता के दृश्य देखे जा सकते हैं। इन सबको चार बिन्दुओं में रेखांकित किया जा सकता है-

1- असामाजिक व्यवहार, जैसे अपराध, हिंसा, हत्या व ड्रग्स में वृद्धि।

2- पारिवारिक विखण्डन, अत्यधिक तलाक, कुँआरी गर्भावस्था आदि।

3- सामाजिक व्यवस्था का तार-तार होना।

4- बौद्धिक क्षमता का भारी मात्रा में दुरुपयोग एवं कार्यक्षमता में कमी।

सभ्यता के पतन में युद्ध भी बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। युद्ध से सभ्यता चरमरा जाती है एवं विकास अवरुद्ध हो जाता है। इनमें भी गृहयुद्ध प्रथम है। युद्ध से मानव जाति पर गहरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ता है। बोस्निया-चेचन्या तथा खाड़ी युद्ध इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। परमाणु हथियारों की होड़ तो और भी सर्वनाश बनती जा रही है। समाज में शान्ति एवं प्रगति के स्थान पर भय और आतंक का वातावरण गहरा रहा है। इसी भय से चीन, जापान, फ्राँस और अमेरिका आदि देश बचाव चाहते हैं।

सभ्यता की ये तमाम चुनौतियाँ पश्चिमी दुनिया खासतौर पर अमेरिकी लोगों में दो तरह से देखी जा सकती है- Discriptivity एवं Normaltivity- पहले के अंतर्गत प्रत्येक समाज को पाश्चात्य मूल्यों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों को अपनाने के लिए बाध्य करना। जो समाज इसे अमान्य ठहराये, उसे झूठा घोषित करना। दूसरे के दायरे में सारा विश्व आता है, जिसमें पश्चिमी सभ्यता को बलपूर्वक फैलाना है, लेकिन पश्चिमी दुनिया के ही सुविख्यात विचारक इन दोनों ही प्रवृत्तियों को हास्यास्पद बताते हैं ; उनके अनुसार, सार्वभौम विश्व-सभ्यता की स्थापना समग्र मानवीय प्रकृति के अनुरूप एवं अनुकूल तत्वों से ही सम्भव है। ये सभी तत्व यदि कहीं एक साथ देखे या पाये जा सकते हैं, तो वह भारतीय संस्कृति ही है। इसी के द्वारा लोग सही मायने में उच्च, प्रतिष्ठित, अधिक उदार, सर्वोच्च तार्किक एवं चरम सभ्य बन सकते हैं।

मार्क्सवाद की असफलता तथा सोवियत यूनियन के नाटकीय विखण्डन ने इस बात का सबूत मिल जाता है कि कोई भी राष्ट्र अपने मूलभूत मानवीय आदर्श एवं साँस्कृतिक परम्परा की गहरी नींव पर ही टिक सकता है। यथार्थ एकता और एकात्मकता, संस्कृति एवं सभ्यता के विकास से सम्भव है, न कि राजनीति एवं विज्ञान द्वारा। जेम्स कुर्थ ‘द रियल क्लैश’ में इसे और बारीकी से बताते हैं। इनके अनुसार, पश्चिमी जगत भले ही आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं समृद्धिशाली हो, भले ही इसके अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध भी हों, परन्तु साँस्कृतिक उत्कर्ष के अभाव में यथार्थ विकास नहीं हो सका है। उनकी साँस्कृतिक संकीर्णता की झलक इसी बात में देखी जा सकती है कि एक अमेरिकन भारत के गाँव या श्रीलंका की गलियों में अपनत्व का बोध नहीं कर सकता, जबकि एक भारतीय ‘स्वदेशों भुवनत्रयम’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के साँस्कृतिक सूत्रों के आधार पर सारी दुनिया में अपनापन महसूस करता है।

माइकल होवार्ड ‘अमेरिका एण्ड द वर्न्ड’ में पाश्चात्य सभ्यता के पतन के तीन कारण गिनाते हैं। इनमें पहला है झूठ, दूसरा है अनीति और अन्तिम है औरों की भयभीत करने की आदत। होवार्ड के अनुसार, पाश्चात्य सभ्यता का तीव्र विकास बुनियादी नींव पर न होकर आभासी संरचना पर हुआ है। ये अपनी सभ्यता के जिन आदर्शों की बातें करते हैं, वे सिरे से उनमें ही नहीं हैं। होवार्ड ने इसे अनैतिक इसलिए कहा है क्योंकि पाश्चात्य सभ्यता अपने प्रचार-प्रसार के लिए कूटनीति पर टिकी है, जबकि किसी सभ्यता के विकास का आधार उसकी संवेदनशील मानवीय भावनाएँ होनी चाहिये। पतन का तीसरा कारण है- औरों को भयभीत करने की प्रवृत्ति। होवार्ड कहते हैं कि अधिकाँश पश्चिमी देश, जिनमें स्वयं अमेरिका भी शामिल है, दुनिया भर के विकासशील देशों को आर्थिक भय दिखाकर डराते रहते हैं। बात-बात में आर्थिक-प्रतिबन्ध की धमकी इनकी मानसिकता बन गयी है। यही सारी दुनिया अतीत में हुई बौद्धिक प्रगति को जबरदस्ती अपनी बताकर पेटेण्ट कानून से उसे प्रतिबन्धित करना, इसी भयभीत करने की प्रवृत्ति का दूसरा रूप हैं। उदाहरण के लिए समूचा विश्व एवं विश्वविख्यात इतिहासविद् जड़ी-बूटियों के ज्ञान, आयुर्वेद की सफलता सम्पदा को भारतीय होने, भारत में खोजे जाने के प्रमाण देते हैं, फिर भी अमेरिका जैसे देश नीम को पेटेण्ट कराकर उस पर अपना हक जताते हैं। इसी कारण केरोल क्वीगले ने बड़े दावे के साथ भविष्यवाणी की है- पश्चिमी दुनिया सही मायने में यथार्थ रूप में जब कभी सभ्यता का ‘क ख ग ’ सीखने की कोशिश करेगी, उसे भारत की शरण में जाना होगा। उन्होंने तो यह भी दावा किया है कि सन् 2015 तक भारत के प्रभाव से पाश्चात्य जगत अपने नूतन भविष्य का सपना साकार कर करेगा।

आज की विश्व प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित पुस्तक ‘द क्लैश आफ सिविलाइजेशन एण्ड द रिमेकिंग आफ द वर्ल्ड आर्डर’ के लेखक सेम्युल पी. हंटिंगटन ने भी बड़े जोरदार ढंग से भारत की ओर संकेत किया है। इनके अनुसार, आज की सभ्यता एवं संस्कृति के अस्तित्व की लड़ाई में भारत की हिन्दू विचारधारा ही एक मात्र निदान प्रस्तुत कर सकेगी। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि अमेरिका यूरोप की सभ्यता के पतन के साथ एशिया में चीन, जापान व कोरिया सरीखे देशों की सभ्यता का भी यदि अवसान हो जाए, तो भी भारतीय उपमहाद्वीप सारी स्थिति को संभाल सकता है। इसकी इस सामर्थ्य को उजागर करते हुए हंटिंगटन ने कहा है कि भारतीय संस्कृति व सभ्यता ही एकमात्र आशा की किरण है। यही एकमात्र विश्व के सभी धर्मों, सभ्यताओं व संस्कृतियों को उचित सम्मान देने के साथ दर्शन, कला, शिक्षा एवं टेक्नोलॉजी को विकास कर अवसर देकर नयी विश्व-सभ्यता का निर्माण कर सकती है।

युगद्रष्टा एवं मानव जाति के उन्नायक स्वामी विवेकानन्द नये युग का उदय पूर्वी एवं पश्चिमी सभ्यता के मेल में ही देखते हैं। उन्होंने उद्घोष किया है कि जो समाज जाति या सभ्यता आध्यात्मिकता में जितनी आगे बढ़ी है-वह उतनी ही सभ्य, सुसंस्कृत जाति है। भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र एवं सुविधा-सरंजाम जुटा लेने से कोई जाति सभ्य नहीं हो जाती। आज की पाश्चात्य सभ्यता का कुछ यही हाल है। इसके साधन तो बस लोगों में दिन-प्रतिदिन भय एवं हाहाकार को ही बढ़ा रहे हैं। श्री अरविन्द के शब्दों में कहें तो एक संसार यह है, जिसमें पाश्चात्य विज्ञान, टेक्नोलॉजी एवं अर्थ सम्पदा को पूजते हुए मानव मन-ही-मन भय से काँप रहा है। एक संसार वह था, जिसमें मनुष्य आत्मसत्ता पर प्रगाढ़ विश्वास करता था और औरों को स्वयं से अभिन्न समझते हुए उनकी सेवा-सहायता करता था, पर संक्रमण के वर्तमान क्षणों के पार मानव का भविष्य देखते हुए वे कहते हैं- यही वह समय है, जिसमें मानवीय सभ्यता का नवजन्म होगा। अतीत के भारतीय गौरव को यथार्थ बनाते हुए एक ऐसी विश्वव्यापी सभ्यता एवं संस्कृति विकसित होगी, जो सब तरह अनोखी, अद्भुत एवं अभूतपूर्व होगी।


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