साँस्कृतिक क्रान्ति, जो सुनिश्चित रूप से होकर रहेगी

December 1997

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टेलीविजन के बीसियों चैनल पर जब सैकड़ों धारावाहिकों की भरमार है, तब ऐसे में एक नये धारावाहिक व फिर उसकी शृंखला के निर्माण में मिशन को क्यों प्रवृत्त होना पड़ा? परिजनों की यह जिज्ञासा स्वाभाविक है, इसके जवाब में यही कहना उचित है कि यह अनौचित्य के विरुद्ध महाक्रान्ति का शंखनाद है, समग्र नैतिक क्रान्ति की रणभेरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कला में जीवन मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा के महोत्सव का शुभारम्भ है। यह सर्वविदित है कि पढ़ी बातों से सुनी गयी बातें ज्यादा असर करती हैं। सुने गये तथ्यों से देखे गये दृश्य हमेशा ज्यादा प्रभावशाली होते हैं। ये केवल विचारों एवं बुद्धि के दायरे में हलचल पैदा करने तक सीमित नहीं रहते, बल्कि भावनाओं को भी उद्वेलित-आन्दोलित करते हैं। यही कारण है कि इनके प्रभाव की सीमा रेखा विचारशीलों, बुद्धिमानों तक सिमटी-सिकुड़ी नहीं है। अपढ़-गँवार यहाँ तक कि अबोध बच्चे तक इनसे प्रेरित-प्रभावित होते रहते हैं। दृश्य-श्रव्य माध्यम यानि कि चलचित्र और धारावाहिकों के बारे में यही तथ्य लागू होता है।

युगद्रष्टा परमपूज्य गुरुदेव इस सत्य की स्वीकारोक्ति करते हुए जुलाई, 1970 की अखण्ड-ज्योति में लिखते हैं- सिनेमा इस युग में एक नये जादू की तरह आया है। उसने कोमल भावना वाले उदीयमान नवयुवक-नवयुवतियों को अपने सम्मोहन पाश में कस कर जकड़ा है। यह सस्ता मनोरंजन जन-साधारण को अच्छा लगा है और एक प्रकार से सर्वत्र उसका स्वागत हुआ है। सबकी आत्मा धीरे-धीरे सिनेमा में समाती चली जा रही है। विज्ञान का यह जादू जनमानस एवं लोकभावनाओं पर सीधा प्रभाव डाल रहा है। उसकी गहरी छाप पड़ रही है।

कला की चर्चा करनी हो, तो अब सिनेमा को प्रमुख स्थान देना पड़ेगा। यह सिनेमा यदि आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, समाज-निर्माण जीवन की समस्याओं के हल एवं विश्वशान्ति की ओर उन्मुख रहा होता, तो स्वस्थ मनोरंजन के साथ लोकमंगल की आशाजनक सम्भावनायें प्रस्तुत कर सकता था, पर ‘मरे को मारे शाह मदार’ वाला दुर्भाग्य यहाँ भी आ विराजा। हजार वर्षों की पराधीन, पिछड़ी, पथभ्रष्ट कौम को स्वस्थ मार्गदर्शन देने की अपेक्षा सिनेमा उल्टी दिशा में ही घसीटने लग पड़ा। फिल्मों के कथानक, अभिनय, गायन, नृत्य आदि में प्रेरक प्रसंग यदा-कदा ही दिखाई देते हैं। अधिकतर कामुक, अश्लील, उग्रता, उच्छृंखलता एवं पशु प्रवृत्ति को भड़काने वाले प्रसंग ही अधिक मिलते हैं। सिनेमा- संगीत ही वस्तुतः आत का युग-गायन है। कला जैसी मानव अन्तःकरण की अभिव्यंजना करने वाला वृत्ति जब इस प्रकार अधःपतित होती चली जायेगी, तो मानवीय आदर्शों का प्रवाह भी पतनोन्मुख होने से क्यों रुकेगा? आज की स्थिति यही है।

सिनेमा का इतिहास तकरीबन सौ साल पुराना है उसमें भी भारतीय सिनेमा ने स्वतंत्रता के कुछ ही पूर्व अपनी ठीक-ठीक शुरुआत की थी। यदि अपने देश के सिनेमा इतिहास के प्रत्येक दशक का विश्लेषण-मूल्याँकन करें, तो यही पायेंगे कि इसमें उत्तरोत्तर गिरावट आयी है।

अभी कुछ ही समय पूर्व वर्तमान दशक के पिछले वर्षों में प्रदर्शित फिल्मों, धारावाहिकों का विश्लेषण कर विशेषज्ञों ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि इनसे समाज को क्या मिलता है? उनके अनुसार बड़े अमीर लोगों को फैशन और आधुनिकतम स्टाइल मिलती है। सुपरहिट फिल्मों में नायक खुली सड़क पर मारधाड़ मचाता है। पुलिस भी तमाशा देखती रहती है। वह दस-बीस को घायल कर एम्बुलेंस में ठूँस कर अस्पताल भेज देता है और निडर होकर चला जाता है। न पुलिस हस्तक्षेप करती है और न समाज का कोई व्यक्ति। फिर यदि किशोर जनसामान्य जीवन में यही कहानी फिल्म की जुबानी दुहराते हैं, तो देखी हुई को ही तो करते हैं। तब जाकर पुलिस और आम जनता को ज्ञात होता है कि फिल्म का असर कहाँ कितना हुआ। भारत में जहाँ आर्थिक विषमता चरम सीमा पर है, वहाँ फिल्मों में प्रदर्शित हिंसा उत्प्रेरक का काम करती है और आर्थिक विषमताओं के भार से दबा हुआ व्यक्ति ये सब कुकृत्य करने पर उतारू हो जाता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार समाज के ऊपर इनके प्रभाव के निम्नलिखित तथ्य प्रकाश में आये हैं- (1) डकैती करने का ज्ञान, (2) घर में छिपी हुई तिजोरियों का पता लगाने की युक्ति, (3) घर में प्रवेश करने के लिए मास्टर कुँजी का प्रयोग, (4) डायल टटोलकर तिजोरी खोलने की युक्ति, (5) खिड़की को बिना किसी शोर के तोड़ डालने की युक्ति, (6) चुम्बन- आलिंगन और बलात्कार का ज्ञान, (7) मार-पीट के चमत्कारी तरीके, (8) सिगरेट, शराब और नशीली दवाओं का सेवन, (9) आत्म हत्या की प्रेरणा, (10) अभिभावकों से लड़कर घर छोड़कर भाग जाने की प्रेरणा, (11) भद्दे उत्तेजक और अधनंगे पहनावे का प्रयोग, (12) क्लब, डिस्कोथेक आदि में जाने का शौक और वहाँ कैबरे आदि गन्दे नृत्य का प्रयोग, (13) हेरोइन, कोकीन जैसे खतरनाक नशे एवं हथियार आदि के स्मगलिंग करने के नये-नये तरीके, (14) बम, विदेशी सामान आदि को छुपाने का ज्ञान। इस तरह के और भी सैकड़ों उदाहरण हैं, जिससे यह साबित होता है कि फिल्मों का कितना बुरा प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब यह सर्वमान्य सत्य हो कि अपने देश में समाचार पत्रों तथा अश्लील पुस्तकों से फिल्मों का प्रभाव कहीं सैकड़ों गुना अधिक है।

बात सिनेमा घरों तक ही बनी रहती तो भी सहनीय थी, क्योंकि इसके अच्छे-बुरे असर किशोर-किशोरियों युवक-युवतियों एवं वयस्कों तक ही सीमित थे, पर अब केबल टेलीविजन का प्रचलन एवं वीडियो क्रान्ति होने से अब इसके प्रभाव के दायरे में घर-आँगन में खेलने वाले अबोध बच्चे भी आ गये हैं। अब इन्हें भी टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की तर्ज पर नाचते - मटकते देखा जा सकता है। बच्चे तो अनुकरणशील होते हैं, वे तो सहज भाव में बिना कुछ जाने-समझे नकल करने में संलग्न हो जाते हैं। उनकी यह अबोध आया संस्कारों के बीजारोपण की है। संयोग से या फिर परिस्थितिवश उन्हें जो संस्कार मिल रहे हैं, उसे देखते हुए यह आशा कैसे की जा सकती है कि वे भविष्य में शिवाजी एवं राणाप्रताप की तरह चरित्रवान एवं तेजस्वी राष्ट्रनायक बनेंगे।

यहाँ न तो लोकरंजन को अनुपयोगी ठहराया जा रहा है और न ही सिनेमा जैसे सशक्त तन्त्र को निरर्थक ठहराया जा रहा है, वरन् उन तथ्यों पर प्रकाश डाला जा रहा है, जिनके कारण अपने देश में मनोरंजन का यह माध्यम अपनी उपयोगिता-उपादेयता नहीं सिद्ध कर पा रहा है। कहा जा चुका है कि जनमानस में भली-बुरी प्रेरणाएँ भरने का यह सबसे सशक्त मनोवैज्ञानिक माध्यम है। जिसका सदुपयोग कितने ही देशों ने नवनिर्माण के लिये किया है तथा कितने ही कर रहे हैं। विकृतियों की चर्चा इसलिये की जा रही है, क्योंकि सिनेमा जैसा तंत्र अपने देश में जन कुत्सा भड़काने में संलग्न होकर पतनोन्मुखी गतिविधियों को ही बढ़ावा दे रहा है। दोष तन्त्र का नहीं, वरन् उस पर आधिपत्य रखने वाले उन समर्थ सम्पन्न व्यक्तियों का है, जो धन की संकीर्ण स्वार्थपरता से अभिप्रेरित होकर कला के देवता को कीचड़ में धकेलने को तत्पर हैं। समाज और देश की जिन्हें थोड़ी भी चिन्ता नहीं है। पैसा ही उनका इष्ट है, जिसके लिये वे सामाजिक हितों की बलि देने में थोड़ा भी नहीं हिचकते।

अपेक्षा इनसे कुछ विशेष नहीं की जा सकती। अपवादों की बात अलग है, पर मात्र उनसे बात नहीं बनती, बहुतायत तो सिनेमा तंत्र पर आधिपत्य रखने वाले ऐसे व्यक्तियों की है, जो संकीर्ण स्वार्थपरता सके दलदल से निकलने को तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रयास अपने ही स्तर पर करना होगा। हालाँकि एक तरीका यह भी हो सकता है कि सिनेमा उद्योग के समानान्तर एक नया ऐसा सिनेमा-तंत्र खड़ा कर दिया जाये, जिसका एकमात्र लक्ष्य हो- नवसृजन की, समाज एवं देश के सर्वांगीण विकास की प्रेरणाएँ उभारना। इसके लिये धनशक्ति और प्रबुद्ध जनशक्ति की आवश्यकता है। थोड़े से भावनाशील ऐसे निकाल आयें, जो इस कार्य के लिए पूँजी लगाने के लिए तैयार हो जायें और थोड़े प्रतिभावान ऐसे मिल जायें जो अपनी विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को इसमें नियोजित कर सकें, तो व्यापक अभियान छेड़ा जा सकता है।

सिनेमा तंत्र को मात्र लगातार कोसते रहने से समाधान नहीं निकलेगा कुछ ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे। गाँधी जी का खादी ग्रामोद्योग आन्दोलन विदेशी सामानों के विरोध में उभर कर सामने आया और जन-जन में लोकप्रिय हुआ। उत्कृष्टता हर किसी को लोकप्रिय है, पर ऐसी प्रेरणा देने के लिये सशक्त आधार चाहिये। मनोरंजन मनुष्य की एक आवश्यक माँग है। जनमानस की इस माँग की आपूर्ति प्रचलित सिनेमा तंत्र भली-बुरी प्रेरणाओं के साथ कर रहा है। उत्कृष्ट फिल्मों-श्रेष्ठ धारावाहिकों का निर्माण होने लगे, तो कोई कारण नहीं कि नवनिर्माण का महान प्रयोजन पूरा होता न रह सके। बुराई को देखकर बुराई पनपती और अच्छाई से सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। अच्छी फिल्मों एवं उत्कृष्ट धारावाहिकों के निर्माण के लिए तंत्र खड़ा होते ही पुराने सिनेमा निर्माताओं को अपना ढर्रा बदलने के लिए विवश होना पड़ेगा।

नवम्बर, 1974 की अखण्ड- ज्योति के पृष्ठों में परमपूज्य गुरुदेव ने इस सम्बन्ध में एक योजना प्रकाशित की थी। उन्हीं के शब्दों में तीसरी योजना फिल्म निर्माण की है। यह एक तथ्य है कि भारत के समस्त समाचार और विचार पत्रों के जितने पाठक हैं, उससे कहीं अधिक लोग हर दिन सिनेमा देखते हैं। रेडियो-प्रसारण सुनने वालों की संख्या भी इन सिनेमा दर्शकों के सामने फीकी पड़ती है। प्रचार का सबसे प्रमुख और सबसे व्यापक साधन इन दिनों फिल्म मंच ही बना हुआ है। इस मंच से जो सिखाया गया है, सिखाया जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। ऐसी दशा में यही उचित समझा गया कि फिल्म-निर्माण का एक समानान्तर मंच तैयार किया जाये जो अनुपयुक्त के मुकाबले उपयुक्त को रखकर जनता को यह निर्णय करने का अवसर दे कि उसे क्या अपनाना और क्या छोड़ना है?

योजना यह है कि भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को इस रूप में प्रस्तुत किया जाये कि वह आज की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सके और विश्व संस्कृति के रूप में, मानव संस्कृति के रूप में मान्यता प्राप्त कर सके। इसके लिए अपने गौरवास्पद, साँस्कृतिक इतिहास को कलात्मक, किन्तु प्रेरक आदर्शवादी परम्पराओं के साथ प्रस्तुत करना पड़ेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति करने वाले कथानकों से हमारा पुराण-साहित्य विशालकाय समुद्र की तरह बिखरा पड़ा है। उसमें से मनचाहे मोती कितनी ही बड़ी संख्या में बीने जा सकते हैं आर उन आधारों को लेकर व्यक्ति और समाज को बदल देने वाले भटकाव और दिशा निर्देश देने वाले अगणित ऐसे कथानक निकल सकते हैं, जिनके आधार पर फिल्म बनायी जाती रहे और लोकरंजन के साथ लोकमंगल का प्रयोजन बहुत सरलता से और सफलता से सम्पन्न किया जाता रहे।

यों पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों पर कितनी ही फिल्में बनीं और चली हैं। धार्मिक, तीर्थयात्रा परक कितनी ही फिल्में सामने आयी हैं, पर उनमें निरुद्देश्य कथा-प्रसंग ही भरे पड़े हैं। दिशा और प्रेरणा मिलने की अपेक्षा उनसे चमत्कारवाद से अन्धविश्वास जैसी प्रतिगामी मान्यताएँ ही दर्शकों के मन पर जमती हैं। ऐसा कुछ भी उनमें नहीं होता जिससे दर्शक की अन्तरात्मा आदर्शवादी चेतना अपनाने के लिए हुलसे-उमगे अपने प्रयास इस क्षेत्र में सर्वथा अभिनव एवं अद्भुत ही होगे, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। चिर-प्राचीन को चिर-नवीन के साथ जिस प्रकार हर क्षेत्र में संयुक्त किया गया है, वहीं समन्वय इस फिल्म निर्माण प्रक्रिया में भी होगा। इसके द्वारा क्रान्तिकारी परिणाम उत्पन्न होने की आशा की जा सकती है।

आश्चर्य की ही बात है कि इस प्रयोजन के लिये पूँजी के नाम पर एक पैसा भी हाथ में न होने पर भी यह विश्वास किया जा रहा है कि निकट भविष्य में यह मात्र कल्पना न रहेगी, वरन् कोई न कोई ऐसा आधार बन जायेगा, जिससे फिल्म निर्माण जैसी महँगी योजना को भी कार्यान्वित किया जा सके। हम सदा से असम्भव समझे जाने वाले कार्य हाथ में लेते रहे हैं और साधन-विहीन स्थिति में भी दुस्साहसपूर्ण कदम उठाते रहे हैं। असफलता का मुख कदाचित ही कभी देखना पड़ा है। युग की पुकार यदि जनमानस को अवांछनीयता की दिशा में घसीट ले जाने के लिये है, तो उसे भी इसलिये अपूर्ण न रहने दिया जायेगा कि अपने हाथ खाली हैं और साधनों का सर्वथा अभाव है। आकांक्षा की प्रबलता यदि सदुद्देश्य की दिशा में चल रही हो, तो उसकी पूर्ति के लिए दैवी साधन जुटते रहे हैं, जुटते रहेंगे।

कुछ फिल्मों के कथानकों की बात इन दिनों मस्तिष्क में चल रही है- जैसे-

(1) भगवान के दस अवतारों की संयुक्त कथा। इस आधार पर आज की स्थिति में ईश्वरीय मार्गदर्शन का पुनः स्मरण कराया जाना और यह बताया जाना कि आज की स्थिति में वे प्रेरणाएँ किस प्रकार हमारा क्या मार्गदर्शन करती है।

(2) सप्तऋषियों द्वारा अपनाई गयी सात अतिमहत्त्वपूर्ण लोक-निर्माण की प्रवृत्तियों का संचालन। आज की स्थिति में उन प्रवृत्तियों को अपनाकर युग की आवश्यकता पूरी करने की प्रेरणा। आज के साधु-ब्राह्मणों के लिए तथा लोकसेवियों के लिये लोकोपयोगी अभियानों के संचालन का सही मार्गदर्शन।

(3) ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा, गणेश आदि के रूप में भगवान का लोकमंगल की अनेक प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण । अनीति को निरस्त करने और नीति -धर्म को प्रोत्साहित करने वाले परोक्ष दैवी सहायताओं का सूत्र-संचालन इसी आधार पर प्रस्तुत अनेक दैवी-चरित्रों का समन्वयकरण।

(4) भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों के निर्माण आरम्भ की वे आदर्शवादी कथाएँ, जिनकी स्मृति में इन तीर्थ स्थानों की आधारशिला रखी गयी। प्राचीनकाल में तीर्थ स्थानों में महामनीषियों द्वारा संचालित लोकशिक्षण का स्वरूप। तीर्थ यात्रियों की पदयात्रा से राष्ट्रीय एकता एवं धर्मचेतना का अभिवर्द्धन।

(5) पुराणकाल के महापुरुषों के आदर्श चरित्रों और उनके द्वारा जनकल्याण के लिए किये गये कार्यों का चित्रण। हरिश्चन्द्र, दधीचि, प्रह्लाद, कर्ण, जनक, चरक, सुश्रुत आदि अगणित महामानवों के चिन्तन एवं कर्तृत्व का ऐसा निर्माण, जो आज की स्थिति में हमें कुछ करने की प्रेरणा दे सके। इन महापुरुषों की अलग-अलग फिल्म न बनाकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को एक ही धारावाहिक में आबद्ध किया जाये, ताकि कार्यक्रमों की भिन्नता रहते हुए भी महामानवों का लक्ष्य एक ही रहने की बात समझ में आये।

(6) रामायण का-रामावतार का इस प्रकार का चित्रण, जिसमें प्रत्येक पात्र को आदर्शवादी परम्पराओं के विविध पक्षों का निर्वाह करते हुए दिखाया जाये। रामायण को भक्ति ध्यान तक सीमित न रखकर उसे जनकल्याण का हर क्षेत्र प्रभावित करने वाले प्रबल प्रयास के रूप में प्रस्तुतीकरण।

(7) कृष्णावतार एवं महाभारत का अमर इतिहास आज बताये जा रहे स्वरूप की तरह तत्कालीन घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाये कि उसमें बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अवांछनीयताओं का उन्मूलन करने के लिये सर्वतोमुखी संघर्ष स्पष्ट हो सके। जो इस समय के लिए ही नहीं, सदा-सर्वदा के लिए मार्गदर्शक कहा जा सके।

(8) सन्तचरित्र, तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, रामकृष्ण, विवेकानन्द आदि। उन्होंने अपने समय की समस्याओं को हल करने में किस प्रकार नेतृत्व किया, इसका अविज्ञात किन्तु वास्तविक चित्रण। एक धारावाहिक में इन सभी सन्तों को वीडियो के रूप में प्रस्तुत किया जाना।

(9) भारत के ऐतिहासिक महापुरुषों और उनके क्रियाकलापों का दिग्दर्शन । चाणक्य, चन्द्रगुप्त, शिवाजी, लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे आदि के प्रेरणाप्रद इतिहास का क्रमबद्ध चित्रण। उनके साथ जुड़ी हुई प्रेरणाओं का उभार।

(10) भारतीय नारियों और बालकों का मानवतावादी परम्पराओं के निर्वाह में अनुपम योगदान। कुन्ती, मदालसा, सावित्री, शकुन्तला, पन्ना धाय आदि की गौरव-गाथाएँ रोहिताश्व, प्रह्लाद, ध्रुव, गोरा-बाइल फतेहसिंह, जोरावर आदि बालकों के महान कृत्यों का हृदयस्पर्शी चित्रण।

परमपूज्य गुरुदेव ने जिन दिनों अपनी इस दस सूत्री रूपरेखा में धारावाहिक का मन्तव्य स्पष्ट किया था, उस समय धारावाहिकों का प्रचलन नहीं था, परन्तु भविष्य दृष्टा गुरुदेव ने उसी समय बता दिया था। मूल कथानक एक समूची सुव्यवस्थित कथा के रूप में होगा। भिन्न-भिन्न कथानक उसी सन्दर्भ में अलग-अलग कड़ियों के रूप में जुड़ते चले जायेंगे। इस प्रकार उसमें बिखरापन प्रतीत नहीं होगा, वरन्, एक ही माला में गुंथे हुए मोतियों की तरह अनेक सन्दर्भों का समावेश हो जाने में उसकी सुन्दरता- विविधता एवं संक्षेप में अनेक विषयों की जानकारी होने का एक नया प्रयोजन पूरा होगा।

युवा और वयस्क जहाँ अपनी जीवन की समस्याओं को समाधान पा सकेंगे, वहीं अबोध बच्चों में शुभ संस्कारों का बीजारोपण होगा। ‘मन्थन’ के रूप में इसी प्रयास का शुभारम्भ किया गया है। यह वस्तुतः उसी योजना का क्रियान्वयन है, जो परमपूज्य गुरुदेव ने 1974 में बनायी थी और इसी वर्ष की नवम्बर अखण्ड-ज्योति के पृष्ठो में प्रकाशित की थी।

धारावाहिक ‘मन्थन’ के माध्यम से परमपूज्य गुरुदेव का वही सपना मूर्त रूप लेने जा रहा है। यूँ इसकी शुरुआत तो काफी समय पहले ही हो गयी थी, पर तकनीकी उलझनों वश इसका प्रसारण न हो सका, परन्तु अब दैवीचेतना की अनुकम्पा से प्रायः सभी उलझनें सुलझ गयी हैं और सम्भवतः आगामी वर्ष 1998 में परिजन अपने दूरदर्शन के प्रसारण में इसे देख सकेंगे। यह धारावाहिक आगामी अनेक धारावाहिकों की वह पहली कड़ी है, जिसमें अपने देश के विभिन्न महान पुरुषों, महिलाओं के प्रेरणाप्रद प्रसंगों को नवनिर्माण अभियान के मार्गदर्शक के रूप में दिखाया जायेगा। दूसरे शब्दों में, यह बुद्धकाल से लेकर भारतीय स्वतंत्रता तक का साँस्कृतिक इतिहास है। जिसमें साँस्कृतिक क्रान्ति के उन सभी तत्वों का समावेश है, जो आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने पहले कभी थे।

इसके निर्माण में अपने ही मिशन के कर्मठ परिजन भाई आगे आये हैं। इस निर्माण कार्य की योजना में मिशन के युवा कार्यकर्ता, केन्द्रीय तंत्र के मार्गदर्शन में समर्पित भाव से जुटे हैं। इस पहले पुष्प के विकसित होते ही ‘देवात्मा हिमालय’ ‘पूज्य गुरुदेव की जीवनगाथा’ जैसे कई और भी धारावाहिकों का निर्माण एवं प्रसारण सम्पन्न होना है। पहले ही धारावाहिक ‘मन्थन’ का प्रसारण होते ही हम देखेंगे कि भारतीय जनता को अपनी गरिमामयी परम्पराओं से किस प्रकार परिचित प्रशिक्षित किया जा सकता है और उनसे लोकमानस का कायाकल्प करने में कितनी महत्वपूर्ण सहायता किन सकती है। आज भले ही यह प्रयास प्रकाश की पहली किरण के रूप में वर्तमान परिस्थितियों के घोर अन्धकार को चीरते हुए शनैः-शनैः आगे बढ़े रहा हो, पर कही न कहीं से-किसी प्रकार पूज्यवर का महान संकल्प मध्याह्नकालीन प्रचण्ड सूर्य के रूप में प्रकाशित होगा, यह सुनिश्चित है।


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