आस्था-चिकित्सा अंधविश्वास नहीं, एक वैज्ञानिक तथ्य

December 1997

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दिव्य-दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति किसी-भौतिक साधन की सहायता लिए बिना धरती के भीतर छिपे पानी, तेल, धातुओं आदि के भण्डार का पता लगा लेते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी दैवी क्षमताओं से शारीरिक रोगों का कारण जानकर निदान कर देते हैं। पश्चिमी देशों में इन्हें आस्था-चिकित्सक या फेथहीलर कहा जाता है। यद्यपि ऐसे चिकित्सकों एवं उनकी चिकित्सा-पद्धति को अभी वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल सकी है, फिर भी उनकी सफलताएँ स्पष्ट हैं और चौंकाने वाली हैं। विश्वास अथवा आस्था को वैज्ञानिक वैज्ञानिक समुदाय कितना भी अवैज्ञानिक करार दे, किन्तु मानवीय जीवन के इस अद्भुत तत्व की प्रक्रिया एवं परिणाम अपने हर पहलू पर वैज्ञानिक शोध को आमंत्रण देने रहते हैं।

विश्वास कितना वैज्ञानिक है अथवा कितना अवैज्ञानिक, इस विवाद का कोई हल भले ही न निकले, परन्तु इतना तो निस्संकोच कहा जा सकता है कि विज्ञान-जगत का मूल विश्वास है कि हर कार्य का कोई न कोई विशेष कारण होता है। तब फिर यह भी मानना पड़ेगा विश्वास-चिकित्सा का भी विश्वास अकारण नहीं है। हालाँकि विज्ञान अलौकिक शक्यों के अस्तित्व को नकारता है, जो एक छोटी-सी फुंसी से लेकर कैंसर, पागलपन जैसे रोगों का उपचार कर दें, लेकिन आस्था-चिकित्सकों या फेथहीलर लोगों ने कई बार इस मान्यता को बड़े ही चमत्कारिक ढंग से झुठलाया है। उन्होंने अनेकों बार बहुत दूर से रोगी की अनभिज्ञता व असहयोग रहने पर भी सफलतापूर्वक रोगोपचार किया है।

भारत का प्राचीन इतिहास तो ऐसे अनेक उद्धरणों एवं उदाहरणों से भरा है। तप-शक्ति एवं महर्षियों के आशीर्वाद से रोग निवारण की अनेकों कथाएँ पुराण-साहित्य में पढ़ी जा सकती हैं। अथर्ववेद तो जैसे दैवी चिकित्सा की महाविद्या का प्रथम वैज्ञानिक महा कोश ही है। वैदिक विवरण के अनुसार दध्यंग अथर्वण इस महाविद्या के जन्मदाता एवं दैवी चिकित्सा को अनेकों विधियों के आदि आविष्कर्ता थे। परवर्तीकाल में महर्षि वेदव्यास ने उनके अनगिनत अनुसंधानों को संकलित कर उन्हीं के नाम पर अथर्ववेद की रचना की। वैदिक एवं पौराणिक साहित्य के अलावा ईसाइयों के न्यू टेस्टामेण्ट में भी इसका एक उदाहरण मिलता है। बारह वर्षों से एक महिला रक्तस्राव से पीड़ित थी। अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति उपचारों में लगा चुकी थी। ईसामसीह को रोगमुक्त करने की चमत्कारिक शक्ति के विषय में सुनकर वह उनके पास पूर्ण विश्वास से गयी। उनके वस्त्रों को स्पर्श करते ही उसे स्वास्थ्यलाभ हो गया।

यह रोगोपचारक शक्ति कहाँ से आती है? सूक्ष्मजगत से अथवा ईश्वर-प्रदत्त है या फिर ‘ब्रिटिश मेडिकल सोसाइटी फॉर द स्टडी ऑफ रेडियेस्थीसिया’ के अनुसार ‘रेडियेस्थीसिया’ है, जिसका अर्थ है- ‘विकिरण के प्रति मानवीय संवेदना और बोध’। इनके अनुसार पानी-तेल-धातुओं आदि के प्राकृतिक स्रोतों से होने वाले विकिरण के प्रति संवेदनशील व्यक्तियों को इनका ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार कुछ लोग शरीर के रोगग्रस्त भाग को ज्ञात करके उसका उपचार कर देते हैं।

कुछ फेथहीलर या आस्था-चिकित्सक निःसंकोच भाव से स्वीकार करते हैं कि वे उस शक्ति के, जिसका स्रोत कोई भी हो, माध्यम मात्र हैं। कुछ अन्यों के अनुसार उन्हें ऐसे मृत चिकित्सा विज्ञानियों का मार्गदर्शन मिलता है, जो सूक्ष्मजगत में रहकर भी लोककल्याण करना चाहते हैं। उनके साथ कुछ अन्य लोग मिलकर रोग-निदान के लिए एकाग्रतापूर्वक ध्यान-प्रार्थना करते हैं और शक्ति-प्रवाह का माध्यम बन जाते हैं। फेथहीलर हैरी एडवर्ड्स बताते हैं कि, किसी मनुष्य द्वारा स्वीकृत कर लिये जाने पर रोगी के शरीर में उचित शक्ति प्रक्षेपित करते हैं। इस तथ्य पर विश्वास कर लिया जाए अथवा ईश्वर द्वारा किसी शक्ति विशेष के माध्यम से की गयी विशेष कृपा मान लिया जाए, सत्य यही होता है कि फेथहीलर विश्व प्राण अथवा सूक्ष्म प्राण से पर्याप्त प्राणशक्ति को आकर्षित कर रोगी के निष्प्राण प्राय हो चुके शरीर में प्रक्षेपित करता है, जिससे वह रोगमुक्त हो नयी चेतना, नया स्वास्थ्य प्राप्त करता है।

सूक्ष्मजगत से सम्पर्क करके रोगों का निदान सम्भव है अथवा नहीं? इस विवाद का हल भले ही अब तक न निकला हो, किन्तु हैरी एडवर्ड्स ने बहुसंख्यकों की अपनी फेथहीलिंग से रोग मुक्त किया। उन्हें अपनी इस शक्ति का बोध चालीस वर्ष की उम्र के पश्चात् हुआ। उनका जन्म 1893 ई. में लन्दन के एक कम्पोजीटर के यहाँ हुआ था। बचपन से ही वे अत्यन्त जागरूक, संवेदनशील एवं परहित परायण व्यक्ति थे। बाद में उन्होंने युवा स्काउट सेना का नेतृत्व किया व लिबरल राजनीति में सम्मिलित हो गये। महायुद्ध छिड़ने पर रायल ससैक्स रेजीमेण्ट में नाम लिखवाया और भारत भेज दिये गये। महायुद्ध छिड़ने पर रायल ससैक्स रेजीमेण्ट में नाम लिखवाया और भारत भेद दिये गये। यहाँ उन्हें बेंगलोर में रहना पड़ा। बेंगलोर में रहते हुए उन्होंने महर्षि अरविन्द एवं महर्षि रमण के बारे में सुना और इन विभूतियों से उनके आश्रम पर जाकर मुलाकात की। इनके विचारों ने उन्हें गहराई तक प्रभावित किया और वे भारतीय आध्यात्मिक विचारों से जुड़ गये। इसके पश्चात् एक योग्य इंजीनियर के रूप में पर्शिया भेजे गये, जहाँ हजारों लोग अकालग्रस्त व निराश्रित थे। डायरेक्टर ऑफ लेबर के रूप में अपने सेवा कार्यों से लोगों के हृदय में उन्होंने ऐसी जगह बनायी कि प्रस्थान के समय हजारों के नेत्र सजल हो उठे।

इंग्लैण्ड लौटने पर इल्फोर्ड में एक आध्यात्मिक गोष्ठी ने उनकी आध्यात्मिक रुचि को अपेक्षाकृत अधिक विकसित और परिपक्व किया। 1934 में बाल्हम के आध्यात्मिक गिरजाघर में उन्हें सूक्ष्मजगत की मार्गदर्शक आत्माओं के विषय में बताया गया, जो उन्हें प्रेरणा, सहयोग दे सकती थीं। उनके सन्देश भी दिखाये गये। अतः पूर्णतया विश्वस्त होकर वे अपनी अतीन्द्रिय क्षमताओं को जाग्रत करने के लिए प्रशिक्षण लेने लगे। इस दौरान उन्हें विलक्षण अनुभव हुए। उन्हें दिव्य दर्शन होने लगे। ऐसे स्वरों में अनैच्छिक संदेश मिलने लगे, जो उनके अपने नहीं थे। अतिशीघ्र आध्यात्मिक सत्यों पर उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया। अब वे अत्यंत सरलता से सूक्ष्मजगत का माध्यम बन जाते। मुख्य रूप से एक रेड इंडियन वाइट फैदर की आत्मा उन्हें निर्देशित करती थी। उन्हीं के निर्देशानुसार एडवर्ड्स ने एक घरेलू संस्था ‘द फेलोशिप ऑफ स्पिरिचुअल सर्विस’ स्थापित करके रोगियों की सेवा प्रारम्भ की। उन्होंने जैक बैबर तथा अर्नाल्ड क्लेयर जैसी विशिष्ट और प्रख्यात सूक्ष्मजगत के माध्यमों के साथ भी कार्य किया।

प्रत्येक मंगलवार को रोगियों को घर पर ही देखने व उनका विवरण लिखकर प्रति सप्ताह पुनः परीक्षण करते। संध्याकाल में ध्यान एकाग्र करके अतीन्द्रिय शक्तियों से उनके उपचार की प्रार्थना करते। उनके कार्य में उत्तरोत्तर प्रगति हुई और बाद के दिनों में तो एक विशेष सन्ध्या निर्धारित हो गयी। इसका नाम उन्होंने रखा, ‘ऐबसेण्ट हीलिंग’ यानि की अनुपस्थित रोगोपचार। अर्थात् इस दिन उन रोगियों के उपचार को कार्यक्रम बना, जो उनसे मीलों दूर हैं और अपने कष्ट के कारण उन तक पहुँच नहीं सकते। इसके लिए उन्हें एक संवेदनशील व्यक्ति समूह का सहयोग भी प्राप्त हुआ, जो उनके साथ में प्रार्थना करता व दैनिक कार्यों में सहयोग करता। ध्यान के दौरान एडवड्स बहुधा सूक्ष्मशरीर से यात्रा करके ऐसे कमरों में पहुँचते, जहाँ रोगी लेटा होता। इस दौरान वे उसका उपचार होता देखते और लौटकर यात्रा का जो विवरण देने, वह जाँचने पर सत्य साबित होता, मानों उस समय वे सशरीर रोगी के घर गये हों।

उनकी रोगोपचारक शक्तियों ने शीघ्र ही स्थानीय प्रेस व आध्यात्मिक समाचार पत्र ‘साइकिक न्यूज’ को आकर्षित किया। ‘साइकिक न्यूज’ के सम्पादक मौरिस बार्बानेल ने हैरी एडवड्स की जीवनी लिखी, जिसमें एक घटना का विशेष उल्लेख किया। वर्ष 1937 में स्मिथ ना का एक रोगी था, जो बाल्हम में रहता था। उसका उपचार दूर से उसकी अनभिज्ञता में किया गया। पेट-दर्द बढ़ती कमजोरी, वजन में कमी तथा चक्कर आने के कारण कार्य करने में वह असमर्थ हो गया था। विशेषज्ञों ने अपनी जाँच-पड़ताल के निष्कर्ष में बताया कि उसका हृदय काफी कमजोर है और उसके दायें फेफड़े में स्पॉट है। रोगी की पत्नी श्रीमती स्मिथ को उनकी गम्भीर स्थिति का दुःखद समाचार देकर अस्पताल में भरती करने अथवा घर पर सावधानीपूर्वक उनकी देख-भाल करने के लिए कहा गया। श्रीमती स्मिथ ने एडवड्स से अपने पति के रोग की चर्चा की। स्मिथ को चिंतामुक्त करने के लिए न तो रोग की कोई जानकारी दी गयी, न ही एडवड्स से की गयी चर्चा के विषय में बताया गया, क्योंकि वे इस सबको पसन्द नहीं करते थे। उनकी नजर में फेथहीलिंग जैसी प्रक्रियाएँ कोरे अन्ध-विश्वास के सिवा और कुछ नहीं थीं।

जिस दिन चर्चा की गयी थी, उसी रात्रि श्रीमती स्मिथ के शरीर में तीव्र ऐंठन हुई। कराह सुनकर पति की निद्रा भंग हो गयी और उन्हें आश्चर्य हुआ, जब मिस्टर स्मिथ उनके लिए गर्म पानी की बोतल भर लाये। वे इससे भी अधिक आश्चर्यचकित हुईं, जब सुबह शीघ्र उठकर वे उनके लिए चाय बना लाये। स्मिथ के चेहरे का रंग पूर्णतया बदल गया था और थकान भी नहीं थी। सम्पूर्ण परिवार समझ गया था कि उनके स्वास्थ्य में असाधारण सुधार हो चुका है। उस दिन से उनके वजन में काफी तेजी से बढ़ोत्तरी होने लगी और पाँच सप्ताहों में यह वजन कई पाउण्ड बढ़ गया। इसके पश्चात् विशेषज्ञ को दिखाया गया, तो वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि स्मिथ ने इस दौरान अत्यन्त सफल चिकित्सा पूर्ण करवा ली।

‘साइकिक न्यूज’ में वर्णित हैरी एडवड्स के एक और रोगोपचार के विषय में एक डाक्टर का कथन था "चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त अविश्वसनीय।” यह उपचार भी दूर से ही सम्पन्न किया गया था। हुआ यों कि एक व्यक्ति साइकोसिस बार्बे नामक त्वचा रोग से पीड़ित था। किन्हीं कारणवश उसे उचित उपचार करवाने में विलम्ब हो गया। इसी विलम्ब के कारण विशेषज्ञों ने उपचार की सभी सम्भावनाओं से भी इनकार कर दिया। एक चिकित्सक ने तो यहाँ तक कह दिया कि नौ माह तक कोई चिकित्सा न करवाने के कारण नौ वर्षों में भी स्वस्थ हो जाए, तो सौभाग्य समझना। दो सालों तक लन्दन स्थित अस्पतालों के अनेकों चक्कर काटने के बाद भी उसे कोई फायदा नहीं हुआ। उसके घाव भरे नहीं, बल्कि बढ़ गये। तब एडवड्स से उसकी चिकित्सा के लिए अनुरोध किया गया। एडवड्स की दैवी चिकित्सा के परिणामस्वरूप स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार आना शुरू हुआ। तीन माह में ही सारे घाव भर गये। चिकित्सकों को जब उसे दिखाया गया, तो उन्होंने इसे ‘असम्भव किन्तु सत्य’ बताया।

इसी प्रकार दिसम्बर, 1952 में एक पिता ने अपने बेटे का लाइलाज रोग माइलाइड ल्यूकेमिया के विषय में एडवड्स को बताया। एडवड्स के उपचार से स्थिति में चमत्कारी बदलाव आया और तीन महीनों में ही बालक पुनः स्वस्थ हो विद्यालय जाने लगा। अपनी पुस्तक ‘द साइन्स ऑफ स्पिरिट हीलिंग’ में हैरी एडवड्स ने बताया है कि चिकित्सक जब अपना दाया हाथ रोगग्रस्त भाग पर रखता है, तो उसे बाँह से उँगलियों की ओर तरंगों के प्रवाह की अनुभूति होती है। कई बार प्रवाह इतना शक्तिशाली होता है कि हाथों में अत्यधिक कम्पन होना स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जिसके परिणामस्वरूप यदा-कदा बाँहें भी दुखने लगती हैं।

ऐसे अभूतपूर्व उपचारों को स्थूल नेत्रों से देखने के पश्चात् भी चिकित्सा-विज्ञानी अभी भी इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनका दृष्टिकोण यही रहता है कि या तो रोग की पहचानने में चूक हुई अथवा फिर उपचार अनायास हो गया। एडवड्स के उपचार उनके जीवनकाल में यद्यपि विवाद का विषय रहे, फिर भी उनके पास सफलताओं का ताँता लगा रहा। इसी वजह से उनका कार्य भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इनमें से ज्यादातर रोगियों का उन्होंने दूर रहकर, निश्चित समय में उपचार किया। सन् 1944 में उनके बाल्हम स्थित मकान को छह राकेटों से ध्वस्त कर दिया गया। इसमें रोगियों के उपचार व निश्चित किये गये समय के अभिलेखों के नष्ट हो जाने के उपरान्त भी उनका उपचार निरन्तर चलता रहा।

उनकी बढ़ती प्रसिद्धि से रोगियों की संख्या में भी वृद्धि हुई और उन्होंने इवैल, सर्रे स्थित अपने नये मकान में विधिवत् एक रोगोपचार केन्द्र की स्थापना कर ली। वे कभी रोगियों से अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे, किन्तु लोग स्वतः ही इतना दान देते थे कि वे शियर सर्रे में बने और अधिक बड़े मकान बरोजली में चले गये। वहाँ उन्हें सहयोगियों व कार्यालयी सामान के लिए और अधिक स्थान उपलब्ध हो गया।

बरोजली में एक ही वर्ष में 1,26,000 पत्र आये। उसी वर्ष 5,000 रोगी उनके घर आये और 4,600 को एडवड्स ने व्यक्तिगत रूप से स्वास्थ्य लाभ दिलाया। 70 प्रतिशत रोगियों ने अपने स्वास्थ्य में सुधार बताया, जबकि 30 प्रतिशत पूर्णतया स्वस्थ हो गये। उस एक वर्ष में 20,000 व्यक्ति उनके विशेष उपचार सत्रों में उपस्थित हुए, क्योंकि बुद्धोपरान्त उन्होंने विशाल कक्षों में सामूहिक रूप से समस्त देश में उपचार सत्र चलाये। इन सत्रों में उन्होंने ऐसे हजारों लोगों को स्वस्थ किया, जो लम्बे समय से अर्थ्राइटस, मस्कुलर डीसट्रोफी, डिसेमिनेटेड- स्क्लैरोसिस, कर्वेचर ऑफ द स्पाइन, बहरापन, नेत्रहीन तथा अनेकों अन्य कई तरह के रोगों से ग्रस्त थे। ऐसे कई सत्रों में एडवड्स के उपचारों पर संशय करने वाले प्रख्यात चिकित्सकों को भी आमंत्रित किया जाता। उपचार के दौरान उन्हें मंच पर अपनी मुड़ी टाँग अथवा खिसकी हड्डी पर हाथ रखने दिया जाता। सभी ने रोगग्रस्त अंग का विशेष शक्ति द्वारा स्वस्थ होना स्वीकारा।

स्वर्गीय बिवर्ले निकल्स ने अपनी पुस्तक ‘पावर दैड बी’ में स्वयं अपने जीवनकाल के अपने ऊपर हुए अनुभव का जिक्र किया है। एक मोटर दुर्घटना में उनका दाया हाथ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। इसमें उनके हाथ की हड्डियाँ बुरी तरह टूट-फूट गयी थीं। दो सालों तक उन्हें भयंकर पीड़ा रही और वे पियानो बजाने में असमर्थ हो गये। हार्ले स्ट्रीट के विशेषज्ञों के अथक प्रयासों की असफलता के पश्चात् वे प्रख्यात फेथहीलर डॉक्टर ऐश के पास गये। डॉ. ऐश उनकी बाँहों को अपने सामने रखकर बैठ गये। निकल्स ने स्वयं की मानसिक एकाग्रता के द्वारा उपचार में सहयोग का कोई प्रयास नहीं किया, ताकि किसी प्रकार का सम्मोहन सम्भव न हो। पन्द्रह सेकेण्ड के बाद निकल्स ने जो अनुभव किया, उसे उन्होंने इन शब्दों में व्यक्ति किया, “एक अदृश्य शक्ति मेरे शरीर में, बिना किसी त्रुटि के एक विशेष क्रिया करवा रही थी।.... सम्भवतः इसकी तस्वीर भी उतारी जा सकती थी, खींच कर छोड़ी गयी इलास्टिक की रस्सी के समान त्वचा कम्पित हो रही थी, उँगलियों में भी मानो सुपरसोनिक कम्पन हो रहा था।” छह मिनटों के पश्चात् निकल्स ने महसूस किया कि वह बुरी तरह थक चुका है और उसकी पूरी बाँह में असहनीय पीड़ा हो रही है। अतः डाक्टर ऐश से उन्होंने रुकने का आग्रह किया और उनके रुकते ही अन्तिम झटके के साथ बाँह विश्रामावस्था में आ गयी, मानो किसी ने बिजली का स्विच बन्द कर दिया हो। यह क्रिया देख रहे एक मित्र ने कहा- “ऐसा लगा जैसे दोषों को बाहर खदेड़ा जा रहा हो।”

हैरी एडवर्ड, डाक्टर ऐश और ऐसे ही न जाने कितने फेथहीलर और होंगे, जिनके विषय में चिकित्सा विज्ञानी कहते हैं कि वे लोगों के मस्तिष्क भावनाओं व विचारों पर अधिकार कर लेते हैं, जबकि उन्होंने रोगी की अनभिज्ञता में भी उपचार किया। अगर यह भी मान लिया जाय कि वे रोगी की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत मात्र कर देते हैं, तो यह भी ईश्वर की देन ही कही जायेगी, जो सर्वसाधारण को सुलभ नहीं है और विज्ञान के पास जिसका कोई उत्तर नहीं है।

जो दैवी चिकित्सा के सिद्धान्त से परिचित हैं, वे इसका वैज्ञानिक विवेचन कुछ इस ढंग से करते हैं कि रोगमुक्त जीवन का कारण जीवनी-शक्ति या प्राण क्षमता की प्रचुरता है। जब शरीर में अथवा किसी अंग विशेष में किसी कारण विशेष से इस प्राण क्षमता या जीवनी-शक्ति का ह्रास होने लगता है, तो व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता काम होने लगती है और वह रोगी हो जाता है। यदा-कदा यह स्थिति दुर्घटना की वजह से भी उत्पन्न हो जाती है। सामान्य चिकित्सक इस प्राण शक्ति के क्षरण को औषधियों द्वारा प्राणशक्ति के अभिवर्धन के लिए प्रयास करते हैं, परन्तु प्रक्रिया काफी धीमी एवं क्षीण होती है जबकि योगी-तपस्वी एवं अध्यात्मवेत्ता वातावरण में परिव्याप्त विश्व प्राण के महासागर में अपनी यौगिक एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं, साधनाओं द्वारा प्राणशक्ति का प्रचुर संग्रह करते हैं। इसी के एक अंश का संप्रेषण वे रोगी व्यक्ति के बेजान हो रहे शरीर का किसी अंग विशेष में करते हैं। प्राणशक्ति की इस प्रचण्ड बौछार से विरोधी शक्तियाँ, रोग पैदा करने वाले जीवाणु-विषाणु निस्तेज हो जाते हैं और व्यक्ति को सर्वथा नयी चेतना का अनुदान मिलता है। मुरझाया जीवन कुसुम फिर से खिलने, खिलखिलाने लगता है।

रोगमुक्त करने की यह विधा स्पष्टतया मूल रूप में भारतीय विधा है। पश्चिम में हैरी एडवड्स आदि फेथहीलर ने इसे थोड़ा बदले रूप में अपनाकर सफलता प्राप्त की है। ये सूक्ष्म शरीरधारी कुछ विशेष आत्माओं के सम्पर्क एवं सहयोग से विश्व प्राण के लहलहाते महासागर में से थोड़ी बहुत प्राण-शक्ति पाकर उसे वितरित करने का क्रम अपनाते हैं, परन्तु दोनों ही सिद्धांतत समान हैं। योग साधनाओं एवं आध्यात्मिक प्रक्रियाओं से प्रायः अपरिचित रहने के कारण उनके द्वारा यह सम्भव नहीं बन पड़ता है कि वे सीधे ही बिना किसी सूक्ष्म शरीरधारी की सहायता से अपने में भरी प्राण क्षमता का संग्रह करें, परन्तु इन सभी का यह मानना अवश्य रहा है कि बिना किसी माध्यम विशेष के सहयोग के भी सामान्य व्यक्ति स्वयं में फेथ पैदा करके यह गहरी भावना कर सकता है कि ईश्वर की महाशक्ति जिसे वैश्वप्राण भी कह सकते हैं, हमारे रोगी शरीर को पूर्णतया रोग मुक्त कर रही है और हम स्वस्थ-सबल हो रहे हैं। यह भावना जितनी गहरी होती जाती है ख् प्रभाव भी उतने ही स्पष्ट होने लगते हैं। धीरे-धीरे आधुनिक मनोविज्ञानी भी इस सत्य को स्वीकार करने लगे हैं, मनोभावनाएँ ही अपने अनुरूप मनुष्य को स्वस्थ या रोगी बनाती हैं। सब कुछ अपनी आस्था या फेथ पर निर्भर है। आने वाला समय ‘फेथ हीलिंग’ या आस्था-चिकित्सा को चिकित्सा जगत में विशेष स्थान दिला दे, तो कोई असम्भव घटना नहीं मानी जानी चाहिए।


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