काया की तिजोरी में बन्द एक अनमोल खजाना

December 1997

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कुण्डलिनी जागरण की तुलना समुद्र-मंथन से की गयी है। पुराणों में कथा आती है कि प्रजापति के संकेत पर एक बार समुद्र मथा गया। देव और दानव इसका मन्थन करने में जुट गये। असुर उसे अपनी ओर खींचते थे। यह खींचतान दूध में से मक्खन निकालने वाली बिलोने की-मन्थन की क्रिया जैसी चित्रित की गयी है। इसी उपाख्यान में यह भी वर्णन है कि भगवान ने कछुआ का रूप बनाकर आधार स्थापित किया। उनकी पीठ पर सुमेरु पर्वत ‘रई’ के स्थान पर अवस्थित हुआ। शेषनाग के साढ़े तीन फेर उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मन्थन का कार्य सम्पन्न हुआ। फलस्वरूप अमृत, लक्ष्मी सहित चौदह रत्न प्रकट हुये।

वस्तुतः यह सारा चित्रण अलंकारिक रूप से मानव शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के प्रयोग-प्रयोजन का है। हमारा मूत्र संस्थान खारे जल से भरा समुद्र है। उसे अगणित रत्नों का भाण्डागार कह सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों की सुविस्तृत रत्न-राशि इसी के मूल केन्द्र में छिपी हुई है। असुरत्व इन शक्तियों को अपनी ओर खींचता अर्थात् कामुकता की ओर घसीटता है, तो देवत्व इसे रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने के लिए तत्पर रहता है। यहाँ कच्छप और सुमेरु मूलाधार चक्र में अवस्थित वह शक्ति- बीज है, जो दूसरे कणों की तरह गोल न होकर चपटा है और जिसकी पीठ-नाभि ऊपर की तरफ गोल न होकर चपटी है। इसके चारों ओर महासर्पिणी कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे लपेट कर पड़ी हुई है। इसे जगाने का कार्य, मन्थन का प्रकरण उद्दाम वासना के उभार और अमन के रूप में होता है। देवता और असुर दोनों ही मनोभाव अपना-अपना जोर आजमाते हैं और मन्थन आरम्भ हो जाता है।

कुण्डलिनी कहते हैं गोलाई की आकृति इस समूचे विश्व-ब्रह्माण्ड की है। छोटे-से-छोटा परमाणु भी गोल है। कोई चाहे तो ब्रह्माण्ड-सत्ता अथवा जीव-सत्ता को कुण्डलिनी कह सकता है। ग्रह-नक्षत्र गोल है। पदार्थों के परमाणु तथा प्राणियों के जीवाणु भी गोल हैं। इस गोलाई को कुण्डलिनी समझा जा सकता है यह मोटी व्याख्या हुई। अब इससे अधिक आगे चलना होगा। ग्रह-नक्षत्र गतिशील हैं। वे एक नियत कक्ष में परिभ्रमण करते हैं। आगे बढ़ते और गोल गति से घूमते हुए बार-बार अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते रहते हैं। यह परिभ्रमण गोलाकार होने से कुण्डलिनी है। जीव जन्मता, बढ़ता, मृत्यु को प्राप्त होता और फिर उसी क्रम की पुनरावृत्ति करता है- यह कुण्डलिनी चक्र हुआ।

कुण्डली मारकर सर्प बैठता है, इसलिए उसी की उपमा प्रायः काम में लायी जाती है। पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी हुई है। आकाश तत्व अनन्त महासर्प है। इस पौराणिक मान्यता में विश्व-ब्रह्माण्ड की तथा पृथ्वी की स्थिति का निरूपण है। पाताल को शेषलोक कहते हैं। ऊपर के ब्रह्मलोक पर भी शेष सर्प का ही आधिपत्य है। विष्णु भगवान सर्प पर सोये हुए हैं। शिवलोक में भी सर्प साम्राज्य है। वे भगवान शंकर के अंग-अंग में लिपटे हुए हैं। इस प्रकार अध-लोक और ऊर्ध्वलोक में पृथ्वी के ऊपर और नीचे सर्पसत्ता का ही आधिपत्य है। इस विवेचन से कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप की आरंभिक जानकारी मिलती है।

शास्त्रों में उल्लेख है कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड शरीर में है- ‘यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे।’ मस्तिष्क ब्रह्मलोक है और मूलाधार भूलोक। दोनों पर सर्पशक्ति का आधिपत्य है। मस्तिष्क में सहस्राचक्र सहस्रफन वाला-विष्णु शैया के लिए प्रयुक्त होने वाला महासर्प है। सर्पिणी कुण्डलिनी जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित है। प्राणी के शरीर की उत्पत्ति यहीं से होती है। नारी जननेन्द्रिय की आकृति कुण्डाकार होती है’ नर-नारी दोनों के ही जननेन्द्रिय मूल में एक सूक्ष्म गट्ठर है। उसका कन्द या कुण्ड नाम से अध्यात्म शास्त्रों में विस्तृत वर्णन किया गया है। गोरक्ष पद्धति में ‘कन्द’ के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है- ‘कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्ति शुभमोक्ष प्रदायिनी।’ अर्थात् मंगलमय मोक्ष-प्रदायिनी कुण्डलिनी शक्ति ‘कन्द’ के ऊर्ध्व भाग में अवस्थित है।

इसी तरह शिव संहिता में उल्लेख है-

गुदाद्द्वयंगुलतश्चोर्ध्वं मेढ्रैकांगुलतस्त्वधः। एवं चास्ति समं कन्दं समता चतुरंगलम्॥

अर्थात् गुदा से दो अंगुल ऊपर और लिंगमूल से एक अंगुल नीचे चार अंगुल विस्तार कन्द का प्रमाण है। इसी में आगे कहा गया है-

पश्चिमाभिमुखी योनिगुदमेढ़ान्तरालगा। तत्र कन्दं समाख्यातं तत्रास्ति कुण्डली सदा॥

अर्थात् गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो योनि है, वह पश्चिमभिमुखी है अर्थात् पीछे को मुख है, उसी स्थान में ‘कन्द’ है और उसी स्थान में सर्वदा कुण्डलिनी स्थित है।

इसी तरह कुण्डलिनी का निवास ‘कन्द’ में माना गया है और उसे सुप्त सर्पिणी की संज्ञा दी गयी है। इसकी तुलना विद्युत शक्ति, ऊर्जा एवं आभा से की गयी है। तडिल्लता समरुचिर्विचुत्र लेखेब-भस्वरा सूत्र में उसे बिली की लता रेखा जैसी ज्योतिर्मय बताया गया है। उसी प्रकार अन्यत्र उसका उल्लेख “तडिल्लेखा तन्वी तपनशर्शि वैश्वनरमयी” के रूप में किया गया है। यही प्रचण्ड अग्निशिखा सामान्यतया प्रजनन प्रयोजन पूरा करने का सरंजाम जुटाती है, साथ ही प्राणी के शरीर की स्थिरता एवं प्रगति के लिए जो कुछ आवश्यक है, उसे शक्ति के रूप में उत्पन्न करती है। शक्ति का ही विकसित रूप पदार्थ है। शरीर के अवयव यों तो रासायनिक पदार्थों से बने हैं, पर मूलतः वे शक्ति रूप हैं। शक्ति ही सघन होकर रासायनिक तथा दूसरे पदार्थों का रूप धारण करती है और उन्हीं के संयोग से शरीर बनता है। संक्षेप में, मनुष्य शरीर रचना का मूलतत्त्व-मूल आधार एक विद्युत शक्ति के रूप में उद्भूत होता है। भ्रूण कलल का निर्माण एवं शरीरगत सभी हलचलों, क्षमताओं और विशेषताओं का श्रेय जिन गुणसूत्रों तथा उन पर स्थित हजारों जीन-जोड़ों को दिया जाता है, उनमें जिस वंशानुक्रम सम्पदा को खोजा जाता है, वह वस्तुतः एक सचेतन विद्युत की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। यह प्राणविद्युत किसी शरीर का उत्पादन करने से लेकर उसका आजीवन बना रहने वाला ढाँचा खड़ा करती है। इस ढाँचे में शरीर और मन की ही संरचना सम्मिलित है। संक्षेप में प्राणधारियों के काय-कलेवर का अस्तित्व, स्वरूप एवं भविष्य-निर्धारण करने वाली प्राणविद्युत का नाम कुण्डलिनी है। यह यों तो समस्त शरीर में संव्याप्त है, किन्तु उसका केन्द्र ढूँढ़ना हो, तो वह जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित एक सूक्ष्म संस्थान-मूलाधार चक्र से उत्पन्न होती पायी जायेगी।

कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मस्तिष्क मध्य स्थित ब्रह्मरंध्र में है। यह चेतनामूलक है। चेतना यों समस्त शरीर में संव्याप्त है, पर उसका संचार-केन्द्र मस्तिष्क ही है। प्राणविद्युत का ज्ञानपरक सिरा मस्तिष्क में और शक्तिपरक सिरा मूलाधार में है। दोनों प्रायः पृथक् ही रहते हैं और अपने-अपने सीमित प्रयोजनों को ही पूरा कर पाते हैं। पृथक्-पृथक् उनकी शक्ति इतनी ही है कि अपने स्थानीय उत्तरदायित्व को वहन कर सकें। इससे सामान्य जीवन-धारण भर किये रहना और दैनिक क्रियाकलापों का चलते रहना भर सम्भव हो पाता है। बिजली के दो तार अलग-अलग रहें, तो उनसे कोई विशेष प्रयोजन पूरा नहीं होता, पर जब वे मिल जाते हैं, तो उस संयोग से प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होता है। कुण्डलिनी जागरण की साधना में प्राणविद्युत के दोनों सिरों को आपस में मिला देना होता है। इस मिलन का चमत्कार वैसा ही होता है, जिस प्रकार नर-नारी के मिलन से एक नये परिवार का आरम्भ होता है। कुण्डलिनी जागरण में मूर्च्छना की समाप्ति और चेतना की अभिवृद्धि ही नहीं, दो शक्तिध्रुवों की मिलन प्रक्रिया भी सम्मिलित है।

जिस तरह पृथ्वी के दो ध्रुव हैं- उत्तरी और दक्षिणी, उसी तरह मानवी काया में भी दो ध्रुव हैं। शास्त्रों में उत्तरी ध्रुव की तुलना मानवी मस्तिष्क मध्य से की गयी है और दक्षिणी ध्रुव की जननेन्द्रिय मूल से। मस्तिष्क मध्य को ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कहते हैं और जननेन्द्रिय मूल को मूलाधार। कुण्डलिनी वह शक्ति है, जिसका मूलाधार और सहस्रार के बीच अधिक शक्तिशाली प्रवाह चल पड़े, तो जीव और ब्रह्म के बीच एकता से जो महान सम्भावनायें बन सकती हैं, वे दीखने लगें, किन्तु सामान्यतया यह प्रवाह बहुत ही न्यून रहता है। दोनों सिरे अपने-अपने सीमित स्थानीय कार्यों में ही लगे रहते हैं। उनके बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया प्रायः नहीं के बराबर ही होती है।

मूलाधार की क्षमता प्रजनन के लिए उत्साह एवं सामर्थ्य जुटाने में लगी रहती है और उसी प्रवाह में पूर्ति कर पाती है। सहस्रार की सामर्थ्य भी उपार्जन, उपभोग एवं व्यवहार-व्यवस्था में ही अपनी शक्ति को समाप्त कर लेती है। बहुत बार तो दोनों ही केन्द्र अपने जिम्मे आये हुए काम को ही निपटाने में थकान अनुभव करने लगते हैं। सामान्य स्थिति यही है। इस स्थिति को बदलकर इनके केन्द्रों में प्रचुर मात्रा में उच्चस्तरीय सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिए जो विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। यदि साधना- उपासना द्वारा इन केन्द्रों में छिपी बीजशक्ति को उभारना और उच्चस्तरीय बनाना सम्भव हो सके, तो सामान्य-सा दिखने वाला मनुष्य असामान्य बन सकता है।

कुण्डलिनी का निवास मूलाधार चक्र में माना जाता है। उसे प्राण-ऊर्जा जीवनीशक्ति, सृजन प्रेरणा, जिजीविषा, उमंग आदि के रूप में समझा जा सकता है। उसका अनवरत प्रयास काया के समस्त भौतिक प्रयोजनों में आवश्यक समर्थता एवं प्रेरणा उत्पन्न करने में लगा रहता है। वस्तुतः कुण्डलिनी शक्ति अतीव व्यापक है। उसकी बिजली कभी-कभी आकाश में चमकती है, तो चकाचौंध उत्पन्न कर देती है। काम कौतुक मनुष्य को बेचैन और विक्षिप्त बना देता है। इस महाशक्ति का क्षरण रोका और उत्पादन बढ़ाया जा सके एवं जीवन-क्षेत्र के महत्वपूर्ण प्रयोजनों में उसे लगाया जा सके तो उसका परिणाम ऐसा ही होगा, जैसा कि छोटे-से जनरेटर की तनिक-सी क्षमता को विकसित करके विशाल क्षेत्र में बिजली दे सकने योग्य बना देना। जीवनीशक्ति के एक भाग का उपयोग संतानोत्पादन है। परन्तु उससे असंख्य गुने आनन्ददायक और महत्वपूर्ण कार्य जीवन-क्षेत्र में और भी करने के लिए पड़े होते हैं। उन्हें पूरा करने के लिए अभीष्ट मात्रा में शक्ति का उत्पादन कुण्डलिनी जागरण से सम्भव हो सकता है।

यह काया के दक्षिण ध्रुव की बात हुई कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मस्तिष्क मध्य सहस्रार में है। यह काया का उत्तरी ध्रुव है। इससे यह जीव-चेतना का, ज्ञान धारण का केन्द्र है। इसे शिक्षण और अनुभव के सहारे आमतौर से विकसित कराया जाता है और वह जितना विकसित हो जाता है, उतनी ही समझदारी बढ़ती है। उसी अनुपात से मनुष्य अधिक आजीविका एवं प्रतिष्ठा प्राप्त कर पाता है। इस केन्द्र की रहस्यमयी परतें कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास से उभारी और सशक्त बनायी जा सकती हैं। इस उपार्जन को दिव्यज्ञान या दिव्यदृष्टि कहते हैं! दूरदर्शन, दूरश्रवण जैसी अतीन्द्रिय क्षमताएँ एवं अतीन्द्रिय ज्ञान के कौतूहलपूर्ण चमत्कारों की चर्चा प्रायः होती रहती है। विशिष्ट बुद्धिमानों की अद्भुत मस्तिष्कीय प्रतिभा के आश्चर्य-चकित करने वाले विवरण भी सुनने को मिलते रहते हैं। यह स्कूली शिक्षा या अनुभव-अभ्यास का प्रतिफल नहीं है। इसके पीछे किसी रहस्यमय चेतना-परत का प्रस्फुरण ही काम करता है। दूरदर्शिता, सूझ-बूझ के सहारे लोग ऐसी योजनाएँ बनाते हैं, जिनके सफल होने में कदाचित ही व्यवधान पड़ते हैं, अन्यथा सोचे और निर्धारित किये गये कार्य पूरे होकर ही रहते हैं। इसे भी मानसिक विशिष्टता ही कह सकते हैं, जो सर्वसाधारण में नहीं होती। ऐसी उपलब्धियों में भी उन्हीं गहरी परतों का उभार काम करता है, जिन्हें सामान्य प्रयत्नों से नहीं, वरन् कुण्डलिनी-जागरण जैसे आध्यात्मिक प्रयासों से ही किया जाता है। जिन्हें अनायास ही ऐसी कुछ अतिरिक्त मानसिक क्षमता मिली हो, तो समझना चाहिये कि यह उनकी पूर्व संचित कमाई का प्रतिफल है।

चेतनात्मक उत्कर्ष की उच्चस्तरीय सफलता आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, तत्त्वज्ञान और सद्ज्ञान आदि चार रूपों में देखी जाती है। इनमें से किसी का भी जिसे कोई अंश प्राप्त होता है, तो उसकी ज्ञान-प्रतिभा असाधारण रूप से ऊपर उठने लगती है। तत्त्वदर्शी, महामनीषी, ब्रह्मज्ञानी आत्माएँ अपनी दिव्य क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजनों में उपयोग करना जानती हैं। फलतः वे महात्मा, देवात्मा, ब्रह्मात्मा जैसी भूमिकाएँ सामान्य शरीर धारण किये रहने पर भी निबाहते रहते हैं। उन्हें जड़-जगत की आन्तरिक परिस्थितियों की जानकारी रहती है। उसमें हेरफेर करने की क्षमता भी उनमें पायी जाती है। इसलिये उन्हें सिद्धपुरुष भी कहा जाता है। कुण्डलिनी महाशक्ति का प्रचुर भण्डार परमात्मा ने अपने वरिष्ठ राजकुमार, प्रत्येक मानव को जन्मजात रूप से प्रदान किया है। वह इसी काया की तिजोरी में बन्द है। आवश्यकता मात्र इतनी है कि समुद्र-मन्थन की भाँति हम भी अपनी अन्तः चेतना का मन्थन साधनात्मक उपाय-उपचारों के माध्यम से करके वह रत्न-राशि अर्जित करें, जिन्हें ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। मूर्च्छा को जाग्रति में बदलना और नर से नारायण रूप में विकसित होना, यही कुण्डलिनी जागरण का मूल प्रयोजन है।


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