बना लोकोत्तर प्रेम का आदर्श लोक

December 1997

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उस दिन साकेत नगर में बसन्त पंचमी के उत्सव का आयोजन था। इस अवसर पर तैराकी प्रतियोगिता भी आयोजित की गयी थी। सरयू घाटों पर दर्शकों का भारी जमघट था। प्रतियोगिता प्रारम्भ हो चुकी थी। निर्णायक और दर्शक दम साधे तैराकों को देख रहे थे।

देखते ही देखते दो तैराक सबसे पहले निश्चित स्थान पर तैरते- बढ़ते दिखे। ‘वे आ गये- वे आ गये’ का भारी शोर बढ़ता गया। बात की बात में अन्तिम झटके में एक आगे और दूसरा तैराक एक कदम पीछे निश्चित स्थान पर पहुँच गये। निर्णायक ने उन्हें संभालते हुए निर्णय दे दिया। पहला स्थान अश्वघोष को मिला। दूसरे स्थान पर नगर के सबसे धनवान् और विख्यात पुरुष की अति सुन्दर कन्या कपिला थी। यवन कुल की कन्या कपिला की सुन्दरता नगर में चर्चा का विषय बनी हुई थी। अश्वघोष पुरोहित कुल का था। वह साकेत महाविद्यालय का होनहार विद्यार्थी और कुशाग्र कवि माना जाता था। इस तैराकी प्रतियोगिता के बाद दोनों का मेल-मिलाप धीरे-धीरे बहुत बढ़ गया।

कपिला साकेत की यवन नाट्यशाला की नायिका के रूप में प्रसिद्ध होती चली जा रही थी। इधर अश्वघोष विद्वानों की गिनती में आ चुका था। राज्य भर में लोग उसकी कविताओं को झूम-झूम कर गाते थे। अश्वघोष के कई नाटक भी खेले गये। कपिला उप नाटकों में नायिका के रूप में अभिनय कर चुकी थी। इस तरह कपिला और अश्वघोष का मेल-मिलाप बढ़ता गया। कपिला विदुषी थी और अश्वघोष विचारक एवं कवि। दोनों में पारस्परिक वैचारिक साम्य था। यह वैचारिक साम्य भावनात्मक एकात्म में कब बदला पता ही न चला।

अश्वघोष के पुरोहित पिता कपिला और अपने पुत्र के प्रेम को जानकर चौंक गये।

अश्वघोष की माता को अपने पति का यह व्यवहार पसन्द नहीं आया। वह यवन कन्या कपिला के ज्ञान व गुणों के कारण उससे अतिशय स्नेह करने लगी थी।

युवक अश्वघोष कपिला से विवाह करना चाहता था। उसकी माँ यह सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई। कपिला के माता-पिता को कोई एतराज न था। अश्वघोष उनके निवास स्थान पर कपिला से मिलने जाता था। अपनी कन्या की यही इच्छा जानकर उन्हें प्रसन्नता थी, लेकिन अश्वघोष के पिता एक यवन कन्या को पुत्र वधू बनाने के पक्ष में नहीं थे। इसके उपरान्त भी उसकी माँ अपने उत्साह के कारण पति से नाराज हो रही थी। अश्वघोष इस कारण बड़ा चिन्तित रहने लगा। बार-बार पूछने पर उसने कपिला को अपने पिता को जिद की बात बता दी। सारी बात सुनकर वह सन्न रह गयी। उसके सामने अब कोई रास्ता न था, क्योंकि वह सोच रही थी कि अश्वघोष के बिना उसका जीवन असम्भव है।

कई दिन बीत गये और इन दिनों में वे दोनों आपस में मिल भी न सके। दोनों निराश होकर कुछ सोच नहीं पा रहे थे। कपिला की माँ ने बेटी की हालत देखकर उसे नानी के पास भेजने की बात चलायी। वह सोचती थी कि वहाँ जाकर उसका मन बदल जायेगा। कपिला के पति इस समय परदेश गये थे। कपिला मौन बनी रही। दिन गुजरते गये। गुजरते दिनों के साथ उसका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया।

अश्वघोष कई दिन पहले कपिला से मिला था। इधर वह रोगी की तरह निराहार पड़ गया था। उसकी माँ बड़ी दुःखी हो रही थी। वह बेटे के दुःख से परिचित थी। उसने अपने हठी पति को मनाने की बहुत कोशिश की, परन्तु उस पर कोई असर न पड़ा। इधर अश्वघोष एवं कपिला की हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही थी। दोनों की ही माँ चिन्तित, परेशान थीं।

आखिरकार ये दोनों अपने- अपने बच्चों की परेशानी लेकर महर्षि ज्योतिर्धर के पास गयीं। ज्येतिर्धर वैदिक धर्म एवं बौद्धधर्म के पारंगत विद्वान ही नहीं, लोकोत्तर सिद्ध भी थे। सभी समुदायों-सम्प्रदायों में उनका भारी मान-सम्मान था। उनकी दैवी शक्ति एवं अलौकिक सामर्थ्य से सभी परिचित थे। दोनों माताओं की बात सुनकर उनकी दृष्टि शून्य में टिक गयी। कुछ पल शून्य की ओर ताकते हुए वे हल्के से मुसकराये, फिर उनको सम्बोधित करते हुए बोले, कल आप दोनों अपने बच्चे को लेकर आना। लेकिन महाप्रभु। ....वे दोनों ही कुछ कहते-कहते रुक गयीं। उनके मन की बात भाँपते हुए वे बोले- चिन्ता न करो, कल वे दोनों इतने स्वस्थ हो जायेंगे कि अपने पाँवों पर चलकर यहाँ आ सकें।

अगले दिन कपिला एवं अश्वघोष अपनी माताओं के साथ उनके सामने थे। अपनी भेदक दृष्टि से देखते हुए महर्षि ज्योतिर्धर उनसे कहने लगे-क्या तुम दोनों सचमुच एक-दूसरे से प्रेम करते हो?

निःसन्देह! दोनों ने लगभग एक साथ कहा।

अपने मन में झाँको अश्वघोष और कपिला तुम भी। तुम दोनों ही पारदर्शी विद्वान हो, फिर क्या यह नहीं जानते कि प्रेम दैवी तत्व है, पार्थिव नहीं। यह लोकोत्तर एवं अतीन्द्रिय होता है, लौकिक एवं एन्द्रिक नहीं। क्या तुम दोनों इतना भी नहीं समझते कि प्रेम देहगत नहीं, आत्मगत होता है।

उन दोनों ने ही सिर झुका लिया।

इधर महर्षि कह रहे थे, बोलो, क्या तुम सच्चे प्रेम के लिए तत्पर हो।

हाँ! अबकी बार उनमें दृढ़ता थी।

तब मोह से मुक्ति पाकर आत्मपरायण होकर जिओ। यह समूचा विश्व विश्वात्मा का ही स्वरूप है। इसकी सेवा करते हुए तुम दोनों की आन्तरिक चेतना परस्पर एकात्म हो सकेगी। जाओ, अपने लोकोत्तर प्रेम का आदर्श लोक के समक्ष चरितार्थ करो।

इसके बाद कपिला एवं अश्वघोष परम त्यागी हो गये। अश्वघोष ने भदन्त रक्षित से दीक्षा ली। उन्होंने वैदिक दर्शन के साथ बौद्ध और यवन-दर्शन का पारगामी अध्ययन किया। सम्राट कनिष्क ने उनका उपदेश सुनकर बौद्ध धर्म अपना लिया। इसके साथ वह उन्हें अपनी राजधानी पेशावर ले गया। कुछ दिन वहाँ बिताकर अश्वघोष ने गान्धार में एक बड़ा महा विद्यालय स्थापित किया। यहाँ मध्य एशिया तक के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे।

अश्वघोष मूल रूप से कवि और नाटककार थे। सच्चे प्रेम का मर्म जानने के बाद वे परम त्यागी बौद्ध आचार्य हुए। उनके लिए बुद्धचरित और सोन्दरानन्द नाटक, विश्व के अमर काव्य संस्कृत भाषा में प्राप्त हैं। उन्होंने कपिला, अपनी माता, साकेत नगर और सरयू नदी को सदा याद रखा और कभी न भुलाया। उनके काव्य में सच्चे प्रेम की ये स्मृतियाँ सदा-सर्वदा के लिए स्थान पा गयीं।


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