अपनों से अपनी बात- - प्राणचेतना का यह प्रवाह अवरुद्ध न होने पाए

December 1997

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अखण्ड-ज्योति पत्रिका अपने आप में एक ऐसी स्थापना है, जिसे हम अपनी आराध्य सत्ता परमपूज्य गुरुदेव की ‘भावकाया’ का नाम दे सकते हैं। उन्हीं के विचार इसमें विभिन्न लेखों के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं। 1940 से अविराम प्रकाशित हो रही यह पत्रिका संजीवनी विद्या के बहुमूल्य सूत्रों का ऐसा समुच्चय है, जैसा आज के वैचारिक प्रदूषण के युग में बड़ी मुश्किल से देखने को मिलता है। तपते हुए रेगिस्तान में यदि ठण्डे जल की धारा किसी को मिल जाये, शीतल पवन की बयार स्पर्श कर जाये ता उसे जैसी राहत मिलती है, उससे कहीं अधिक आज के तनाव भरे-संत्रास से, क्षोभों से भरे समय में इस पत्रिका के स्वाध्याय से मिलती है। गुरुसत्ता के प्राण सँजोये प्रति माह सबके घर पहुँचने वाली यह ज्ञान सम्पदा मात्र छपे कागजों का एक पुलिन्दा भर नहीं है, अपितु प्रतिपल का मार्गदर्शन देने वाली, अनगढ़ सुगढ़ बना देने वाली एक पारसमणि की तरह है।

पिछले साठ वर्षों में अगणित व्यक्तियों ने इस पत्रिका रूपी कल्पवृक्ष के नीचे अपनी समस्याओं के समाधान पाये हैं, मनोकामनाओं की पूर्ति का मार्ग खोजा है, आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाली कुँजी पायी है। शिशु, किशोर, मातृसत्ता, युवा व प्रौढ़ सभी के लिए हर तरह की मार्गदर्शक सामग्री इसमें विद्यमान रहती है। यही कारण है कि यह सभी को समान रूप से प्रिय है एवं प्रत्येक घर में इसकी एक तारीख से ही प्रतीक्षा होने लगती है।

हममें से हर कोई जानता है कि हम जिस समय से गुजर रहे हैं, यह बड़ा विषम व प्रतिकूलताओं से भरा है। एक-एक घड़ी कैसे गुजर रही है, सबको इसका अहसास है। वैचारिक प्रदूषण से भरे इस जमाने में ‘इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य’ का नारा लेकर सबके अन्दर आशावाद जगाने वाली यह एकमात्र ऐसी विचार-सम्पदा है, जो हमें सही सोचने, स्वयं को व्यवस्थित जीवन जीना सीखने की कला के सूत्र प्रदान करती है। 1926 में प्रज्वलित अखण्ड दीपक की ऊर्जा से मार्गदर्शन प्राप्त कर सतत् अपनी ज्योति प्रज्वलित रख प्रकाशित होती आ रही यह पत्रिका इस अंक के साथ अब अपने नये वर्ष में इसमें प्राणऊर्जा का प्रवाह और उद्दात्त व प्रचण्ड वेग के साथ बहता देखा जा सकेगा। व्यक्ति, परिवार, समाज-निर्माण की बहुमुखी विधा पर बहुविध मार्गदर्शन परिजन इसके माध्यम से पा सकेंगे। युगपरिवर्तन कैसे हो रहा है? कैसे अगले दिनों होने जा रहा है, इसकी एक झाँकी इसमें प्रत्यक्ष अभी भी देखी जा सकती है, आगे और स्पष्ट रूप से देखी जा सकेगी। इसके साठ पृष्ठों में विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों से लेकर, अध्यात्म के बहुआयामी स्वरूप को कूट-कूट कर भरा देखा जा सकेगा।

बिना किसी विज्ञापन के प्रकाशित होती चली आ रही इस पत्रिका को, जो बिना किसी लाभ-हानि के लागत मूल्य मात्र में सब तक पहुँचती रहती है, इसी मूल्य पर अगले दिनों भी परिजन पाते रहेंगे। सभी को ज्ञात है कि इस पत्रिका का वार्षिक चन्दा साठ रुपये, आजीवन सात सौ पचास रुपया तथा विदेश के लिए पाँच सौ रुपया वार्षिक है। बढ़ती महंगाई के बावजूद इसमें कोई अभिवृद्धि नहीं की जा रही है। पाठकगण अधिक से अधिक परिजनों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित करें, इससे बड़ा पुण्य इस युग में और कोई नहीं हो सकता। जो वार्षिक ग्राहक हैं- वे आजीवन बन सकें, तो संरक्षक बनकर एक ऐसी पूँजी को बढ़ाने के बड़भागी बनेंगे, जो हमारी आध्यात्मिक विरासत रही है व जो अगले दिनों के लिए मानवजाति का भविष्य लिखने का कार्य कर रही है। किसी को भेंट-उपहार में देने के लिए भी अखण्ड-ज्योति के एक वर्ष के चंदे से श्रेष्ठ कुछ और वरेण्य नहीं हो सकता। ज्ञानदान को सबसे बड़ा दान माना गया है।

अगले दिनों कुछ विशेषांक परिजनों को पढ़ने को मिलेंगे-बसंत पंचमी के उपलक्ष्य में फरवरी का ‘युगपरिवर्तन विशेषांक गायत्री जयंती पर्व के समय ‘साधना विशेषांक तथा गुरुपूर्णिमा की पावन बेला में ‘समर्पण विशेषांक प्रकाशित करने की योजना है, जिसमें अगणित संस्करण एवं भविष्य की योजनाएँ होंगी, इसके अलावा एक विशेष तौर पर अगले ही माह से साधना-प्रक्रिया पर एक लेखमाला आरम्भ की जा रही है। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा अखण्ड-ज्योति में दी जाती रही विभिन्न साधनाएँ विधि-विधान के साथ माह व वर्ष के उल्लेख के साथ प्रति माह इसमें पाठकगण पढ़ते रहेंगे। इसके अतिरिक्त हरिद्वार के कुम्भ महापर्व के सम्बन्ध में प्रथम चार माह विशेष सामग्री प्रकाशित होती रहेगी। कथा-साहित्य चुभने वाले संस्मरण, सद्वाक्यों की संख्या भी अब अधिक होगी। बीच-बीच में श्वेत-श्याम रंगीन चित्र भी विशेषांक के साथ देखने को मिलते रहेंगे। निश्चित ही ऐसी संस्कृति सम्पदा से भरी सामग्री को कोई भी छोड़ना नहीं चाहेगा। ये युग परिवर्तन के महत्वपूर्ण क्षण हैं। इन पलों में कब कौन कालनेमि विचार रूप में आकर दिमाग गड़बड़ा दें, इसके लिए सतत् स्वाध्याय ही कलियुग की एकमात्र औषधि मानकर नियमित पूज्यवर एवं मातृसत्ता का सत्संग पाने की दृष्टि से किया जाना चाहिये। यही हम सबको तारेगा। आशा है कि परिजन आराध्य की जलाई इस ज्योति को और देदीप्यमान, जाज्वल्यमान बनायेंगे। इसका प्रकाश हर कोने तक पहुँचाएँगे ।

*समाप्त*


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