वह, जो ज्वालामुखी के गर्भ में जाकर भी लौट आया

December 1997

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साहस, मनोबल, उमंग, उत्साह ऐसे आध्यात्मिक गुण हैं, जिनके आगे कठिनाइयाँ भी हार मान जाती हैं। जब यह सब एक जगह इकट्ठे होते हैं, जो सफलता सुनिश्चित मानी जाती है।

ऐसे प्रसंग आये दिन देखने को मिलते हैं, जिसमें व्यक्ति का साहस टूटते ही हाथ आई सफलता गँवानी पड़ती है। इतना ही नहीं, कई बार जान- जोखिम में भी पड़ते हुए देखा जाता है। इसमें विपरीत तो मनोबल को बनाये रखकर विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य को अक्षुण्ण रखते हैं, विजयश्री उनके चरण चूमती है।

ऐसी ही एक घटना प्रसिद्ध आस्ट्रेलियाई भूगर्भवेत्ता ए. किचनर के जीवन में घटित हुई। किचनर भू-वैज्ञानिक थे, अतः ज्वालामुखियों के अध्ययन के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। वे घण्टों तक जागृत और सुषुप्त ज्वालामुखियों वाले क्षेत्र के आस-पास घूमा करते एवं उनकी प्रकृति का अध्ययन करते रहते। कुछ स्वयं के अध्ययन तथा कुछ दूसरों के अनुभव और विवरण से उन्होंने इनकी काफी जानकारी एकत्रित कर ली। इतने पर भी वे पूर्णतया संतुष्ट न हो सके, कारण कि वे ज्वालामुखी के अन्दर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानना चाहते थे, जबकि इस संबंध में उपलब्ध जानकारी अनुमान पर आधारित थी। अनेक पुस्तकों के अध्ययन से उन्हें इतना ही ज्ञात हो सका कि इस तरह के प्रयास पहले भी हुए हैं, पर सफलता किसी को भी नहीं मिली। इससे वे तनिक हतोत्साहित तो हुए, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने उस भाव-विचार को दूर भगा दिया। उनने निश्चय किया कि इस कार्य को अब वे स्वयं पूरा करेंगे और किसी सुलगते ज्वालामुखी की उदरदरी में प्रवेश कर वहाँ की वस्तुस्थिति का पता लगाएँगे । इस निमित्त उन्होंने विश्व के अनेक ज्वालामुखियों के विस्तृत विवरण प्राप्त किये और उनका अध्ययन आरम्भ किया। गहन विचार-मन्थन के उपरान्त इस कार्य के लिए उनने स्ट्रोबोली नामक ज्वालामुखी का चयन किया। यह सिसली द्वीप के उत्तर में स्थित है। स्ट्रोबोली विश्व के उन गिने-चुने ज्वालामुखियों में से एक है, जो बराबर आग उगलता रहता है। इसी कारण हर वर्ष इसका आकार-विस्तार परिवर्तित हो जाता है। किचनर उक्त ज्वालामुखी से भली-भाँति परिचित थे और कई बार वहाँ की यात्रा कर चुके थे। लोग इसके समीप जाने से अक्सर कतराते थे, कारण कि वह कब फट पड़े, कुछ कहा नहीं जा सकता।

किचनर ने उसमें प्रवेश करने का जब पूर्णरूपेण मन बना लिया, तो इस निर्णय की जानकारी अपने सहयोगियों को दी। सब इस निश्चय को सुनकर भौंचक्के रह गये। कुछ ने उनको सनकी मान लिया, क्योंकि वे इसे अच्छी तरह जानते थे कि किचनर ने जो दुस्साहस करने का फैसला किया है, वह साक्षात मौत से खेलने के समान है। कई मित्रों ने उन्हें समझाने का प्रयास भी किया, लेकिन उन पर कोई असर नहीं पड़ा। वे अपने निश्चय पर अटल थे। दोस्तों ने ही हार मान ली। अब किचनर ने अपने अभियान के बारे में विस्तारपूर्वक बताया और उन्हें क्या करना है- इस संबंध में जानकारी दी।

तैयारी शुरू कर दी गई। इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा यह थी कि किसी सुलगते ज्वालामुखी के भीतर के अति उच्च तापमान को बर्दाश्त कैसे किया जाये? विशेषज्ञों से राय ली गई अन्ततः फैसला यह किया गया कि प्रवेशार्थी की सारी पोशाक एस्बेस्टस से बनायी जाये। जूते, हैट, कमीज, पैन्ट सब कुछ उसी से विशेष प्रकार से निर्मित किये गये। एस्बेस्टस की यह विशेषता है कि वह ऊँचे-से-ऊँचे तापमान को भी सहजता से बर्दाश्त कर लेता है, जबकि अन्य चीजें उस तापक्रम पर जल जायेंगी या गल जायेंगी। नीचे उतरने के लिए रस्से भी उसी के बनवाये गये। शरीर को जलने से बचाने के लिए एस्बेस्टस के कपड़े के मध्य कपास की एक मोटी पर्त डाल दी गयी। इसके अतिरिक्त इस विशेष पोशाक के नीचे पहनने के लिए ताप अवरोधक ड्रेस तैयार की गई। सबसे ऊपर अग्निरोधक आवरण चढ़ा हुआ था। भीतर उतरकर साँस लेने के लिए विशिष्ट तरह के आक्सीजन मास्क भी बनाये गये। इन पर भी एस्बेस्टस की मोटी पर्त चढ़ा दी गई।

सब कुछ योजनानुसार तैयार हो जाने के पश्चात् किचनर और उसके साथी सभी उपकरणों के साथ स्ट्रोबोली के लिये प्रस्थान कर गये। स्ट्रोबोली समुद्र के मध्य में स्थित एक छोटा टापू है। इसके पर्वत की चोटी पर उक्त ज्वालामुखी स्थित किचनर अपने सहयोगियों के साथ वहाँ पहुँचे, विशेष रूप से निर्मित पोशाक और मास्क पहनकर वह तैयार हुए। इसके उपरान्त एक चर्खी की सहायता से उन्हें नीचे उतारा जाने लगा। मौत के कुँए में उतरने से पूर्व किचनर ने अपने मित्रों, सहायकों और बड़ी संख्या में उपस्थित दर्शकों का अभिवादन किया। सबने तालियाँ बजाकर इसका उत्तर दिया एवं उत्साहवर्द्धक किया। किचनर के चेहरे पर आज अद्भुत उत्साह था। वह एक ऐसे जोखिम भरे अभियान के लिए चल पड़े थे, जिसमें सुरक्षित वापस लौट पाना संदेहयुक्त था, फिर भी उन्हें उसकी परवाह नहीं थी।

साहसियों के समक्ष मौत सदा परास्त हुई है। आज फिर एक बार एक दुस्साहसी का मृत्यु से आमना- सामना होने जा रहा था। इसमें किसकी विजय, किसकी पराजय होने वाली है- इसे देखने के लिए वहाँ सैकड़ों लोग मौजूद थे। चर्खी धीर-धीरे चल रही थी और किचनर को शनैः-शनैः नीचे की और लिये जा रही थी। बड़ी सावधानीपूर्वक वह अन्दर का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए गहराई में उतरते चले जा रहे थे। बीच-बीच में अपने कैमरे से फोटो भी खिंच रहे थे। कुँए में उतरने से पूर्व उनके मन में जो-जो आशंकायें उठ रहीं थीं, अब वह सब निराधार साबित हुईं थीं, सबसे बड़ा संदेह तो यह था कि तो पोशाक उस अतिशय तापमान से बचने के लिए बनायी गयी है, क्या वह उससे रक्षा कर पाने में सफल होगी? उनकी दूसरी चिन्ता यह थी कि वहाँ के अध्ययन के लिये जो यंत्र-उपकरण साथ ले जाये जा रहे थे, क्या वे सही-सही काम कर सकेंगे? पर अब वे एकदम आश्वस्त थे। पोशाक ताप से उनकी रक्षा करने में समर्थ साबित हुई थी। कैमरे एवं दूसरे यंत्र भी ठीक ढंग से काम कर रहे थे।

चर्खी लगातार चलती चली जा रही थी ज्वालामुखी की दीवारों से रह-रहकर आग की लपटें निकलतीं और फिर अदृश्य हो जातीं। इन लपटों के कारण दीवारें कहीं-कहीं बिलकुल लाल हो उठतीं, ऐसे जैसे कोई रक्त तप्त लौह-खण्ड हो। यत्र-तत्र ये लपटें काफी विकराल हो गई थीं, पर इनके अतिरिक्त सम्पूर्ण दीवार शान्त और सुरक्षित थी, सो बात नहीं, जगह-जगह से दीपशिखा की तरह छोटी-छोटी लाल-पीली लपटें निकल रही थीं। इन सबके कारण वहाँ का दृश्य इतना मनोहारी हो गया था, मानो दीपमालिका का ज्योति-पर्व आ उपस्थित हुआ हो।

लगभग बीस मिनट बाद किचनर ज्वालामुखी की तली में पहुँचे। यह करीब नौ सौ फुट नीचे थी। जिसमें गर्म लावा और किसी-किसी में सघन धुँआ भर हुआ था। उनके सहयोगी यह आशंका कर रहे थे कि शायद किचनर वहाँ की धरती पर न उतर सकें और ट्राली परसे ही उन्हें अपना निरीक्षण-परीक्षण पूरा करना पड़े, कारण कि इतने उच्च तापमान पर वहाँ की चट्टानें ठोस स्थिति में बनी रह सकेंगी, ऐसी उनने कल्पना भी नहीं की थी, लेकिन उनका अनुमान गलत साबित हुआ। कई चट्टानें ऐसी थीं, इन्हीं में से एक में किचनर ने अपने पाँव रखे और तली का अवलोकन करने लगे। आस-पास कई और शैलखण्ड थे। बीच-बीच में गहरे आग के गड्ढे। इन गढ्ढों का व्यास बारह फुट से लेकर पैंतीस फुट तक था। इनसे रह-रहकर भस्मीभूत बनाने वाली भीषण ज्वालाएँ निकलती थीं। कुछ क्षण चवे इनके निकलने और शान्त होने का क्रम निहारते रहे। जब उनके समयान्तराल का कुछ-कुछ अन्दाज मिला, तो वे उसी क्रम से उनके भीतर झाँक-झाँक कर देखने लगे। उन्होंने देखा अन्दर पिघली चट्टानें उबल रही थीं। रंग-बिरंगी गैसों व धुओं का वहाँ विचित्र संयोग था। वे उनकी तस्वीर उतारने लगे।

एक गड्ढे का अध्ययन कर वे दूसरे के समीप पहुँचते और उसकी भी इसी प्रकार से गहरी जाँच करते। एक समय जब वे एक गड्ढे का निरीक्षण कर रहे थे, तो अचानक उसके खौलते लावे में ज्वार आ गया। किचनर सतर्क थे। वे तुरन्त एक किनारे तट गये। उनके हटते ही एक जोरदार विस्फोट हुआ। उसी के साथ उस गड्ढे में से लावे का फव्वारा फूटा। लावे का अधिकाँश भाग उसी गड्ढे में गिर गया, परन्तु फव्वारा इतना ऊँचा था कि ज्वालामुखी के मुख से निकलकर उसका कुछ हिस्सा समुद्र में जा गिरा। बाहर प्रतीक्षा में खड़े उनके सहयोगी बेचैन हो उठे। मन शंकित होने लगा। किचनर को कुछ हुआ तो नहीं? वे सुरक्षित तो हैं? पर संदेहों को दूर करने का उनके पास कोई उपाय नहीं था। उनने इन्तजार करना ही उचित समझा।

उस भयंकर ज्वार को देखकर स्वयं किचनर के मन में भी ऐसे ही विचार उठ रहे थे। वे सोच रहे थे कि लावे के इस फव्वारे को देखकर निश्चय ही बाहर खड़े उनके मित्र भयभीत हुए होंगे और उनके हताहत होने की आशंका कर रहे होंगे, पर किचनर पूर्णतया सुरक्षित थे।

वे स्थान-स्थान से गैसों, खनिजों के नमूने घूम-घूमकर एकत्रित करते रहे, फोटो खींचते रहे और उन लोमहर्षक क्षणों का आनन्द उठाते रहे।

लगभग तीन घण्टे बीत चुके थे। उस भीषण ताप में काम करते-करते किचनर को थकान महसूस होने लगी। वहाँ ऐसी कोई सुरक्षित जगह भी नहीं थी, जहाँ एक क्षण स्थिर होकर बैठा जा सके। जाने कब कहाँ से लावा फूट पड़े, इसका क्या भरोसा? अस्तु सदा सावधान रहकर बराबर चलते- फिरते रहना पड़ता था। इतने लम्बे अन्तराल तक खड़े-खड़े किसी रोमांचकारी वातावरण में काम करना निस्सन्देह थकाने वाला होगा। इसी बीच आक्सीजन समाप्त हो गयी। इसका संकेत तुरन्त उनने रस्सा हिलाकर अपने सहयोगियों को दिया। सहायकों ने संकेत समझकर तत्काल उन्हें ऊपर खींच लिया। ऊपर पहुँचते-पहुँचते वे मूर्च्छित हो चुके थे। अविलम्ब उन्हें चिकित्सा सहायता दी गई। थोड़ी ही देर में वे होश में आ गये। यह देखकर उपस्थित जनों ने हर्षध्वनि कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

आज पहला अवसर था, जब कोई जीवित ज्वालामुखी के भीतर घुसकर जिन्दा लौटा हो। यह सौभाग्य किचनर को मिला। वे इसके श्रेयाधिकारी बने। इसके पूर्व न तो यह दुस्साहस हुआ था, न आगे होने की संभावना है।

सफलता सदा साहसियों को ही मिलती है- यह कथन उतना ही तथ्यपूर्ण है, जितना यह कि पुरुषार्थी साहसी होते हैं। दोनों का अपना युग्म है। जहाँ साहस होगा, वहाँ पराक्रमी डरपोक, ऐसा कहीं देखा नहीं जाता। उमंग-उत्साह भी इन्हीं के अनुचर-सहचर हैं। धैर्य तो ‘धी’ सम्पन्नों की प्रमुख विशेषता है। यह आध्यात्मिक सम्पदा कहलाती है। जहाँ इन तत्वों का समुच्चय- समाहार होगा, वहाँ सफलता अवश्यम्भावी होती है।- ऐसा विद्वानों का अभिमत है।


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