ईश्वराधना हो तो ऐसी हो

December 1997

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जड़ पाषाण की पूजा को यदि ईश्वर-उपासना कहा जाए, तो भगवान के साकार स्वरूप विराट ब्रह्म की सेवा को क्या कहना चाहिये? आये दिन इस प्रकार के तर्क-वितर्क होते रहते हैं और यह विवाद छिड़ा ही रहता है कि कौन सही और कौन गलत है? किसे अपनाया, किसे छोड़ा जाये? लोकसेवियों के जीवनक्रम और उसकी फलश्रुति को देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि लोकमंगल से बढ़कर दूसरा ऐसा कुछ नहीं, जो सर्वोत्तम ईश्वराधना कहा जा सके। समय-समय पर प्रकाश में आने वाले प्रसंगों से इस तथ्य की पुष्टि होती रहती है।

घटना पश्चिम बंगाल की है। नादिया जिले में हरसोला नामक एक गाँव है। मुगलों के जमाने में वहाँ कहीं से आकर एक क्षत्रिय परिवार बस गया था। गृहस्वामी भानुराय थे। उनके पुत्र का नाम प्रतापराय था। प्रतापराय में उनके माता-पिता के सद्गुणों का अद्भुत समन्वय हुआ था। पिता परोपकारी और दानशील थे, तो माता कुसुमी की ममता ऐसी थी, जो सर्वसाधारण में बिरले ही दिखाई पड़ती हो। उनके दरवाजे पर जो कोई टेर लगाता, उसे कभी भी भूखा नहीं लौटना पड़ा। दूसरे द्वारों पर भले ही उनके पेट को आहार न मिलता हो, पर यहाँ उनकी क्षुधा अवश्य तृप्त होती थी। बिन माँगे भर पेट भोजन और ऊपर से कच्चा अन्न, यह यहाँ का नियम था। इससे आये दिन वहाँ याचकों और भिखारियों की भीड़ लगी रहती। भिखारियों का प्रबन्ध कुसुमी संभालती और भानुराय याचकों के दुःख-दर्द सुनते। हरेक को आवश्यकतानुसार समुचित धन और अन्न दिया जाता।

सम्पत्ति और सत्प्रवृत्ति का समभाव यदा-कदा और यत्र-तत्र ही देखा जाता है। जहाँ सम्पदा होती है, अक्सर वहाँ कुटेवों के कुचक्र विपदा बनकर छाये रहते हैं। यह परिवार इसका अपवाद था। यहाँ धन तो था, पर धन के साथ अगले वाले व्यसन नहीं।

प्रतापराय में इन सुसंस्कारों की गहरी छाप थी। उनमें एक साथ परोपकार, सदाचार, सद्व्यवहार और करुणाजन्य स्नेह-प्यार यह सब तत्व इकट्ठे हुये थे। माता से संवेदना मिली थी और पिता से परमार्थपरायणता। इनके सम्मिलन से वे इतने दिव्य हो उठे थे, जिसे कि आज कहने-सुनने की चीज भर माना जाता है। धार्मिकता उन्हें विरासत में मिली थी। वे ईश्वरभक्त थे। सेवा कार्यों से जो समय बच जाता, उसे इसी में लगाते। वे उच्चकोटि के तपस्वी भी थे। स्वयं तपकर, कष्ट उठाकर, दूसरों को सुख पहुँचाना उन्हें अच्छा लगता था। उनकी अपनी इच्छा इतनी भर थी कि उनसे किसी को कष्ट न पहुँचे। मोटा खाना, मोटा पहनना उनका आदर्श था। इससे अधिक की न तो उनने कभी आकांक्षा की, न आवश्यकता समझी। यों वे चाहते तो शौक-मौज में धन खर्च कर सकते थे, पर इससे वे सदा दूर रहे।

जिसने संतोष का सुख चख लिया, उसके लिए अति का कोई महत्व नहीं और जिसे धन की लिप्सा लग गई, उसके आगे कुबेर की सम्पदा भी स्वल्प है। प्रतापराय स्वल्प-संतोषी थे। उनके आगे ही अन्य गाँवों के जमींदार धन जोड़ने और कोठार भरने में जहाँ अपना सुख-चैन गँवाते रहते, वहीं उनका परिवार उसे लुटाकर दूसरों को सुखी बनाता और स्वयं आनन्दित रहता। इस परिवार की कृतज्ञता से गाँव वाले इतने लदे थे कि आगे कोई सहायता लेने में संकोच अनुभव करते, अस्तु अब जिस किसी को कोई जरूरत पड़ती तो वे अपनी सोने-चाँदी की कोई अमानत लेकर वहाँ पहुँचते और बदले में धन प्राप्त करते थे। वैसे राय परिवार में गिरवी रखने का धंधा नहीं होता था। इसे तो गाँववालों ने अपनी झेंप मिटाने और सहज अनुभव करने के लिए निजी तौर पर शुरू किया था, फिर भी इसे गिरवी नाम देना उचित न होगा, कारण कि गिरवी में वस्तु के मूल्याँकन के आधार पर धन दिया जाता है। वस्तु जितने की होगी, रुपया उतना ही मिल सकेगा, जबकि वहाँ ऐसी कोई व्यवस्था न थी। धन लेने वालों से न पूछताछ की जाती, न आभूषण देखे जाते। बस जरूरत की रकम दे दी जाती। पिता भानुराय के समय ये ही यह उपकार-वृत्ति चल रही थी, जिसका प्रतापराय यथावत निर्वाह कर रहे थे।

परिवार में अब प्रतापराय और उनकी पत्नी रह गये थे। माता-पिता का देहान्त हो चुका था, किन्तु सेवा वृत्ति की जो पौध उन दोनों ने लगायी थी, वह अब वृक्ष बनने की तैयारी कर रही थी। उनके यहाँ माता-पिता के समय में सिर्फ भिखारी ही भोजन पाते थे। इसे उनने सदावर्त की शक्ल दे दी थी। अब वहाँ भिखारी से लेकर असहाय, अनाथ, बेसहारा, दरिद्र सबको भोजन मिलता था। निर्धन भी दूर-दूर से आर्थिक सहायता पाने के लिए आने लगे थे। पहले यह सिर्फ गाँव के लोगों तक ही सीमित था। वह अब अनेक गाँवों तक फैल चुका था। प्रतापराय भी मुक्तहस्त से उनकी मदद करते और जिसे जितनी रकम की आवश्यकता होती, उसे बिना किसी पूछताछ के दे देते। उनका नाम-पता खाते में चढ़ा लिया जाता। अमानत की वस्तु रखने के लिए प्रतापराय ने बैठक खाने में लोहे के एक बड़े सन्दूक की व्यवस्था की थी। सब अपने-अपने गहने नाम-पते के साथ उसी में रख जाते और जब भी, जितने दिनों बाद भी रुपया लौटाने आते अपनी अमानत उस बक्से से निकाल ले जाते। प्रातपराय इन आभूषणों को न तो पैसा देते समय देखते, न उन्हें ले जाते समय। सब कुछ उधार लेने वालों की ईमानदारी पर निर्भर था।

जो जैसा होता था, वह औरों को भी वैसा ही समझता है। सत्पुरुष सामने वाले को सत्पुरुष ही मान बैठते हैं, किन्तु किसी की धारणा मात्र से दुनिया बदल तो सकती नहीं। जो जैसा है, वैसा ही बना रहेगा। बेईमान यदा-कदा ही संत बनते देखे जाते हैं। अधिकाँश मामलों में अवसर की तलाश में रहते और मौका मिलते ही सब कुछ हड़पने को तैयार हो जाते हैं। प्रतापराय के साथ यही हुआ। उनकी सरलता और ईमानदारी को देखकर कुछ लोगों की नीयत खराब हो गई। चार दुष्टों ने उन्हें ठगने का कुचक्र रचा। एक ने अपने डिब्बे में कंकड़-पत्थर भरे, शेष तीन ने थैलियों में, फिर बारी-बारी से वे चारों डिब्बा और थैलियाँ लेकर आये। उन्हें सन्दूक में रखकर रुपये ले गये।

कुछ समय बाद योजनानुसार उनमें से एक आया और रुपया लौटाते हुए सन्दूक से अपना डिब्बा निकाला। उसने उसे वहीं खोला और कंकड़ों को जमीन पर डालकर रोने-चिल्लाने लगा, प्रतापराय को बहुत बुरा-भला कहा और अपने जेवर माँगने लगा। प्रतापराय हक्के-बक्के रह गये। उनने समझाने की बहुत कोशिश की और यह बताना चाहा कि इस बारे में उन्हें कोई पता नहीं। रुपया लेकर सामान ले जाने वालों में से ही शायद किसी ने यह चोरी की हो, पर उसे न तो समझना था, न समझा। इसी बीच शेष तीन भी आ गये। उनने भी वही नाटक किया। रुपये लौटाये और थैलियाँ उठायी । उन्होंने यह प्रकट नहीं होने दिया कि उनके बीच परस्पर कोई परिचय है। उन थैलियों से भी पत्थर निकले। अब तो उपस्थित लोगों को भी विश्वास हो गया कि प्रतापराय ने बेईमानी की है। सभी ने उन्हें गालियाँ देनी शुरू कर दीं तथा धूर्त, बेईमान, पाखण्डी कहने लगे।

बंगाल में उन दिनों मुसलमानों का शासन था। चारों धूर्तों ने लोभ देकर काजी को पहले ही मिला लिया था। न्याय का प्रपंच रचा गया। प्रतापराय को जेल की सजा हो गई। उनका घर-द्वार धन-सम्पत्ति खेत-खलिहान सब कुछ जब्त कर लिया गया। बाद में काजी सहित चारों लोगों ने उसे परस्पर बाँट लिया। पत्नी मालती घर से निकाले जाने के उपरान्त अपनी इष्ट मूर्ति भगवान कृष्ण को साथ लेकर मायके चल पड़ीं। गाँव वालों ने काजी से शिकायत कर दी। मालती पकड़ मंगायी गई। भगवान के स्वर्णाभूषण छीन लिये गये। तत्पश्चात् जब्त माल को चुराने के जुर्म में मालती को भी सजा हो गई। जेल का दरोगा भला आदमी था। उसने मालती को प्रतापराय के साथ ही ठहरा दिया।

जो दूसरों की सेवा-सहायता में तत्पर रहते हैं, भगवान भी उनकी सहायता करते हैं। राय दम्पत्ति को ईश्वर पर दृढ़ विश्वास था। कारागृह जाने के उपरान्त दोनों ने सोचा कि वे निर्दोष अवश्य हैं, पर परमात्मा के यहाँ बिना दोष के दण्ड का कोई विधान है नहीं। निश्चय ही पूर्व जन्म के किसी पाप का यह परिणाम है, अन्यथा इतनी अंधेरगर्दी यदि परमसत्ता के यहाँ होने लगे, तब तो सृष्टि-संचालन ही उनके लिये दूभर हो जाये और उसे सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता कहने में भी संकोच होने लगे। उसे परमपिता कहने का यही अर्थ है कि उस सर्वोपरि सत्ता का चिन्तन लौकिक पिताओं की तरह नहीं, उससे भिन्न, उदात्त और उत्कृष्ट स्तर का है। साँसारिक पिताओं की दृष्टि में उसका कोई पुत्र अधिक और कोई कम प्रिय हो सकता है, पर परमपिता का प्यार सबके लिए एक समान है। उसके राज्य में किसी प्रकार के भेदभाव की कोई गुँजाइश नहीं

वे निश्चिन्त हो गये और ईश्वर चिन्तन में लीन रहने लगे। उनकी जगह अन्य कोई होता, तो कदाचित अब तक नास्तिक हो गया होता, पर आस्तिकता की परीक्षा ऐसे ही अवसरों पर होती है, जब यह देखा जाता है कि व्यक्ति की श्रद्धा कितनी अटल तथा विश्वास कितना अडिग है, वह ईश्वरीय न्याय को किस हद तक बर्दाश्त कर सकता है। जो इसमें उत्तीर्ण होते, वे बहुत कुछ खोकर भी सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं। धन-साधन गँवाकर भी परम धन प्राप्त कर लेना उन्हीं के वशवर्ती होता है, जो धन परम धन के मार्ग में आड़े आता हो, वह किस काम का? राय दम्पत्ति ने आज यह तत्त्वबोध प्राप्त कर लिया था। वे सर्वस्व गँवाकर भी सर्वोपरि सत्ता को उपलब्ध कर लेने के कारण धन्य अनुभव कर रहे थे। आज उन्हें ईश्वर-दर्शन हुआ था। साक्षात्कार में प्रभु ने कहा- पूर्व जन्म के शेष बचे भोगों को इस कष्ट के बहाने भुगताकर समाप्त करा दिया गया। अब तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा हूँ। निश्चिन्त रहो और मेरा कार्य करो। इतना कहकर वे अन्तर्ध्यान हो गये।

उधर उस काजी और पाखण्डियों का बुरा हाल था। उनके कुकर्म पर न्यायकारी सत्ता का हाथोंहाथ उन्हें दण्ड मिला। सबको गलित कुष्ठ हो गया। थोड़े ही दिनों में उनकी दशा दयनीय हो गई। जिस धन को अनीतिपूर्वक उनने हड़पा था, उसका अभी वे अच्छी तरह उपभोग भी नहीं कर पाये थे कि परिणाम सामने आ गया। काजी की पत्नी बुद्धिमान थी। उसे यह समझते देर न लगी कि ऐसा क्यों हुआ है? निरपराध प्रतापराय को सताने का ही यह फल है- इसे उसका मन बार-बार कहता था- उसने काजी को समझाया कि अब उबरने का एक ही उपाय है कि प्रतापराय से क्षमा माँग ली जाये। उसके माफ करने से संभव है रोग दूर हो जाये। काजी को यह बात जंच गई। वह और चारों षड्यंत्रकारी प्रतापराय और मालती के पास आये। दोनों को कारामुक्त कर दिया गया। सबने उनके पैरों पर गिरकर माफी माँगी और गिड़गिड़ाकर कहने लगे कि आप सर्वथा निर्दोष हैं। हम सबने झूठा आरोप लगाया था। अब क्षमा करें और व्याधि दूर करने के लिए भगवान से प्रार्थना करें।

प्रतापराय ने उन्हें उठाया। उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए परमात्मा से प्रार्थना करने लगे। कहते हैं कुछ देर तक ऐसा करने के पश्चात् न सिर्फ उनके रोग ठीक हो गये, वरन् उसके चिन्ह तक समाप्त हो गये। उन्हें देखने के बाद अब ऐसा नहीं लगता था कि कभी वे कुष्ठग्रस्त हुए हों। यह देखकर गाँव वालों को सच्चाई का पता लग गया। उन लोगों ने भी वास्तविकता की जानकारी न होने के कारण प्रतापराय को काफी भला-बुरा कहा था और गालियाँ दी थीं। उस व्यवहार के कारण उन सबने भी किसी न किसी रूप में आधि-व्याधि भुगती थी। अब वे अनुभव कर रहे थे कि ये विपत्तियाँ उन पर क्यों आई। प्रतापराय ने सभी को क्षमादान दिया।

काजी ने उनकी सारी सम्पत्ति लौटा दी, उपहार भी दिया। उन सबको प्रतापराय ने गरीबों में बाँट दिया। अपने लिये जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा रखकर शेष को भूमिहीनों को दे दिया। वे पति-पत्नी उसी पर उपजे अन्न से अपना निर्वाह करने लगे। पहले वे पीड़ा-निवारण में संलग्न थे, अब उसके दूसरे महत्वपूर्ण पक्ष पतन-निवारण का जिम्मा उठाया एवं लोगों को सद्ज्ञान दान देने लगे।

प्रतापराय से प्रभावित होकर काजी ने वहाँ एक महल बनवाया, जिसका नाम ‘राय की गढ़ी’ रखा। आज भी उसका अवशेष वहाँ देखा जा सकता है।

इस विराट विश्व को आस्तिकता की कर्मस्थली माना गया है। यहाँ के चलते-फिरते मानवी पुतले ईश्वर की साकार प्रतिमाएँ हैं। जो इनकी सेवा-सहायता रूपी पूजा-उपासना में संलग्न रहते हैं, भगवान की अनुकम्पा उन्हीं पर बरसती है। निर्जीव पत्थर के विग्रह की चिह्न-पूजा मात्र कर आज तक किसने क्या पाया है? यदि किसी को सचमुच कुछ मिला है तो इसे उपासना मात्र ही नहीं, चेतना सम्पन्न मनुष्य की उस पूरा की फलश्रुति मानी जानी चाहिये, जिसे ‘सेवा’ कहते हैं।


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