यह कौतुक किस काम का?

December 1997

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कला की उपयोगिता कौतुकपूर्ण रचना गढ़ने में नहीं, इस बात पर निर्भर है कि उससे लोगों को कितनी सहायता और मार्गदर्शन मिलता है। जो निर्माण जितने अंशों में इस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, उन्हें उतना ही सफल माना जाता है।

ऐसा ही एक निर्माण अमेरिका के कोनी द्वीप में हुआ था। सन् 1881 से पूर्व वहाँ के लिए जो जहाज प्रस्थान करते, वे अक्सर भटक जाते थे। उनके मार्गदर्शन की वहाँ कोई व्यवस्था नहीं थी। न कोई लाइट-हाउस था, न ऐसा कुछ, जिसके सहारे दूर से ही द्वीप का अनुमान लगाया जा सके। यात्रियों को इससे बड़ी असुविधा होती थी और वहाँ पहुँचने में प्रायः काफी समय लग जाता था।

टी.सी. ब्रिटनर ऐ अमरीकी इंजीनियर थे। बहुत समय से वे कुछ ऐसी संरचना वहाँ करवाना चाह रहे थे, जिससे पर्यटकों को सुविधा हो और जहाजों को दूर से ही स्थान की जानकारी मिल सके, पर उनकी समझ में कुछ आ नहीं रहा था कि ऐसा क्या हो सकता है, जो एक साथ लोगों में कौतूहल पैदा करे और उपयोगी भी हो, यात्रियों का मनोरंजन करे और जिस उद्देश्य के लिए उसे विनिर्मित किया गया है, उसमें सफल भी हो।

इसी बीच उन्हें इंग्लैण्ड जाना पड़ गया। साथ में कुछ मित्र भी थे। वहीं उनको प्रसिद्ध इमारतें, राजभवन तथा चिड़ियाघर देखने थे। महलों का अवलोकन करते हुए वे चिड़ियाघर देखने थे। महलों का अवलोकन करते हुए वे चिड़ियाघर पहुँचे। वहाँ दो दशक पूर्व भारत से एक जोड़ा हाथी भेजा गया था। इसके पूर्व इंग्लैण्ड के लो इससे अपरिचित थे। ब्रिटनर और उनके साथी हाथी को देखकर आश्चर्यचकित रह गये, अमेरिकियों ने हाथी कभी देखा नहीं था। उन्होंने समझ कोई चौपाया दैत्य है। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि दुनिया में इतना विशाल कोई जन्तु भी हो सकता था। अधिकारियों ने उनको आश्वस्त किया कि वास्तव में यह जानवर ही है, कोई दैत्य नहीं।

ब्रिटनर का मस्तिष्क सक्रिय हो उठा। वह उसे बहुत ध्यान से देखने और उसके अंग-अवयवों पर विचार करने लगे। चूँकि वह स्वयं एक आर्किटेक्ट थे, अतः उसकी विशाल और विलक्षण आकृति को देखकर उनके मन में विचार उठा कि क्यों न इसी आकार-प्रकार की इमारत बनायी जाये? उन्होंने हाथी का रेखाचित्र तैयार किया और फिर अमेरिका लौट गये।

अमेरिका जाकर उन्होंने महीनों के विचार- मन्थन के उपरान्त हाथी-शक्ल की इमारत का एक नक्शा तैयार किया। में भवन की सम्पूर्ण बारीकियाँ निहित थीं। कहाँ यात्रियों के ठहरने के कमरे होंगे, कहाँ आडिटोरियम होगा। चारों पैरों में क्या बनाया जाये? सूँड़ का किस रूप में उपयोग हो? आदि।

ब्रिटनर वहाँ एक होटल बनाना चाह रहे थे, कारण कि कोनी द्वीप में पर्यटकों के ठहरने की कोई समुचित व्यवस्था न थी। वे वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य देखने आते थे, पर जितना उन्हें आनन्द मिलता, उतना ही कष्ट भी उठाना पड़ता था। इसके अतिरिक्त कई बार वे बीमार पड़ जाते थे। उनके उपचार का भी ठीक प्रबन्ध नहीं था।

दो वर्ष में वह भव्य होटल बनकर तैयार हुआ। उसमें कई मंजिलें थीं। एक साथ वहाँ दो हजार लोग ठहर सकते थे। उसके सारे कमरे हाथी के पेट में बैठे हुए थे, जिसके मध्य में एक बड़ी नृत्यशाला थी। उससे सटा एक सभागार था। उसके चारों ओर कमरे बने हुये थे। हाथी के सिर में एक प्लेटफार्म बना हुआ था। उस प्लेटफार्म से सूँड़ के निचले सिरे तक सम्पूर्ण सूँड़ में एक फिसलपट्टी थी, जिसके सहारे स्त्रियाँ, बच्चे, बड़े फिसलकर बाहर मैदान में पड़े हुए मोटे-मोटे नर्म गद्दे पर आकर गिरते थे। हाथी के नेत्रों के स्थान पर काँच की दो गोल खिड़कियाँ थी। इसमें तीव्र प्रकाश की व्यवस्था थी। प्रकाश मीलों दूर से जहाजों को दिखाई पड़ जाता था। इसी के सहारे वे अब बिना भटके वहाँ पहुँच जाते थे। रात में जलयान इस प्रकाश के माध्यम से वहाँ पहुँचते, जबकि दिन में हाथी का विशाल कलेवर उन्हें कोनी द्वीप का जानकारी देता। सम्पूर्ण हाथी एक विशेष रंग से होता था, जिसके कारण दिन में वह बहुत तेज चमकता था। यह चमक विशाल दूरी से भी जहाज की दूरबीन की पकड़ में आ जाती थी। हाथी की पीठ पर एक हौदा बना हुआ था। इसका आकार भी असाधारण था। हौदे के चारों ओर घास का सुन्दर मैदान था। वहाँ बैठ कर यात्रीगण उस नयनाभिराम द्वीप का आनन्द उठाते और दूर-दूर तक फैली जलराशि का विहंगावलोकन करते। हाथी का सम्पूर्ण शरीर चार वृहदाकार टाँगों पर टिका था। देखने में यह पैर लगते थे, पर वास्तव में सीढ़ियाँ थीं जिसके सहारे हाथी के उदर में प्रवेश किया जाता था। उसके दाँतों और पूँछ सहित शरीर में कितने ही रोशनदान थे। दोनों कानों में दो दूरबीनें लगी थीं। पर्यटक उसके सहारे समुद्र में आते जाते जहाजों का पर्यवेक्षण करते थे। हौदे के ऊपर एक मानवाकृति बैठी हुई थी। वह वास्तव में एक शक्तिशाली दूरबीन थी। जब जल क्षेत्र का विस्तृत और व्यापक निरीक्षण करना होता, तब इसका प्रयोग किया जाता। दिन में तीन बार सुबह, दोपहर और शाम को हाथी की चिंघाड़ सुनायी पड़ती थी। यह इतनी जीवन्त थी, जैसे कोई सचमुच का हाथी चिंघाड़ रहा हो। यह वस्तुतः एक सायरन की आवाज थी। सुबह, दोपहर और शाम में इसका बजना इस बात का संकेत था कि सबेरे का नाश्ता, दोपहर का भोजन और शाम की चाय तैयार है। इसकी आवाज सुनकर वहाँ रुके लोग चाय-नाश्ते के लिए चल पड़े। इसी के लिए यह संकेतात्मक ध्वनि वहाँ अभी भी सुनी जा सकती है।

इस निर्माण की सारी विशेषताओं व उस पर हुआ अपरिमित खर्च को देखने के बाद यही समझ में आता है कि मानवीय पुरुषार्थ में बहुत कुछ कर दिखाने की क्षमता है, किन्तु प्रयोजन अथवा उद्देश्यहीन ऐसे निर्माण किस काम के, जबकि औरों के पास रोज के खाने का भोजन भी मुयस्सर भी न हो। कुछ विचित्र निर्माण करने, कुछ अलग दिखाने का यह क्रम विगत वर्षों में अनेकों रूपों में सारे विश्व में चला है एवं इन पर अरबों खरबों डालर की राशि लगी है, पर यह विश्व- मानवता के काम आयी क्या? यही चिन्तन यदि रहता, तो मानवीय मेधा के विलक्षणता के बावजूद आज दो वर्गों में इतनी बड़ी खाईं नहीं दिखती। निर्माण तो हो, पर कौतुक के लिए नहीं, सर्वजनहितार्थ सृजन के लिये ही।


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