धुरी के बिना पहियों को गतिशीलता और उपयोगिता पर ही नहीं अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है। धुरी के कमजोर पड़ते ही एक एक कर सारी लीतियाँ बिखरने लगती हैं और पहिया बेकार हो जाता है। ठीक यही बात परिवार में नारी के सम्बंध में है। नारी परिवार की धुरी है उसके संवेदन सूत्र ही परिवार को आपस में जोड़े रखते हैं। इनके टूटते ही परिवार को बंटते, बिखरते, टूटते, नष्ट होते देर नहीं लगती। इसी कारण स्वामी स्वामी दयानन्द ने लिखा है, “एक पुरुष के शिक्षित और सुसंस्कृत होने का अर्थ है, अकेले उसी का उपयोगी बनना, किन्तु एक स्त्री यदि शिक्षित, समझदार और सुयोग्य हो तो समझना चाहिए कि पूरे परिवार के सुसंस्कृत बनने का सुदृढ़ आधार बन गया।”
वैसे भी स्त्री के बिना परिवार बसाने की कल्पना नहीं की जा सकती। यों तो अकेला पुरुष भी परिवार बसाने में असमर्थ है और अकेली स्त्री भी, किन्तु मुख्य भूमिका किसकी है ? यह तय करना हो तो स्त्री पर ही ध्यान केन्द्रित हो जाता है। कारण कि परिवार की आन्तरिक व्यवस्था में उसी की भूमिका महत्वपूर्ण है। परिवार में सुख-शाँति, सौमनस्य और सुव्यवस्था का वातावरण बनाने का उत्तरदायित्व मुख्यतः स्त्री को ही निभाना पड़ता है। इसीलिए उसे गृहिणी, सुगृहिणी गृहस्वामिनी और गृहलक्ष्मी कहा जाता है यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि स्त्री के लिए तो इस तरह के सम्बोधन प्रयुक्त किए जाते हैं, पर पुरुष के लिए ऐसा कोई सम्बोधन नहीं है। बहुत हुआ तो उसे गृहस्वामी भर कह दिया जाता है। जबकि स्त्री के लिए सुगृहिणी, गृहलक्ष्मी जैसे विशिष्टता सूचक सम्बोध नहीं प्रयुक्त होते हैं। पुरुष के लिए ऐसा कोई विशेष अर्थ देने वाला सम्बोधन नहीं है।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नारी वास्तव में परिवार का हृदय और प्राण है। यद्यपि परिवार का अस्तित्व और वातावरण उसके सभी सदस्यों पर निर्भर करता है, किन्तु सूत्रधार का स्थान निर्धारित करना हो, यह देखना हो कि परिवार का अस्तित्व मुख्यतया किस पर निर्भर है , तो यह कहने में संकोच का कोई कारण नहीं है कि वह गृहिणी है। समाजशास्त्री भी मानते हैं कि यदि स्त्री न होती तो पुरुष को परिवार बसाने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती और न वह इतना क्रियाशील बनता तथा न ही इतना उत्तरदायी बनने के लिए प्रयत्नशील रहता।
स्त्री और पुरुष का युग्म बनते ही मानव जाति के इतिहास में परिवार की आधारशिला रखी गयी और सभ्यता का विकासक्रम आरंभ हुआ। परिवार में नारी का स्थान और महत्व निर्धारित करते समय यह तथ्य भली भाँति समझ लेना चाहिए कि गृहिणी से तात्पर्य पत्नी ही नहीं है स्त्री चाहे किसी भी रूप में हो, वह जिस परिवार में होती है, वहाँ के वातावरण को अनिवार्य रूप से प्रभावित करती है। माता, पत्नी, बुआ, बहिन, चाची, ताई, दादी, ननंद, भौजाई, देवरानी, जेठानी आदि सभी रूपों में नारी परिवार के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखी है और वहाँ के वातावरण को, उस घर के सदस्यों को प्रभावित करती है।
उसकी उदारता और सहिष्णु संवेदना ने अब तक जीवन के आधारभूत मूल्यों को बरकरार रखा है। ये आधारभूत मूल्य क्या हैं ? इस सवाल के जवाब में यही कहना होगा, सर्वोपरि, यह आत्म-भावना के विस्तार की प्रक्रिया है। व्यावहारिक स्तर पर यही आत्मभावना सहयोग सहकार के रूप में प्रतिफलित होकर मानवीय प्रगति का मूल आधार बनती है। स्वार्थवाद, अलगाव, एकाकीपन की निषेधात्मक प्रवृत्तियों को दूर करना तथा बन्धुत्व, सौहार्द्र, सामूहिकता की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना माँ के प्रारंभिक प्रशिक्षण की मूल्यगत उपलब्धि है। सम्मिलित श्रम एवं पुरुषार्थ की प्रवृत्ति तथा उपार्जित धन को मिल बाँट कर आवश्यकतानुसार एवं संतुलित ढंग से खर्च करने की प्रवृत्ति का सर्वोत्तम प्रशिक्षण उसी के द्वारा दिया जाता है। शील, शिष्टाचार, सौजन्यता की श्रेष्ठ भावनाएं उसी सान्निध्य में पल्लवित होती हैं। दूसरे के लिए त्याग की दैवी प्रवृत्ति के विकास की प्रारंभिक पाठशाला परिवार ही है।
मनुष्य नैसर्गिक रूप में एक अत्यन्त लचीला प्राणी होता है वातावरण के अनुरूप ? उसकी विशेषताएं ढलती चली जाती हैं। इसीलिए छोटे बच्चों को मिट्टी के लोदे जैसा कहा जाता है, जिनके गढ़ने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से माँ पर ही होती हैं जिन्हें वह अपने भावों और विचारों के अनुरूप ? आकार दे सकती है मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में पर्यावरण एवं प्रशिक्षण का अत्यधिक महत्व है। पशु-पक्षियों जैसी वर्गीय समानता, समरूपता उसमें कदापि नहीं पायी जाती। व्यक्ति-व्यक्ति में गुण, कर्म, स्वभाव की अनन्त विविधताएं तथा भिन्नताएं होती हैं। बिना प्रशिक्षण के मनुष्य रामू भेड़िया और चिंपैंजी जैसी स्थिति में पड़ा रहता। उसके लिए अविराम प्रशिक्षण केन्द्र दिन रात निरन्तर नारी के सूत्र संचालन में चलने वाली परिवार पाठशालाएं ही कर पाती हैं।
परिवार की पश्चिमी जगत में स्वीकृत व्याख्या में मानव जीवन के सीमित पहलुओं की ही परितुष्टि हो पाती है, क्योंकि उसने नारी के पत्नी रूप को ही प्रधानता दी है। यही कारण है कि नारी के अन्यान्य रूपों से झरने वाली भाव संवेदनाओं के सहस्रों रंगों से वह व्यवस्था वंचित ही रहती है मानव के भाव जगत की हजारों परतें पश्चिमी परिवार व्यवस्था में सूनी, उजाड़ एवं प्रकाश रहित ही पड़ी रहती है। भाव संवेदनाओं की इन्द्रधनुषी छटाएं वहाँ कभी भी नहीं उभरती। माँ बाप, वृद्धों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, भाई बहिन का अनूठा प्यार, आत्मानुशासित मर्यादा और अन्तरंग स्नेह। ननंद-भाभी, जिठानी देवरानी, बुआ, भतीजे आदि के सम्बंधों का रंगारंग परिदृश्य, बहुरंगी, बहुआयामी, आलोक वर्णी भावनाओं का उनके लिए अज्ञात, अपरिचित ही है। दुनिया में कुछ भी इतना एकाँगी, सीमित और संकीर्ण नहीं, जितना कि नारी को सिर्फ पत्नी रूप में मान्यता देने वाली परिवार व्यवस्था से जुड़ी भाव संवेदनाएं हैं।
इस सृष्टि में हर क्षेत्र विविध रंगी है। गिरि, पर्वत, नदी, झरने, वृक्ष, फल, फूल, प्रकाश, छाया, बादल सभी हजार हजार रूप रंगों, सहस्रों तरह के परिदृश्यों में देखे पाए जाते हैं। मनुष्य तो प्रकृति का लाड़ला बेटा है। उसके चिन्तन और अनुभव जगत की सामर्थ्य तो और भी विस्तृत और अकूल है। फिर वह पारिवारिक संवेदना के नाम पर दो चार तरह की ही संवेदनाओं से परिचित हो नर नारी का यौनाकर्षण, काम भाव, सन्तान के प्रति मोह, वृद्धों के प्रति सामान्य औपचारिकता परिवार के नाम पर हो, तो उस उसके विराट व्यक्तित्व के अनुरूप शोभा नहीं देता। प्रारंभ से यदि इतने सीमित रिश्ते और भावनात्मक रंग ही उसे ज्ञात रहे तो इससे उसके व्यक्तित्व में एकाँगिता ही आएगी।
निःसंदेह विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न, विशिष्ट संवेदनशील व्यक्ति बिना पारिवारिक प्रशिक्षण के भी आत्मीयता की परिधि को विश्व ब्रह्मांड तक विकसित कर लेते हैं किन्तु औसत जनसामान्य प्रायः प्रशिक्षण प्राप्त संवेदनाओं की ही गूँज भर रहता है। यह आकस्मिक बात नहीं है कि जिन दिनों नारी की संवेदनशीलता अपने सभी रूपों को संयुक्त परिवार के रूप में अभिव्यक्त कर रही थी, उस समय इस देश के औसत नागरिक में भी व्यावहारिक बन्धुत्व, आत्मीयता, मैत्री तथा सामाजिकता के गुण विमान थे। जो कि पश्चिम के आधुनिक सभ्य युग में मंचों और गोष्ठियों में जोर शोर से कहे सुने जाते हैं। व्यवहारिक जीवन में तो अलगाव, दुराव, कुण्ठा, एकाकीपन का ही प्राबल्य है।
इसीलिए पारिवारिक जीवन में नारी के विधि रूपों से पनपे बहुरंगी संवेदन सूत्रों का सीधा सम्बंध जीवन मूल्यों के विकास एवं प्रशिक्षण से है यही उसका मूल आधार है। जहाँ इस मूल आधार की उपेक्षा प्रारंभ हुई, वहाँ इस व्यवस्था का मूल्य कम होने लगता है यह वस्तुतः मनुष्य के जीवन दर्शन का एक अंग है जहाँ आत्मीयता एवं ममता का यह जीवन दर्शन नहीं है। वहाँ इस व्यवस्था की टिकाऊ बनाए रख पाना भी कठिन होगा। जब नींव ही हिलने लगे तो ऊपरी मरम्मत कब तक काम दे सकती है।
स्त्रियों द्वारा परिवार का वातावरण प्रभावित होते रहने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि पुरुष सदस्य अधिकाँशतः बाहर रहते हैं। वृद्ध या असमर्थ पुरुष घर में रहते भी हैं तो वे स्त्री की तरह वहाँ के वातावरण को प्रभावित नहीं कर पाते, क्योंकि स्त्रियो में कोमलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता की जो विशेषताएं रहती हैं, पुरुषों में उनका प्रायः अभाव ही रहता है और इन्हीं विशेषताओं के कारण महिलाएं घर के सदस्यों के अधिक निकट रहती और उन्हें जाने अनजाने आधारभूत जीवन मूल्यों में प्रशिक्षित करती रहती हैं। नारियों में कोमलता, दयालुता की कोई सीमा नहीं होती। घर के किसी सदस्य में यदि एकबारगी कोई दुर्गुण हो तो भी माता, बड़ी बहिन, काकी आदि उसे क्षमा कर देती है। इसके अतिरिक्त वह उसे अभीष्ट ढाँचे में ढालने के लिए कोई भी कष्ट आसानी से झेल लेती है।
इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण है कि शिवाजी के पिता, मुसलमान राजा के दरबार में नौकरी करते थे और उनकी आधीनता मानते थे। किन्तु जीजाबाई अपने पुत्र को स्वातंत्र्य योद्धा के रूप में ही विकसित करना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने सभी आवश्यक सतर्कताएं बरतीं और अपने पति के प्रभाव से बचाते हुए शिवाजी को उसी ढाँचे में ढाला। यह आश्चर्यजनक ही है कि पिता जिसकी रोटी खाते हों, जिसके प्रति कृतज्ञ हों और सन्ता से भी अपने जैसा बनने की अपेक्षा रखते हों, वह पुत्र विपरीत दिशा में ही विकसित हो जाए, पिता से अलग मनोभूमि वाला ही बन जाए, किंतु यह आश्चर्य माँ के महत्व को देखते हुए अस्वाभाविक नहीं है।
नारी की भूमिका सन्तान के ही नहीं पूरे परिवार के निर्माण में पुरुष की अपेक्षा हजार गुनी महत्वपूर्ण होती है। सुप्रसिद्ध फ्रेंच साहित्यकार नोबुल पुरस्कार विजेता रौम्या रोलाँ की उपलब्धियों के पीछे उनकी बहिन की स्नेहपूर्ण सेवा और त्यागभाव था। हिन्दुस्तान के बादशाह शाहजहाँ की विलासी प्रवृत्तियों को ईश्वरोन्मुख करने का श्रेय उसकी पुत्री जहाँनआरा को है। मेवाड़ के राणा उदयसिंह के व्यक्तित्व का निर्माण पन्नाधाय के हाथों हुआ था। इसीलिए परिवार संस्था के महत्व के साथ नारी का महत्व अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। ध्यान रखा जाना चाहिए कि नारी को गृहिणी और गृहलक्ष्मी के सम्मानजनक विशेषण से इसीलिए सम्बोधित किया गया है क्योंकि उसमें प्रकृति ने नैतिक दृष्टि से सुदृढ़ और स्वभाव की दृष्टि से दैवी गुण सम्पन्न सम्भावनाएं प्रचुर मात्रा में भरकर रख दी हैं। उसमें मधुरता तथा सद्भाव का अमृत बहता रहता है। तभी मेवाड़ की महारानी कर्मवती ने अलग मजहब का कहे जाने वाले हुमायूँ को राखी बाँधकर अपने परिवार का अभिन्न सदस्य बना लिया। उसके प्रेम से विवश होकर बादशाह हुमायूँ ने सगे भाई की भूमिका निभाई। अपने इसी प्रेम के सहारे महिलाएं घर के अशान्त सदस्यों को धैर्य बंधाती तथा परिवार संस्था की नींव मजबूत करती हैं।
कहना नहीं होगा कि परिवार की सुख शान्ति का आधार उसके संग में रहने वाला स्नेह, सहयोग और सद्भाव ही है। घर में इसी से स्वर्गीय वातावरण का सृजन होता है और गृहिणी इस वातावरण का निर्माण करती है क्योंकि उसकी आन्तरिक व्यवस्था की नियन्त्रक वही हैं अतएव परिवार में सुसंस्कारिता भरा वातावरण बनाए रखने की जिम्मेदारी भी उसी की है। परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे की सुविधा का ध्यान रखें, परस्पर आदर सम्मान करें, एक दूसरे का सहयोग करे और स्नेह सद्भाव तथा उदारता भरा व्यवहार करे, सुसंस्कृत परिवारों के लिए यह नितान्त आवश्यक है और इसके लिए प्रेरणा भरने का काम महिलाएं ही अधिक कुशलतापूर्वक कर सकती है।
इसके लिए आवश्यक है कि नारियाँ अपना स्वयं का व्यवहार भी उसी स्तर का रखें। छोटों के प्रति असीम दुलार, स्नेह और ममता बराबर वालो के प्रति प्रेमपूर्ण स्निग्ध व्यवहार तथा बड़ों के प्रति श्रद्धा एवं समान बरतना चाहिए। साथ ही विवेक भी बरतना चाहिए। परिवार की भावनात्मक और विचारात्मक आवश्यकताओं तथा परिवार के सदस्यों की निर्माण संबंधी जिम्मेदारी महिलाएं इस प्रकार बड़ी सरलतापूर्वक पूरी कर सकती है उनके इस दायित्व वहन से टूटती, बिखरती परिवार संस्था फिर से अपना खोया सौंदर्य पा सकी है। इस प्रकार वे परिवार की धुरी बनकर समाज के लिए सच्चे अर्थों में देवी बन सकती है।