मैं नारी हूँ

September 1996

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मैं नारी हूँ। मैं अपने पति की सहधर्मिणी हूँ और अपने पुत्र की जननी हूँ। मुझ सा श्रेष्ठ संसार में और कौन है, तमाम जगत् मेरा कर्मक्षेत्र है, मैं स्वाधीन हूँ, क्योंकि मैं अपनी इच्छानुरूप कार्य कर सकती हूँ। मैं जगत में किसी से नहीं डरती। मैं महाशक्ति की अंश हूँ। मेरी शक्ति पाकर ही मनुष्य शक्तिमान है।

मैं स्वतंत्र हूँ, परन्तु उच्छृंखल नहीं हूँ। मैं शक्ति का उद्गम स्थान हूँ, परंतु अत्याचार के द्वारा अपनी शक्ति को प्रकाशित नहीं करती। मैं केवल कहती ही नहीं करती भी हूँ। मैं काम न करूं, तो संसार अचल हो जाए। सब कुछ करके भी मैं अहंकार नहीं करती। जो कर्म करने का अभिमान करते हैं, उनके हाथ थक जाते हैं।

मेरा कर्मक्षेत्र बहुत बड़ा है। वह घर के बाहर है और घर के अन्दर भी। घर में मेरी बराबरी की समझ रखने वाला कोई है ही नहीं। मैं जिधर देखती हूँ, उधर ही अपना अप्रतिहत कर्तव्य पाती हूँ। मेरे कर्तव्य में बाधा देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि मैं वैसा सुअवसर किसी को देती ही नहीं। पुरुष मेरी बात सुनने के लिए बाध्य है - आखिर मैं गृहस्वामिनी जो हूँ। मेरी बात से गृह संसार उन्नत होता है। इसलिए पति के सन्देह का तो कोई कारण ही नहीं है और पुत्र, वह तो मरा है ही, उसी के लिए तो हम दोनों व्यस्त हैं। इन दोनों को , पति को और पुत्र को अपने वश में करके मैं जगत् में अजेय हूँ। डर किसको कहते हैं, मैं नहीं जानती। मैं पाप से घृणा करती हूँ। अतएव डर मेरे पास नहीं आता। मैं भय को नहीं देखती इसी से कोई दिखाने की चेष्टा नहीं करता।

संसार में मुझसे बड़ा और कौन है ? मैं तो किसी को भी नहीं देखती और जगत में मुझसे बढ़कर छोटा भी कौन है ? उसको भी तो कहीं नहीं खोज पाती। पुरुष दम्भ करती है कि मैं जगत में प्रधान हूँ, बड़ा हूँ, मैं किसी की परवाह नहीं करता। वह अपने दम्भ और दर्प से देश को कंपाना चाहता है। वह कभी आकाश में उड़ता है, कभी सागर में डुबकी मारता है और कभी रणभेरी बजाकर आकाश वायु को कंपाकर दूर दूर तक दौड़ता है, परन्तु मेरे सामने तो वह सदा छोटा ही है, क्योंकि मैं उसकी माँ हूं। उसके रुद्र रूप को देखकर हजारों लाखों काँपते हैं, परन्तु मेरे अंगुली हिलाते ही वह चुप हो जाने के लिए बाध्य है। मैं उसकी माँ - केवल असहाय बचपन में ही नहीं सर्वदा और सर्वत्र हूँ। जिसके स्तनों का दूध पीकर उसकी देह पुष्ट हुई है, उसका मातृत्व के इशारे पर सिर झुकाकर चलने के लिए वह बाध्य है।

गर्वित पुरुष जब सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र प्राणियों की अपेक्षा और भी अधिक हिंस्र हो जाता है, कठोरता के साथ मिलते मिलते उसकी कोमल वृत्तियाँ जब सूख जाती हैं। जब वह राक्षसी वृत्तियों का सहारा लेकर जगत को चूर चूर कर डालने के लिए उतारू हो जाता है। तब उस शुष्क मरुभूमि में जल की सुशीतल धारा कौन बहाती है ? मैं ही, उसकी सहधर्मिणी ही। उसको, अपने पास बैठाकर अपना अपनत्व उसमें मिलाकर मैं उसे कोमल करती हूँ। मेरी शक्ति अप्रतिहत है। प्रयोग करने की कला जानने पर वह कभी व्यर्थ नहीं जाती।

बाहर के जगत में मेरे कर्तव्य का विस्तार होते हुए भी मैं अपने घर को नहीं भूलती। वह मेरे पिता, पति, भाई और पुत्र की आश्रय भूमि हैं उन्हें यहाँ मेरी सुशीतल छाया नहीं मिलेगी, तो वे विश्रान्ति कहाँ पाएंगे। उनका समूचा अस्तित्व मेरी गोद में अनायास समा जाता है। यही कारण है कि मेरी कर्मभूमि उनकी कर्मभूमि से कहाँ विशाल है। पुरुष जिस काम को नहीं कर सकता, उसको मैं अनायास ही कर सकती हूँ प्रमाण, पुरुष के अभाव में संसार चल सकता है परन्तु मेरे अभाव में अचल हो जाता है सब रहने पर भी कुछ नहीं रहता।

मैं पढ़ती हूँ, सन्तान को शिक्षा देने के लिए , पति के थके मन को शान्ति देने के लिए। मेरा ज्ञान मानव जीवन में विवेक का प्रकाश फैलाने के लिए है। मैं गाना बजाना सीखती हूँ - शौकीनों की लालसा पूर्ण करने के लिए नहीं, नर हृदय को कोमल बनाकर उसमें पूर्णता लाने के लिए, पुरुष की सोयी संवेदना जगाने के लिए। मैं स्वयं नहीं नाचती, वरन् जगत को नचाती हूँ।

मैं सीखती हूँ - सिखाने के लिए। शिक्षा के क्षेत्र में मेरा जन्मगत अधिकार है। मैं गुलाम नहीं पैदा करती। मैं प्रकट करती हूँ आदर्श, सृजन करती हूँ मानव, महामानव। महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, दयानन्द, विवेकानन्द, अरविन्द सब मेरी ही देन है।

मैं खड्गधारिणी काली हूँ, पाखण्डों का वध करने के लिए। मैं दश प्रहरणधारिणी दुर्गा हूँ, संसार में नारी शक्ति को जगाने के लिए। मैं लक्ष्मी हूँ - संसार को सुशोभन बनाने के लिए। मैं सरस्वती हूँ - जगत में विद्या वितरण के लिए। मैं धरणी हूँ - सहिष्णुता के गुण से। आकाश हूँ - सबकी आश्रयदायिनी होने से। वायु हूँ - सबकी जीवनदायिनी होने से और जल हूँ सबको रससिक्त करने वाली - दूसरों को अपना बनाने वाली होने से। मैं ज्योति हूँ - प्रकाश के कारण और मैं माटी हूँ - क्योंकि मैं माँ हूँ।

मेरे धर्म के विषय में मतभेद मतान्तर नहीं है। मेरा धर्म है नारीत्व, मातृत्व। मुझ में जातिभेद जनित कोई चिन्ह नहीं है। सम्पूर्ण नारी जाति मेरी जाति है।

मैं सबसे अधिक छोटा बनना जानती हूँ परन्तु मैं बड़ी स्वाभिमानी हूँ। मेरे भय से त्रिभुवन काँपता है। मैं जो चाहती हूँ, वही पाती हूँ, तो भी मेरा मान जगत प्रसिद्ध है।

पुरुष कामुक है इसलिए वह अपने ही समान मानकर मुझको कामिनी कहता है। पुरुष दुर्बल है, सहज ही विभक्त हो जाता है, इसी से मुझे दारा कहता है। मैं सभी सहती हूँ, क्योंकि मैं सहना जानती हूँ। मैं मनुष्य को गोद में खिलाकर मनुष्य बनाती हूँ। उसके शरीर की धूलि से अपना शरीर मैला करती हूँ, इसलिए कि मैं यह सब सह सकती हूँ।

रामायण और महाभारत में मेरी ही कथाएं हैं। इनमें मेरा ही गान हुआ है। यही कारण है जगत को और जगत के लोगों को जीवन विद्या का शिक्षण देने में इनके समान अन्य कोई भी ग्रन्थ समर्थ नहीं हुआ। मैं दूसरी भाषा सीखती हूँ, परन्तु बोलती हूँ अपनी ही भाषा और मेरी सन्तान इसलिए उसे गौरव के साथ मातृभाषा कहती है।

मुझको क्या पहचान लिया है ? नहीं पहचाना, तो फिर पहचान लो। मैं नारी हूँ, इक्कीसवीं सदी में अपना प्रभुत्व लेकर आ रही हूँ।


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