धर्मशास्त्रों में नारी की गरिमा

September 1996

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यह सही है कि मध्य युग में अपने देश में पतनशील प्रवृत्तियों के विकासक्रम में सामाजिक संरचना हर तरह से दूषित होती गयी। सुविधा प्राप्त शक्तिशाली वर्ग ने अपनी अन्ध मान्यताएं शेष वर्ग पर थोपने के लिए हर सम्भव हथकण्डे अपनाए। एक ओर जहाँ धन सम्पदा थोड़े से लोगों के हाथों में केन्द्रित कर शेष को उनका मुँह जोहते रहने वाला बना डाला गया, वहीं धर्मशास्त्रों में भी पुरोहितों द्वारा मनचाहे अंश जुड़वाए गए। इन्हीं प्रक्षिप्त अंशों के बल पर धर्मशास्त्रों की दुहाई देकर नारी के प्रगति की राह अवरुद्ध की गई अन्यथा यदि भाषा की प्राचीनता के आधार पर विवेकपूर्ण अध्ययन किया जाए तो यही पाएंगे कि वैदिक साहित्य, शास्त्रीय प्रतिपादन नारी की गरिमा गान करते अघाते नहीं।

सबसे पहले यदि प्राचीन ग्रंथों में नारी के लिए प्रयुक्त सभी शब्दों की व्युत्पत्ति पर ही विचार करें, तो भी स्पष्ट हो जाएगा कि मध्यकालीन अन्धकार युग से पहले अपने यहाँ महिलाओं के प्रति समाजशास्त्रियों का मनोभाव क्या था ?

उदाहरण के लिए महिला शब्द को ही लें - मह + इल च् + आ = महिला। मह का अर्थ श्रेष्ठ या पूजा हैं पूज्य, श्रेष्ठ जो है वही महिला। लौकिक संस्कृति में आदर देने के लिए स्त्रियो के लिए मान्य शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः वैदिक संस्कृति के मेना शब्द से बना है। ऋग्वेद में मेना शब्द नारी अर्थ का वाचक है और यास्क कृत निरुक्त (3/21/2) में इसकी व्युत्पत्ति दी गई है -

मानयन्ति एनाः (पुरुषाः)

अर्थात् - पुरुष इनका आदर करते हैं इसलिए इन्हें मेना कहते हैं।

इसी प्रकार स्त्री अर्थ का बोधक ‘ग्ना’ शब्द भी ऋग्वेद में आया है , जो देव पत्नियों के लिए प्रयुक्त है। किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में यही शब्द मानवी के लिए प्रयुक्त है। जिनकी यास्क ने व्याख्या की है - “ग्ना गच्छन्ति एनाः”। पुरुष ही उसके पास जाते हैं, सम्मानपूर्वक बात करते हैं। उसे पुरुष से अनुनय की आवश्यकता नहीं पड़ती।

स्त्री शब्द तो सर्वाधिक प्रचलित है। भाष्यकार महर्षि पतंजलि के अनुसार “स्त्यास्यति अस्याँ गर्भ इति स्त्री”। उसके भीतर गर्भ की स्थिति होने से उसे स्त्री कहा गया है।

जहां तक नारी शब्द का प्रश्न है, वह नर की ही तरह नृ धातु से बना है और इसका सामान्य अर्थ है क्रियाशील रहने के कारण ही नारी हुई। जो गति करे, हलचल करे वह नर एवं नारी। किन्तु ऋग्वेद में नृ का प्रयोग नेतृत्व करने, दान देने और वीरता करने के अर्थ में किया गया है। उस दृष्टि से नर और नारी में यही तीनों विशेषताएं होनी चाहिए।

सुन्दरी शब्द ऋग्वेद में सूनरी का विकसित रूप है; वेदों में सूनरी उषा को कहा गया है अर्थात् शोभा वाली। ललना और मानिनी शब्द को स्पष्ट ही है। जिसकी इच्छाशक्ति प्रबल हो वह ललना और जिसमें स्वाभिमान हो वह मानिनी।

ये तो हुए शब्द। यह यदि प्राचीन ग्रन्थों में नारी के प्रति व्यक्त उद्गार देखें, तो स्पष्ट हो जाता है कि नारी के व्यक्तित्व के प्रति सम्मान का भाव उनमें है और उस सदैव एक स्वतंत्र चेतन सत्ता के रूप में ही स्मरण किया गया है। वेदों में तो नारी के गौरव का अनेक प्रकार से वर्णन है। एक स्थान पर नारी को ब्राह्मण कहा गया है। “स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ” (ऋग्वेद 8।33।19) इसका अभिप्राय यह है कि वह स्वयं विदुषी होते हुए अपनी सन्ता को सुशिक्षित बनाती है। ब्रह्म ज्ञान का अधिष्ठाता है। यही यज्ञों का संचालन करता है। वह ज्ञान-विज्ञान में श्रेष्ठ होता है। अतः उसे यज्ञ में सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। उसी प्रकार नारी को ज्ञान-विज्ञान में निपुण होने के कारण ब्रह्म बताया गया है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के 159 वें सूक्त में शची का गौरव वर्णित है शची का कथन है -

अहं केतुरहं मूर्धाऽमुग्रा विवाचिनी।

ममेदनु क्रतुँ पतिः सेहानाया उपाचरेत्।

-ऋग्वेद 10।159।2

अर्थात् - मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूँ, मैं स्त्रियों में मूर्धन्य हूँ। मैं उच्चकोटि की वक्ता हूँ। मुझ विजयिनी की इच्छानुसार ही मेरा पति आचरण करता है।

वेदों में नारी का गौरवमय स्थान इससे भी ज्ञात होता है कि नारी को ही घर कहा गया है -

जायेदस्तं मधवन्त्सेदु योनि स्तदित्वा युक्ता हरयो वहन्तु॥ - ऋग्वेद 3।53।4

अर्थात् घर, घर नहीं है अपितु गृहिणी ही गृह है। गृहिणी के द्वारा ही गृह का अस्तित्व है। यही भाव एक संस्कृत सुभाषित में कहा गया है कि गृहिणी ही घर है “न गृहं गृहमित्याहुः, गृहिणी गृहमुच्यते।”

यही नहीं स्त्री को सरस्वती का रूप मानते हुए कहा गया है -

प्रति तिष्ठ विराडसि, विष्णुरिवेह सरस्वति। सिनीवालि प्र जायताँ, भगस्य सुमतावसत्॥ अथर्ववेद - 14।2।15

हे नारी ! तुम यहाँ प्रतिष्ठित हो। तुम तेजस्विनी हो। हे सरस्वती ! तुम यहाँ विष्णु के तुल्य प्रतिष्ठित होना। हे सौभाग्यवती नारी ! तुम सन्तान को जन्म देना और सौभाग्य देवता की कृपा दृष्टि में रहना।

स्त्री की प्रतिष्ठा अपने गुणों और योग्यता के आधार पर ही है। अतः कहा गया है -

स्वैर्दक्षेर्दक्षपितेह सीद, देवानाऽसुम्ने बृहते रणाय। -यजु. 14।3

हे नारी ! तुम अपनी योग्यता से ज्ञान का कोश होकर, देवों के कल्याण तथा महान आनन्द के लिए इस घर में रहो।

वेदों की ही तरह ब्राह्मण ग्रन्थों में भी नारी का गौरव वर्णित है। यहाँ नारी को सावित्री कहा गया है - “ स्त्री सावित्री”।

जैमिनीय उप. ब्रा. 25।10।17। तैत्तिरीय ब्राह्मण में इसे आत्मा का अर्द्धांश बताया है –

अर्धों वा एष आत्मनः यत पत्नी।

तैत्ति. ब्रा. 3।3।3।5 इसी में एक अन्य स्थान पर बताया गया है - नारी के बिना यज्ञ अपूर्ण है। अतः सपत्नीक यज्ञ करें।

अयज्ञो वा एषः। योऽपत्नीकः। तैत्ति. ब्रा. 2।2।2।6।

यही नहीं शतपथ ब्राह्मण में कहते हैं - यावत् जयाँ न विन्दते, असर्वो हि तावद् भवति। शतपथ ब्रा. 5.2.1.10. अर्थात् पत्नी के बिना जीवन अधूरा है। ऐतरेय ब्राह्मण का कथन है - जाया गार्हपत्यः (अग्निः) ऐत. ब्रा. 8.24 - पत्नी गार्हपत्य अग्नि हैं यही नहीं शतपथ ब्राह्मण में स्त्री के अपमान को निन्दनीय माना गया है - न वै स्त्रियं हनन्ति। शत. ब्रा. 11.4.3.2। तैत्तिरीय के अनुसार - “श्रिया वाएतद् रुप्यं यत् पत्नयः।” तैत्ति. ब्रा. 3.9.4.7 अर्थात् पत्नी गृहलक्ष्मी है, साक्षात श्री है।

उपनिषद्कारों ने तो नर और नारी में कभी कहीं भेद किया ही नहीं। उन्होंने तो नर और नारी दोनों में ही एक ही तत्व का अस्तित्व, एक ही चेतना की छाया देखी है। तभी तो उन्होंने गाया है - यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्त्याभ्यमृतः।

- वृहदारण्यक उपनिषद् 3।7।15

ये सब भूतों में रहता हुआ भी सबसे पृथक है, जिसे सारे भूत नहीं जानते। सारे भूत जिसका शरीर है, जो सब भूतों में स्थित होकर उनका नियन्त्रण करता है। वह तेरी आत्मा हैं वह सब में व्याप्त है और किसी में भी विशेष अविशेष नहीं है।

इस तात्विक अभेदता के बावजूद व्यावहारिक रूप से अधिक जिम्मेदारी वहन करने के कारण स्मृतिकारों ने नारी को विशेष सम्मान देने के निर्देश दिए हैं, मनु का कहना है -

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रियाः॥ - मनु 3।56

अर्थात् - जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ इनका सम्मान नहीं होता, वहाँ प्रगति, उन्नति की सारी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।

एक अन्य थान पर कहा गया है -

यदि कुलोन्नयने सरसं मनो, यदि विलासकलासु कुतूहलम्। यदि निजत्वमभीप्सितमकेदा, कुरु सताँ श्रुतशीलवतीं तदा॥

अर्थात् - यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे कुल की उन्नति हो। यदि तुम्हें ललित कलाओं में रुचि है। यदि तुम अपना और अपनी सन्तान का कल्याण करना चाहते हो तो अपनी कन्या को विद्या, धर्म और शील से युक्त करो।

पारस्कर गुह्यसूत्र में तो स्त्रियों की गौरवमयी गाथा के गुणमान को गर्व के साथ वर्णित किया गया है। तामद्य गाथाँ - गास्यामि ता स्त्रीणामुक्तमं यश इतिः। पार. गृह्य. 1.7.2। वृहत्संहिता में कहा गया है - “पुरुषाणाँ सहस्रं च सती स्त्री समुद्धेरत।” अर्थात् सती स्त्री अपने पति का ही नहीं, अपने उत्कृष्ट आचरण की प्रत्यक्ष प्रेरणा से सहस्रों पुरुषों का उद्धार यानि श्रेष्ठता की दिशा का मार्गदर्शन करती है। व्यास संहिता का वचन है - “यायन्त विन्दते जायाँ, तावदर्धोभवेतपुमान्” अर्थात् पत्नी के प्राप्त होने के पूर्व तक पुरुष अधूरा है।

अन्य शास्त्रकारों की ही भाँति पुराणकार भी नारी की गरिमा का उल्लेख करने के पीछे नहीं रहे। मार्कण्डेय पुराण में सभी स्त्रियों को आदि शक्ति का ही स्वरूप माना गया है -

विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः। स्त्रियः समस्ता सकला जगत्सु॥

अर्थात् - समस्त स्त्रियाँ और समस्त विधाएं देवी रूप ही हैं।

श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी ने पुत्रेष्टि यज्ञ के समय कन्या उत्पन्न होने की याचना की -

तत्रश्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत्। दुहिर्त्रथमुपागम्य प्रणिपत्य प्रयोवता॥ - श्रीमद्भागवत् 9।1।14

इसी यज्ञ से इला की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजा कुशध्वज की पत्नी मालावती के उदर से उत्पन्न हुई वेदवती नामक कन्या का वर्ण है, जो बचपन से ही वेदोच्चारण में प्रवीण थी।

वेदध्वनिं सा चकार, जातमात्रेण कन्यका। तस्माताँ ते वेदवर्ती प्रवदन्ति मनीषिणः॥

सततं मूर्ति मन्तष्च, वेदाष्च चत्वार एवं च। सन्ति यस्याष्च जिह्वाणे, साच वेदवती स्मृता॥ - ब्रह्मवैवर्त. प्रकृति. अ. 14

वह कन्या पैदा होते ही वेद की ध्वनि करने लगी। इस कारण से वे बुद्धिमान लोग उसका वेदवती कहने लगे। निश्चय ही चारों वेद मूर्तिमान होकर सदा उसकी जबान के अनुभाग में रहते थे। इसलिए उसका नाम वेदवती था।

तन्त्रशास्त्र के प्रणेता तो शक्ति के उपासक ही रहे हैं। यही कारण है कि उनकी नारी के प्रति श्रद्धा, पुराणकारों से भी कहीं अधिक मुखर ढंग से अभिव्यक्त हुई है। शक्ति आगमतन्त्र के तारा खण्ड में कहा गया है -

नारी त्रैलोक्य जननी, नारी त्रैलोक्य रुपिणी। नारी त्रिभुवनादारा, नारी शक्ति स्वरुपिणी॥ - शक्ति आगम तन्त्र, ताराखण्ड 13.44

इसी शास्त्र के प्रणेता का आगे कथन है -

न च नारी समं सौख्यं, न च नारी समागति, न च नारी सदृषं भाग्यं, न च भूतो न भविष्यति।

न च नारी सदृषं राज्यं, न च नारी सदृषं तपः, न च नारी सदृषं तीर्थं, न भूतं न भविष्यति।

न नारी सदृषो योगो, न नारी सदृषो जपः, न नारी सदृषो योगो, न भूतो न भविष्यति।

न नारी सदृषो मन्त्रः, न नारी सदृषं तपः, न नारी सदृषं वित्तं, न भूतो न भविष्यति। - शक्ति आगम तन्त्र, ताराखण्ड 13.46,48

विभिन्न शास्त्रों में प्रतिपादित नारी की इस विशिष्टता का आधार उसकी अन्तर्निहित क्षमता एवं सद्गुण सम्पत्ति है। जिसे प्राचीन समय में विकसित होने के पूरे अवसर थे। यही नहीं प्राचीन पूर्वजों के मन में उसके लिए भरपूर सम्मान और समता की भावना थी। यों तो व्यावहारिक यथार्थ यही है, जिसके पास सामाजिक प्रभुता होती है, उसी का सब सम्मान करते हैं। इसलिए नारी की वर्तमान उपेक्षित स्थिति के लिए वेद, शास्त्र, पुराण आदि को दोष देने और अर्थहीन विवाद खड़े करते रहने तथा ठोस कार्य कुछ न करने के स्थान पर जरूरत इस बात की है कि नारी को पुनः वैसा ही सक्षम, समर्थ बनाया जाए, जैसा कि प्राचीन शास्त्रों में वर्णित है।


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