जीवन की शाँति माँ के चरणों में

September 1996

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सूफी सन्त बायजीद को संसार से विरक्ति हो गयी, उन्होंने गृह परित्याग कर दिया और ब्रह्म आराधना में लीन हो गए। अपने बेटे की याद में रोते रोते बायजीद की माँ ने आँखें खो दीं। बायजीद ने यह सुना तो अत्यन्त दुखी हुए। उन्होंने कहा - मनुष्य जीवन की शान्ति माँ के चरणों पर रखी है। मेरा कितना दुर्भाग्य था कि उसे खोजने बाहर निकला। बायजीद घर लौट पड़े और अपना शेष जीवन माँ की सेवा, मातृत्व के उद्धार में लगाया।

संसार में आया हर प्राणी माँ से अधिक और किसी का ऋणी नहीं। दूसरे अपेक्षा करते हैं, पर वह उत्सर्ग करती है। उसकी करुणा, स्नेह, ममता और वात्सल्य का रस पीकर ही मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है। अयोध्या के सिंहासन पर राम आसीन हो चुके थे। राज्य की प्रजा को किसी तरक की कोई पीड़ा या कष्ट तो नहीं है, यह जानने के लिए उनके गुप्तचर परिभ्रमण किया करते थे और प्रतिदिन सायंकाल राम को सारी जानकारियाँ दिया करते। एक दिन एक गुप्तचर ने भगवान श्रीराम को एक ऐसी घटना बताई, जिससे मातृत्व की यथार्थ महिला झलकती है।

एक माँ अपने बेटे को स्तन पान करा रही थी। बालक का मन क्रीड़ा में लगा था, सो वह बार बार स्तन से मुख हटा लेता था। माँ हर बार स्तन मुँह में डालती और बालक हर बार वही अरुचि व्यक्त करता। भावविभोर माँ ने तब बच्चे को सम्बोधित करके कहा - मेरे लाल ! हम तुम दोनों रामराज्य में जन्मे हैं, जहाँ हर व्यक्ति अज्ञान, अशक्ति और अभाव से मुक्त है। इस राज्य में किसी का पुनर्जन्म नहीं होता। यहाँ का हर प्राणी संसार चक्र के आवागमन से मुक्त हो जाता है। फिर न मुझे माँ के रूप में जन्म लेना है, न तुझे मेरे बेटे के रूप में। तुझे जी भर कर दूध पिलाने की मेरी आकाँक्षा अधूरी न रह जाए तात ! सो तू मेरा मीठा दूध छककर पी।

गुप्तचर यह संवाद देते देते भाव विह्वल हो जाता है, स्वयं प्रभु श्रीराम के नेत्रों से करुणा झरने लगती है। माँ की ममता का यह उपाख्यान कठोर से कठोर हृदय में भावनाओं का ज्वार ला देता है।

माँ सर्वव्यापी सत्ता की प्रतिकृति है। देश जाति की संकीर्णताएं उसकी नम्रता को कभी अवरुद्ध नहीं कर पायीं। उसी की भाव संजीवनी ने पौरुष को महानता प्रदान की है। उसी ने खुद मानव को मानवीय गरिमा प्रदान की है। राम, कृष्ण, गौतम, महाराणा प्रताप, शिवाजी, वीर हम्मीर, सुकरात, अरस्तू आदि सभी महापुरुषों के जीवन में छलकने वाली सम्वेदना, प्राण और प्रकाश उनके जीवन उनकी माँ के स्तनों से होकर आया है।

इस महान महिमामयी माँ की प्रतिष्ठा ही मानवता की सच्ची प्रतिष्ठा है। नारी के विविध रूपों में माँ के ही संस्कार सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। उनकी पवित्रता की रक्षा, मातृत्व का सम्मान और उसके उपकारों का मूल्य चुकाने का हमारा कर्तव्य सो नहीं जाना चाहिए। माँ के ऋण आज से ही चुकाए जाएं ।तो भी वह मरने तक शायद ही चुक पाएं, वे इतने असीम हैं, इतने अनन्त हैं।

आधुनिक सभ्यता के अनेक अभिशापों में एक यह भी है कि इतने कष्ट इतनी पीड़ाएं झेलकर जिस माँ ने जन्म दिया, उसी की अब उपेक्षा होने लगी हैं। उसका अनादर बढ़ रहा है। विलासिता के प्रति जन आकर्षण ने ही नारी के माँ रूप की अवहेलना और उसके रमणी तथा कामिनी स्वरूप की उपासना शुरू कर दी है। इसे यों भी कह सकते हैं कि आज का मानव शान्ति शीलतादायिनी निर्झरिणी से दूर मरुस्थल की मृग मरीचिका में भटक गया है। निराशा, अशान्ति, असन्तोष, कलह, कटुता में खीझते हुए दम्पत्ति सामाजिक जीवन भी यही बुराइयां फैलाते हैं। यह एक कटु सत्य है जो माँ के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता, वह समाज को भी कभी अपना नहीं मानता। ऐसे स्वार्थ व संकीर्णता की प्रवृत्ति वाला व्यक्ति किसी के भी साथ छल कर सकता, धोखा दे सकता है। मूल प्रश्न व्यवहार का नहीं दर्शन का है। यदि लोग मान्यता बनाने लगें, तो हानि की सम्भावनाएं बहुत अधिक बढ़ जाती हैं। यही कुछ आज दृष्टिगोचर होता है। कृतज्ञता का अभाव तो केवल बर्बर और खूँख्वार जानवरों में ही होता है। यह सामाजिक जीवन का एक ऐसा पाप है, जो जीवन को जंगली बना देता है। माँ के प्रति बरती गयी कृतघ्नता, किसी भी रूप में हितकारक नहीं, चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक। इससे मातृत्व का तो कुछ न बिगड़ेगा, अपनी भावनाओं से तो वह भाव विभोर रहने का आनन्द लेगी ही, मनुष्य ही अपने पैरों आप ही कुल्हाड़ी मारने जैसा स्वयं का अहित करेगा।

माँ के प्रति कोमलता और पवित्रता के विचार प्रत्येक जाति, हर संस्कृति में अभिव्यक्त हुए हैं। रोमन कैथोलिक धर्म में मेडोना और पुत्र के रूप में यीशु के चित्र की पूजा की जाती है इसे पुत्र और माँ की सघन आत्मीयता की अभिवन्दना कहा जाना चाहिए। लीबिया में मातृत्व को कानूनी रूप से इतना सम्मान प्राप्त है कि उसी से उसकी महत्ता अभिव्यक्त होती है। क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी माँ के पास आकर कुछ क्षणों के लिए जलते हुए विद्वेषी जीवन में शान्ति का अनुभव करते हैं। भारतीय संस्कृति में तो, या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, कहकर उसे सर्वव्यापी होने की संज्ञा दी है। जो उसकी महिमा और गरिमा को देखते हुए उचित ही है। नारी को भाव प्रवणता का पर्याय कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह उसका जन्मजात संस्कार है। इसी कारण वह बाल्यावस्था से ही स्नेह और श्रद्धा की पात्र बनी रहती है। यदि उसे आत्मसम्मान मिलता रहे, तो वह अपनी तपश्चर्या से आरे समाज को गौरवान्वित कर सकती है। बाल्यकाल में वह पिता, बड़े भाइयों का स्नेह दुलार पाकर घर भर के काम करती घूमती है, तो गृहस्थ जीवन में वह त्याग के सिंहासन पर आरुढ़ होती है। घर भर की सेवा साधना, पति का स्नेह-अभिसिंचन जैसा वह करती है, सृष्टि का कोई अन्य प्राणी शायद की करता है। माँ के रूप में तो वह भावनाओं की साकार प्रतिमा ही है। इतना त्याग ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई और नहीं कर सकता। उसके इस अनुग्रह का आभार व्यक्त करने के लिए भारतीय संस्कृति ने उसे परमेश्वरी का स्थान दिया और परमात्मा के नारी रूप माता गायत्री की उपासना प्रचलित की। यह सर्वव्यापक और विश्व उपासना के रूप में सम्मानित हुई। उसी से मातृसत्ता की महिमा प्रतिपादित होती है।

माँ का आशीर्वाद रहने तक यह देश सर्वशक्ति सम्पन्न राष्ट्र रहा, पर अब उसके पतन के सारे देश को अन्धकार के गर्त में जा धकेला। अब जबकि हम प्रगति के लिए उठ खड़े हुए हैं, माँ का आशीष लेना अत्यावश्यक है। उसके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। बढ़े भी तो प्रगति स्थिर रख सकेंगे, यह सन्देह जनक ही रहेगा।


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